जयशंकर प्रसाद ने हिंदी नाटक विधा को नए आयाम प्रदान किए | उन्होंने प्राय: ऐतिहासिक नाटक लिखे हैं | ध्रुवस्वामिनी नाटक भी एक ऐतिहासिक नाटक है परन्तु प्रसाद जी ने अपनी साहित्यिक प्रतिभा के बल पर ध्रुवस्वामिनी नाटक की कथावस्तु को साहित्यिक रोचकता व रसमयता प्रदान कर दी है |
प्रस्तुत नाटक में प्रसाद जी ने इतिहास के घटनाक्रम में कुछ नई संभावनाओं को तलाशा है |
नाटक के सात अनिवार्य तत्व माने जाते हैं – 1. कथानक व कथावस्तु, 2. पात्र व चरित्र चित्रण, 3. संवाद व कथोपकथन, 4. देशकाल व वातावरण, 5. भाषा, 6. उद्देश्य, एवं 7. अभिनेयता |
कथानक व कथावