उत्साह : आचार्य रामचंद्र शुक्ल ( Utsah : Acharya Ramchandra Shukla )

उत्साह : आचार्य रामचंद्र शुक्ल

दुख के वर्ग में जो स्थान भय का है, वही स्थान आनंद-वर्ग में उत्साह का है | दुख हम प्रस्तुत कठिन स्थिति के नियम से विशेष रूप में दुखी और कभी-कभी उस स्थिति से अपने को दूर रखने के लिए प्रयत्नवान् भी होते हैं | उत्साह में हम आने वाली कठिन स्थिति के भीतर साहस के अवसर के निश्चय द्वारा प्रस्तुत कर्म सुख की उमंग से अवश्य प्रयत्नवान् होते हैं | उत्साह में कष्ट या हानि सहने की दृढ़ता के साथ-साथ कर्म में प्रवृत्त होने के आनंद का योग रहता है | साहस पूर्ण उमंग का नाम उत्साह है | कर्म-सौंदर्य के उपासक ही सच्चे उत्साही कहलाते हैं |

जिन कर्मों में किसी प्रकार का कष्ट या हानि सहने का साहस अपेक्षित होता है उन सबके प्रति उत्कंठापूर्ण आनंद उत्साह के अंतर्गत लिया जाता है | कष्ट या हानि के भेद के अनुसार उत्साह के भी भेद हो जाते हैं | साहित्य-मीमांसकों ने इस दृष्टि से युद्ध-वीर, दान-वीर, दया-वीर इत्यादि भेद किए हैं | इनमें सबसे प्राचीन और प्रधान युद्ध वीरता है, जिसमें आघात, पीड़ा क्या मृत्यु तक की परवाह नहीं रहती |

इस प्रकार की वीरता का प्रयोजन अत्यंत प्राचीन काल से पड़ता चला आ रहा है जिसमें साहस और प्रयत्न दोनों चरम उत्कर्ष पर पहुंचते हैं | पर केवल कष्ट या पीड़ा सहन करने के साहस में ही उत्साह का स्वरूप स्फुरित नहीं होता | उसके साथ आनंदपूर्ण प्रयत्न या उसकी उत्कंठा का योग चाहिए | बिना बेहोश हुए भारी फोड़ा चिराने को तैयार होना साहस कहा जाएगा, पर उत्साह नहीं | इसी प्रकार चुपचाप, बिना हाथ पैर हिलाये, घोर प्रहार सहने के लिए तैयार रहना साहस और कठिन से कठिन प्रहार सहकर भी जगह से न हटना वीरता कही जाएगी | ऐसे साहस और धीरता को उत्साह के अंतर्गत तभी ले सकते हैं जबकि साहसी या धीर उस काम को आनंद के साथ करता चला जाएगा जिसके कारण उसे इतने प्रहार सहने पड़ते हैं | सारांश यह है कि आनंदपूर्ण प्रयत्न या उसकी उत्कंठा में ही उत्साह का दर्शन होता है, केवल कष्ट सहने के निश्चेष्ट साहस में नहीं | धृति और साहस दोनों का उत्साह के बीच संचरण होता है |

दानवीर में अर्थ-त्याग का साहस अर्थात उसके कारण होने वाले कष्ट कठिनता को सहने की क्षमता अंतर्हित रहती है | दानवीरता तभी कही जाएगी जब दान के कारण दानी को अपने जीवन-निर्वाह में किसी प्रकार का कष्ट या कठिनता दिखाई देगी | इसी कष्ट या कठिनता की मात्रा या संभावना जितनी ही अधिक होगी, दानवीरता उतनी ही ऊंची समझी जाएगी | पर इस अर्थ-त्याग के साहस के साथ ही जब तक पूर्ण तत्परता और आनंद के चिह्न न दिखाई पड़ेंगे तब तक उत्साह का स्वरूप न खड़ा होगा |

युद्ध के अतिरिक्त संसार में और भी ऐसे विकट काम होते हैं जिनमें घोर शारीरिक कष्ट सहना पड़ता है और प्राण खाने तक की संभावना रहती है | अनुसंधान के लिए तुषार-मंडित ( हिमाच्छादित / बर्फ से ढका ) अभ्रभेदी ( आकाश को छूने वाले ) अगम्य पर्वतों की चढ़ाई, ध्रुव देश या सहारा के रेगिस्तान का सफर, क्रूर, बर्बर जातियों के बीच अज्ञात घोर जंगलों में प्रवेश इत्यादि भी पूरी वीरता और पराक्रम के कर्म हैं | इनमें जिस आनंदपूर्ण तत्परता के साथ लोग प्रवृत्त होते हैं, वह भी उत्साह ही है |

मनुष्य शारीरिक कष्ट से ही पीछे हटने वाला प्राणी नहीं है | मानसिक क्लेश की संभावना से भी बहुत से कर्मों की ओर प्रवृत्त होने का साहस उसे नहीं होता | जिन बातों से समाज के बीच उपहास, निंदा, अपमान इत्यादि का भय रहता है उन्हें अच्छी और कल्याणकारी समझते हुए भी बहुत से लोग उनसे दूर रहते हैं | प्रत्यक्ष हानि देखते हुए भी कुछ प्रथाओं का अनुसरण बड़े-बड़े समझदार तक इसलिए करते चलते हैं कि उनके त्याग से भी बुरे कहे जाएंगे, लोगों में उनका वैसा आदर-सम्मान न रह जाएगा | उसके लिए मान-ग्लानि का कष्ट सब शारीरिक क्रियाओं से बढ़कर होता है | जो लोग मान-अपमान का कुछ भी ध्यान न करके, निंदा-स्तुति की कुछ भी परवाह न करके, किसी प्रचलित प्रथा के विरुद्ध पूर्ण तत्परता और प्रसन्नता के साथ कार्य करते हैं वे एक ओर तो उत्साही और वीर कहलाते हैं, दूसरी ओर भारी बेहया |

किसी शुभ परिणाम पर दृष्टि रखकर निंदा-स्तुति, मान-अपमान आदि की कुछ परवाह न करके प्रचलित प्रथाओं का उल्लंघन करने वाले वीर या उत्साही कहलाते हैं, यह देखकर बहुत से लोग केवल इस विरुद्ध के लोभ में ही अपनी उछल-कूद दिखाया करते हैं | वे केवल उत्साही या साहसी कहे जाने के लिए ही चली आती हुई प्रथाओं को तोड़ने की धूम मचाया करते हैं | शुभ या अशुभ परिणाम से उनको कोई मतलब नहीं, उनकी ओर उनका ध्यान लेशमात्र नहीं रहता | जिस पक्ष के बीच की सुख्याति का वे अधिक महत्व समझते हैं उसकी वाहवाही से उत्पन्न आनंद की चाह में वे दूसरे पक्ष के बीच की निंदा या अपमान की कुछ परवाह नहीं करते | ऐसे ओछे लोगों के साहस या उत्साह की अपेक्षा उन लोगों के साहस – भाव की दृष्टि से – कहीं अधिक मूल्यवान हैं जो किसी प्राचीन प्रथा की – चाहे वास्तव में हानिकारिणी ही हो – उपयोगिता का सच्चा विश्वास रहते हुए प्रथा तोड़ने वालों की निंदा, उपहास, अपमान आदि सहा करते हैं |

समाज सुधार के वर्तमान आंदोलनों के बीच जिस प्रकार सच्ची अनुभूति से प्रेरित उच्चाशय और गंभीर पुरुष पाए जाते हैं उसी प्रकार तुच्छ मनोवृतियों द्वारा प्रेरित साहसी और दयावान भी बहुत मिलते हैं | मैंने कई छिछोरों और लंपटों को विधवाओं की दशा पर दया दिखाते हुए उनके पापाचार के लंबे-चौड़े दास्तान हर दम सुनते-सुनाते पाया है | ऐसे लोग वास्तव में काम-कथा के रूप में ऐसे वृतांतों का तन्मयता के साथ कथन और श्रवण करते हैं | इस ढांचे के लोगों से सुधार के कार्य में कुछ सहायता पहुंचाने के स्थान पर बाधा पहुंचाने ही की संभावना रहती है | ‘सुधार’ नाम पर साहित्य के क्षेत्र में भी ऐसे लोग गंदगी फैलाते पाए जाते हैं |

उत्साह की गिनती अच्छे गुणों में होती है | किसी भाव के अच्छे या बुरे होने का निश्चय अधिकतर उसकी प्रवृत्ति के शुभ या अशुभ परिणाम के विचार से होता है | वही उत्साह है जो कर्तव्य कर्मों के प्रति इतना सुंदर दिखाई पड़ता है, अकर्तव्य कर्मों की ओर होने पर वैसा श्लाघ्य ( प्रशंसनीय ) नहीं प्रतीत होता | आत्मरक्षा, पर-रक्षा, देश-रक्षा आदि के निमित्त साहस की जो उमंग देखी जाती है उसके सौंदर्य को पर-पीड़न, डकैती आदि कर्मों का साहस कभी नहीं पहुंच सकता | यह बात होते हुए भी विशुद्ध उत्साह या साहस की प्रशंसा संसार में थोड़ी-बहुत होती ही है | अत्याचारियों या डाकुओं के शौर्य और साहस की कथाएं भी लोग तारीफ करते हुए सुनते हैं |

अब तक उत्साह का प्रधान रूप ही हमारे सामने रहा, जिसमें साहस का पूरा योग रहता है | पर कर्ममात्र के संपादन में जो तत्परतापूर्ण आनंद देखा जाता है वह उत्साह ही कहा जाता है | सब कामों में साहस अपेक्षित नहीं होता, पर थोड़ा बहुत आराम, विश्राम, सुभीते इत्यादि का त्याग सब में करना पड़ता है, और कुछ नहीं तो उठ कर बैठना, खड़ा होना या दस-पांच कदम चलना ही पड़ता है | जब तक आनंद का लगाव किसी क्रिया, व्यापार या उसकी भावना के साथ नहीं दिखाई पड़ता तब तक उसे ‘उत्साह’ की संज्ञा प्राप्त नहीं होती | यदि किसी प्रिय मित्र के आने का समाचार पाकर हम चुपचाप ज्यों के त्यों आनंदित होकर बैठे रह जाएं या थोड़ा हंस भी दें तो यह हमारा उत्साह नहीं कहा जाएगा | हमारा उत्साह तभी कहा जाएगा जब हम अपने मित्र का आगमन सुनते ही उठ खड़े होंगे | उनसे मिलने के लिए दौड़ पड़ेंगे और उसके ठहरने आदि के प्रबंध में प्रसन्न-मुख इधर-उधर आते-जाते दिखाई देंगे | प्रयत्न और कर्म संकल्प उत्साह नामक आनंद के नित्य लक्षण हैं |

प्रत्येक कर्म में थोड़ा या बहुत बुद्धि का योग भी होता है | कुछ कर्मों में तो बुद्धि की तत्परता और शरीर की तत्परता दोनों बराबर साथ-साथ चलती हैं | उत्साह की उमंग जिस प्रकार हाथ-पैर चलवाती है उसी प्रकार बुद्धि से भी काम कराती है | ऐसे उत्साहवाले वीर को कर्मवीर कहना चाहिए या बुद्धिवीर – यह प्रश्न ‘मुद्राराक्षस’ नाटक बहुत अच्छी तरह हमारे सामने लाता है | चाणक्य और राक्षस के बीच चोटें चली हैं वे नीति की हैं – शस्त्र की नहीं | अतः विचार करने की बात यह है कि उत्साह की अभिव्यक्ति बुद्धि व्यापार के अवसर पर होती है अथवा बुद्धि द्वारा निश्चित उद्योग में तत्पर होने की दशा में | हमारे देखने में तो उद्योग की तत्परता में ही उत्साह की अभिव्यक्ति होती है ; अतः कर्मवीर ही कहना ठीक है |

बुद्धि-वीर दृष्टान्त कभी-कभी हमारे पुराने ढंग के शास्त्रार्थों में देखने को मिल जाते हैं | जिस समय किसी भारी शास्त्रार्थी पंडित से भिड़ने के लिए कोई विद्यार्थी आनंद के साथ सभा में आगे आता है उस समय उसके बुद्धि-साहस की प्रशंसा अवश्य होती है | वह जीते या हारे, बुद्धि-वीर समझा ही जाता है | इस जमाने में वीरता का प्रसंग उठाकर वाग्वीर का उल्लेख आदि न हो तो बात अधूरी ही समझी जाएगी | ये वाग्वीर आजकल बड़ी-बड़ी सभाओं के मंचों पर से लेकर स्त्रियों के उठाये हुए पारिवारिक प्रपंचों तक में पाए जाते हैं और काफी तादाद में |

थोड़ा यह भी देखना चाहिए कि उत्साह में ध्यान किस पर रहता है | कर्म पर, उसके फल पर अथवा व्यक्ति या वस्तु पर? हमारे विचार में उत्साही वीर का ध्यान आदि से अंत तक पूरी कर्म श्रृंखला पर से होता हुआ उसकी सफलता रूपी समाप्ति तक फैला रहता है | इसी ध्यान से जो आनंद की तरंगे उठती हैं वे ही सारे प्रयत्न को आनंदमय कर देती हैं | युद्ध-वीर में विजेतव्य को आलंबन कहा गया है उसका अभिप्राय यही है कि विजेतव्य कर्म प्रेरक के रूप में वीर के ध्यान में स्थिर रहता है, वह कर्म स्वरूप का भी निर्धारण करता है | पर आनंद और साहस के मिश्रित भाव का सीधा लगाव उसके साथ नहीं रहता | सच पूछिए तो वीर के उत्साह का विषय विजय-विधायक कर्म या युद्ध ही रहता है | दानवीर और धर्मवीर पर विचार करने से यह बात स्पष्ट हो जाती है | दान दयावश, श्रद्धावश या कीर्ति-लोभवश दिया जाता है | यदि श्रद्धावश दान दिया जा रहा है तो दान-पात्र वास्तव में श्रद्धा का और यदि दयावश दिया जा रहा है तो पीड़ित यथार्थ में दया का विषय या आलंबन ठहरता है | अतः उस श्रद्धा या दया की प्रेरणा से जिस कठिन या दुस्साध्य कर्म की प्रवृत्ति होती है उसी की ओर उत्साही का साहसपूर्ण आनंद उन्मुख कहा जा सकता है | अतः और रसों में, आलंबन का स्वरूप जैसा निर्दिष्ट रहता है वैसा वीर रस में नहीं | बात यह है कि उत्साह एक यौगिक भाव है जिसमें साहस और आनंद का मेल रहता है |

जिस व्यक्ति या वस्तु पर प्रभाव डालने के लिए वीरता दिखाई जाती है उसकी ओर उन्मुख कर्म होता है और कर्म की ओर उन्मुख उत्साह नामक भाव होता है | सारांश यह कि किसी व्यक्ति या वस्तु के साथ उत्साह का सीधा लगाव नहीं होता | समुद्र लांघने के लिए जिस उत्साह के साथ हनुमान उठे हैं उसका कारण समुद्र नहीं – समुद्र लांघने का विकट कर्म है | कर्म भावना ही उत्साह उत्पन्न करती है, वस्तु या व्यक्ति की भावना नहीं |

किसी कर्म के संबंध में जहाँ आनंदपूर्ण तत्परता दिखाई पड़ती है हम उसे उत्साह कह देते हैं | कर्म के अनुष्ठान में जो आनंद होता है उसका विधान तीन रूपों में दिखाई पड़ता है —

1. कर्म भावना से उत्पन्न

2. फल भावना से उत्पन्न और

3. आगंतुक अर्थात विषयांतर से प्राप्त

इनमें कर्म-भावना-प्रसूत आनंद को ही सच्चे वीरों का आनंद समझना चाहिए, जिसमें साहस का योग बहुत अधिक रहा करता है | सच्चा वीर जिस समय मैदान में उतरता है उसी समय उसमें उतना आनंद भरा रहता है जितना औरों को विजय या सफलता प्राप्त करने पर होता है | उसके सामने कर्म और फल के बीच या तो कोई अंतर होता ही नहीं या बहुत सिमटा हुआ होता है | इसी से कर्म की ओर यह उसी झोंक से लपकता है जिस झोंक से साधारण लोग फल की ओर लपका करते हैं | इसी कर्म-प्रवर्तक आनन्द की मात्रा के हिसाब से शौर्य और साहस का स्फूरण होता है |

फल की भावना से उत्पन्न आनंद भी साधक कर्मों की ओर हर्ष और तत्परता के साथ प्रवृत्त करता है | पर फल का लोभ जहाँ प्रधान रहता है वहाँ कर्म-विषयक आनन्द उसी फल की भावना की तीव्रता और मन्दता पर अवलंबित रहता है | उद्योग के प्रभाव के बीच जब फल की भावना मंद पड़ती है – उसकी आशा कुछ धुंधली पड़ जाती है, तब-तब आनंद की उमंग गिर जाती है और उसी के साथ उद्योग में शिथिलता आ जाती है | पर कर्म-भावना-प्रधान बराबर एकरस रहता है | फलासक्त उत्साही असफल होने पर खिन्न और दुखी होता है, पर कर्मासक्त उत्साही केवल कर्मानुष्ठान के पूर्व की अवस्था में हो जाता है | अतः हम कह सकते हैं कि कर्म-भावना-प्रधान उत्साह ही सच्चा उत्साह है | फल-भावना-प्रधान उत्साह तो लोभ ही का एक प्रच्छन्न रूप है |

उत्साह वास्तव में कर्म और फल की मिली-जुली अनुभूति है जिसकी प्रेरणा से तत्परता आती है | यदि फल दूर ही पर दिखाई पड़े, उसकी भावना के साथ हो उसकी लेशमात्र भी कर्म या प्रयत्न के साथ लगाव न मालूम हो तो हमारे हाथ-पांव कभी न उठें और उस फल के साथ हमारा संयोग ही न हो | इससे कर्म श्रृंखला की पहली कड़ी पकड़ते ही फल के आनंद की भी कुछ अनुभूति होने लगती है | यदि हमें यह निश्चय हो जाए कि अमुक स्थान पर जाने से हमें किसी प्रिय व्यक्ति का दर्शन होगा तो उस निश्चय के प्रभाव से हमारी यात्रा भी अत्यंत प्रिय हो जाएगी | हम चल पड़ेंगे और हमारे अंगों की प्रत्येक गति में प्रफुल्लता दिखाई देगी | यही प्रफुल्लता कठिन से कठिन कर्मों के साधन में भी देखी जाती है | वे कर्म भी प्रिय हो जाते हैं और अच्छे लगने लगते हैं | जब तक फल तक पहुंचाने वाला कर्म-पथ अच्छा नहीं लगेगा तब तक केवल फल का अच्छा लगना कुछ नहीं | फल की इच्छा मात्र ह्रदय में रखकर जो प्रयत्न किया जाएगा वह अभावमय और आनंदशून्य होने के कारण निर्जीव सा होगा |

कर्म-रुचि-शून्य प्रयत्न में कभी-कभी इतनी उतावली और आकुलता होती है कि मनुष्य साधना के उत्तरोत्तर क्रम का निर्वाह न कर सकने के कारण बीच ही में चूक जाता है | मान लीजिए कि एक ऊंचे पर्वत के शिखर पर विचरते हुए किसी व्यक्ति को नीचे बहुत दूर तक गई हुई सीढ़ियां दिखाई दी और यह मालूम हुआ कि नीचे उतरने पर सोने का ढेर मिलेगा | यदि उसमें इतनी सजीवता है कि उक्त सूचना के साथ ही वह उस स्वर्ण-राशि के साथ एक प्रकार के मानसिक संयोग का अनुभव करने लगा तथा उसका चित्त प्रफुल्ल और अंग सचेष्ट हो गए, उसे एक-एक सीढ़ी स्वर्णमयी दिखाई देगी, एक-एक क्षण उसे सुख से बीता हुआ जान पड़ेगा और वह प्रसन्नता के साथ स्वर्ण-राशि तक पहुंचेगा | इस प्रकार उसके प्रयत्न-काल को भी फल-प्राप्ति काल के अंतर्गत ही समझना चाहिए | इसके विरुद्ध यदि उसका हृदय दुर्बल होगा और उसमें इच्छामात्र ही उत्पन्न होकर रह जाएगी, तो अभाव के बोध के कारण उसके चित्त में यही होगा कि कैसे झट से नीचे पहुंच जाए | उसे एक-एक सीढी उतरना बुरा मालूम होगा और आश्चर्य नहीं कि वह या तो हार कर बैठ जाए या लुढ़ककर मुंह के बल गिर पड़े |

फल की विशेष आसक्ति से कर्म के लाघल की वासना उत्पन्न होती है ; चित्त में यही आता है कि कर्म बहुत सरल करना पड़े और फल बहुत-सा मिल जाए | श्री कृष्ण ने कर्म मार्ग से फल आसक्ति की प्रबलता हटाने का बहुत ही स्पष्ट उपदेश दिया ; पर उनके समझाने पर भी भारतवासी इस वासना से ग्रस्त होकर कर्म से तो उदास हो बैठे और फल के इतने पीछे पड़े की गरमी में ब्राह्मण को एक पेठा देकर पुत्र की आशा करने लगे ; चार आने रोज का अनुष्ठान कराके व्यापार में लाभ, शत्रु पर विजय, रोग से मुक्ति, धन-धान्य की वृद्धि तथा और भी न जाने क्या-क्या चाहने लगे | आसक्ति प्रस्तुत या उपस्थित वस्तु में ही ठीक कही जा सकती है | कर्म सामने उपस्थित रहता है | इससे आसक्ति उसी में चाहिए ; फल दूर रहता है, इससे उसकी ओर कर्म का लक्ष्य काफी है | जिस आनंद से कर्म की उत्तेजना होती है और जो आनंद कर्म करते समय तक बराबर चला चलता है उसी का नाम उत्साह है |

कर्म के मार्ग पर आनंदपूर्वक चलता हुआ उत्साही मनुष्य यदि अंतिम फल तक न भी पहुंचे तो भी उसकी दशा कर्म न करने वाले की अपेक्षा अधिकतर अवस्थाओं में अच्छी रहेगी ; क्योंकि एक तो कर्म-काल में उसका जीवन बीता, वह संतोष या आनंद में बीता, उसके उपरांत फल की अप्राप्ति पर भी उसे यह पछतावा न रहा कि मैंने प्रयत्न नहीं किया | फल पहले से कोई बना-बनाया पदार्थ नहीं होता | अनुकूल प्रयत्न-कर्म के अनुसार, उसके एक-एक अंग की योजना होती है | बुद्धि द्वारा पूर्ण रूप से निश्चित की हुई व्यापार-परंपरा का नाम ही प्रयत्न है | किसी मनुष्य के घर का कोई प्राणी बीमार है | वह वैद्यों के यहां से जब तक औषधि ला-लाकर रोगी को देता जाता है और इधर-उधर दौड़-धूप करता जाता है तब तक उसके चित्त में जो संतोष रहता है – प्रत्येक नए उपचार के साथ जो आनंद का उन्मेश होता रहता है – यह उसे कदापि न प्राप्त होता, यदि वह रोता हुआ बैठा रहता | प्रयत्न की अवस्था में उसके जीवन का जितना अंश संतोष, आशा और उत्साह में बीता, अप्रयत्न की दशा में उतना ही अंश केवल शोक और दु:ख में कटता | इसके अतिरिक्त रोगी के न अच्छे होने की दशा में भी वह आत्मग्लानि के उस कठोर दु:ख से बचा रहेगा जो उसे जीवन भर यह सोच-सोचकर होता कि मैंने पूरा प्रयत्न नहीं किया |

कर्म में आनंद अनुभव करनेवालों ही का नाम कर्मण्य है | धर्म और उदारता के उच्च कर्मों के विधान में ही एक ऐसा दिव्य आनंद भरा रहता है कि कर्त्ता को वे कर्म ही फल-स्वरुप लगते हैं | अत्याचार का दमन और क्लेश का शमन करते हुए चित्त में जो उल्लास और तुष्टि होती है वही लोकोपकारी कर्म-वीर का सच्चा सुख है | उसके लिए सुख तब तक के लिए रुका नहीं रहता जब तक कि फल प्राप्त न हो जाए ; बल्कि उस समय से थोड़ा-थोड़ा करके मिलने लगता है जब से वह कर्म की ओर हाथ बढ़ाता है |

कभी-कभी आनंद का मूल विषय तो कुछ और रहता है पर उस आनंद के कारण एक ऐसी स्फूर्ति प्राप्त होती है जो बहुत से कामों की ओर हर्ष के साथ अग्रसर करती है | इसी प्रसन्नता और तत्परता को देख लोग कहते हैं कि वे काम बड़े उत्साह से किए जा रहे हैं | यदि किसी मनुष्य को बहुत-सा लाभ हो जाता है या उसकी कोई बड़ी भारी कामना पूर्ण हो जाती है तो जो काम उसके सामने आते हैं उन सबको वह बड़े हर्ष और तत्परता के साथ करता है | उसके इस हर्ष और तत्परता को भी लोग उत्साह ही कहते हैं | इसी प्रकार किसी उत्तम फल या सुख प्राप्ति की आशा या निश्चय से उत्पन्न आनंद, फलोन्मुख प्रयत्नों के अतिरिक्त और दूसरे व्यापारों के साथ संलग्न होकर, उत्साह के रूप में दिखाई पड़ता है | यदि हम किसी ऐसे उद्योग में लगे हैं जिससे आगे चलकर हमें बहुत लाभ या सुख की आशा है तो हम उस उद्योग को तो उत्साह के साथ करते ही हैं, अन्य कार्यों में भी प्रायः अपना उत्साह दिखा देते हैं |

यह बात उत्साह में नहीं, अन्य मनोविकारों में भी बराबर पाई जाती है | यदि हम किसी बात पर क्रुद्ध बैठे हैं और इसी बीच में कोई दूसरा आकर हमसे कोई बात सीधी तरह भी पूछता है तो भी हम उस पर झुंझला उठते हैं | इस झुंझलाहट का न तो कोई निर्दिष्ट कारण होता है न उद्देश्य | यह केवल क्रोध की स्थिति व्याघात को रोकने की क्रिया है, क्रोध की रक्षा का प्रयत्न है | इस झुंझलाहट द्वारा हम यह प्रकट करते हैं कि हम क्रोध में हैं और क्रोध ही में रहना चाहते हैं | क्रोध को बनाए रखने के लिए हम उन बातों से भी क्रोध ही संचित करते हैं जिनसे दूसरी अवस्था में हम विपरीत भाव प्राप्त करते | इसी प्रकार यदि हमारा चित्त किसी विषय में उत्साहित रहता है तो हम अन्य विषयों में भी अपना उत्साह दिखा देते हैं | यदि हमारा मन बढ़ा हुआ रहता है तो हम बहुत से काम प्रसन्नतापूर्वक करने के लिए तैयार हो जाते हैं | इसी बात का विचार करके सलाम-साधक लोग हाकिमों से मुलाकात करने के पहले अर्दलियों से उनका मिजाज पूछ लिया करते हैं |

‘उत्साह’ निबंध का मूल भाव / संदेश या उद्देश्य

‘उत्साह’ आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा रचित एक मनोवैज्ञानिक निबंध है | मानव मन में उत्पन्न भावों एवं विकारों का सूक्ष्म विवेचन-विश्लेषण करना शुक्ल जी के निबंधों की प्रमुख विशेषता रही है | प्रस्तुत निबंध में लेखक ने मानव मन में उत्पन्न ‘उत्साह’ नामक भाव की व्याख्या की है |

प्रस्तुत निबंध का मुख्य उद्देश्य ‘उत्साह’ नामक भाव की लक्षणात्मक व्याख्या करना है | इस निबंध के माध्यम से लेखक ने ‘उत्साह’ नामक भाव के विषय में समाज में व्याप्त भ्रांतियों को दूर करने करने का प्रयास किया गया है | लेखक के अनुसार कुछ लोग अच्छे कर्म करने वाले लोगों को उत्साही कहते हैं तो कुछ बुरे कामों में साहस दिखाने वाले लोगों को भी उत्साह ही कह देते हैं | आचार्य शुक्ल ने इस बात पर बल दिया है कि फल की अपेक्षा कर्म को अधिक महत्व देकर आनंदपूर्वक उद्योग करने वाला ही वास्तव में सच्चा उत्साही होता है | इस प्रकार का उत्साह केवल अच्छे कार्यों से ही उत्पन्न हो सकता है क्योंकि बुरे कर्म करने वाले व्यक्तियों का कोई ना कोई निजी स्वार्थ अवश्य होता है |

प्रस्तुत निबंध के माध्यम से लेखक ने उन तथाकथित उत्साहितजनों की पोल खोल दी है जो समाज सुधार के नाम पर समाज में अनैतिक कार्य करते हैं | लेखक ने उन लोगों की निंदा भी की है जो केवल उत्साही कहे जाने के लोग के कारण लोक प्रचलित परंपराओं का खंडन करते हैं |

लेखक के अनुसार उत्साह भी अनेक प्रकार के हो सकते हैं | युद्धवीरता, दानवीरता, बुद्धिवीरता एवं कर्मवीरता आदि कर्मों में हानि या लाभ की उपेक्षा करके साहसपूर्ण कष्ट सहने को लेखक ने उत्साह का नाम दिया है |

निष्कर्षत: सच्ची लगन एवं कर्तव्य-बुद्धि द्वारा कर्म करने वाला व्यक्ति जिस आनंदपूर्वक साहस का प्रदर्शन करता है, वास्तव में वही उत्साह होता है |

‘उत्साह’ ( आचार्य रामचंद्र शुक्ल ) निबंध की प्रमुख विशेषताएँ

‘उत्साह’ आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा रचित एक मनोवैज्ञानिक निबंध है | मानव मन में उत्पन्न भावों एवं विकारों का सूक्ष्म विवेचन-विश्लेषण करना शुक्ल जी के निबंधों की प्रमुख विशेषता रही है | प्रस्तुत निबंध में लेखक ने मानव मन में उत्पन्न ‘उत्साह’ नामक भाव की व्याख्या की है | निबंध कला की दृष्टि से प्रस्तुत निबंध में सभी प्रमुख तत्त्व देखे जा सकते हैं | उत्साह निबंध की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं —

1️⃣ संक्षिप्त सूत्रात्मक रूप

‘उत्साह’ निबंध की सर्वप्रथम तथा सर्वप्रमुख विशेषता यह है कि इसमें लेखक ने संक्षिप्त व व्यवस्थित रूप में अपने विचारों को प्रकट किया है | अनावश्यक विस्तार से परहेज किया गया है | ‘उत्साह’ भाव के संबंध में अपने विचारों को सूत्र रूप में प्रस्तुत करते हुए उदाहरणों एवं तर्कों से पुष्ट किया गया है |

2️⃣ विचारों की क्रमबद्धता

निबंध की दूसरी प्रमुख विशेषता विचारों का क्रमबद्ध होना है | शुक्ल जी के अनुसार निबंध में विचारों की ऐसी क्रमबद्धता होनी चाहिए की पाठक की बुद्धि उत्तेजित होकर किसी नए विचार की ओर दौड़ पड़े | लेकिन ये विचार पहले विचार के पूरक होने चाहिए | लेखक के अनुसार निबंध में बुद्धि-वैभव के साथ-साथ हृदय पक्ष का होना भी नितांत आवश्यक है | कोरी बुद्धि द्वारा रचे गए निबंध नीरस होते हैं | विशेषत: मानवीय भावों और मनोविकारों से संबंधित निबंध पूरी तरह से हृदय पर अवलंबित होते हैं | प्रस्तुत निबंध में पाठक का ह्रदय स्वयं उसे एक विचार से दूसरे विचार की ओर ले जाता है |

3️⃣ अन्य भावों की व्याख्या

आचार्य शुक्ल जी ने प्रस्तुत निबंध में केवल उत्साह के लक्षण या परिभाषा पर ही विचार प्रस्तुत नहीं किया अपितु उत्साह से भी पूर्व उपस्थित होने वाले साहस, प्रयत्न एवं आनंद जैसे मनोभावों का भी सारगर्भित भाषा में विवेचन किया | इन सभी मनोभावों का उत्साह की भूमिका में विशेष योगदान है | अतः बिना इनके स्वरूप को जाने उत्साह को जाना असंभव है | शुक्ल जी ने साहसपूर्ण आनंद की साथ लक्ष्य प्राप्ति के लिए प्रयत्न करने को उत्साह कहा है | ऐसी अवस्था में ‘उत्साह’ से पहले ‘साहस’, ‘आनंद’ और ‘प्रयत्न’ का विवेचन करना आवश्यक हो जाता है |

4️⃣ उत्कृष्ट भाषा

प्रस्तुत निबंध की भाषा प्रौढ़, परिमार्जित तथा विषयानुकूल है | जहाँ सूत्रात्मक शैली का प्रयोग किया गया है वहाँ भाषा का संस्कृनिष्ट रूप दिखाई देता है | सूत्र की व्याख्या करते समय सामान्य भाषा का प्रयोग किया गया है | भाषा में कठिन शब्दों के अनावश्यक प्रयोग से बचा गया है | लेकिन फिर भी निबंध की भाषा में इतनी कसावट है कि वाक्य में से यदि एक शब्द भी निकाल दें या इधर-उधर कर दें तो वाक्य अपने अपेक्षित अर्थ को खो देगा |

उपर्युक्त विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है कि ‘उत्साह’ निबंध निबंध-कला की दृष्टि से एक श्रेष्ठ रचना है | इसमें एक सफल निबंध के सभी प्रमुख तत्व मिलते हैं |

उत्साह के भेद या प्रकार

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने युद्धवीर, दयावीर, कर्मवीर तथा बुद्धिवीर को उत्साह के भेद माना है |

लेखक के अनुसार युद्धवीर का उत्साह सर्वाधिक प्राचीन है | इस प्रकार के उत्साह में आधात, पीड़ा तो क्या मृत्यु तक की परवाह नहीं रहती | इस प्रकार के उत्साह में साहस और प्रयत्न दोनों चरम उत्कर्ष पर होते हैं |

दानवीर के उत्साह में अर्थ ( धन ) त्याग का साहस अर्थात उसके कारण होने वाले कष्ट या कठिनता को सहन करने की क्षमता अंतर्निहित होती है | दानवीरता तभी कही जाएगी जब दान के कारण दानी को अपने जीवन-निर्वाह में किसी प्रकार का कष्ट या कठिनाई दिखाई देगी | परंतु यदि कठिनाई के बावजूद वह प्रसन्नतापूर्वक दान देता रहता है तो वह दानवीर है |

कर्मवीर व्यक्ति कर्म करते समय आनंद की अनुभूति करता है | कर्मवीर व्यक्ति फल की अधिक परवाह नहीं करता अन्य व्यक्ति जहाँ फल को नजर में रखकर कार्य करते हैं और केवल फल के मिलने पर ही आनंद की अनुभूति करते हैं वही कर्मवीर व्यक्ति प्रतिदिन-प्रतिपल आनंद की अनुभूति करता है |

बुद्धि वीर के उत्साह में बुद्धि की प्रबलता दिखाई देती है | बुद्धिवीर व्यक्ति ऐसे कठिन कार्यों को भी आनंदपूर्वक करता है जिनमें सफलता मिलने के बहुत कम अवसर होते हैं और असफल होने पर भी वह यह सोचकर आनंद अनुभव करता है कि उसने इस दिशा में प्रयास तो किया | इस बात को स्पष्ट करने के लिए लेखक एक उदाहरण देता है – ” जिस समय किसी भारी शास्त्रार्थी पंडित से भिड़ने के लिए कोई विद्यार्थी आनंद के साथ सभा में आगे आता है उस समय उसके बुद्धि-साहस की प्रशंसा अवश्य होती है, वह जीते या हारे, बुद्धिवीर ही समझा जाता है |”

यह भी देखें

आशा का अंत : बालमुकुंद गुप्त ( Asha Ka Ant : Balmukund Gupt )

देवदारु ( आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी )

मेरे राम का मुकुट भीग रहा है : विद्यानिवास मिश्र

सदाचार का ताबीज : हरिशंकर परसाई ( Sadachar Ka Tabeez : Harishankar Parsai )

तिब्बत के पथ पर : राहुल सांकृत्यायन ( Tibbat Ke Path Par : Rahul Sankrityayan )

7 thoughts on “उत्साह : आचार्य रामचंद्र शुक्ल ( Utsah : Acharya Ramchandra Shukla )”

Leave a Comment

error: Content is proteced protected !!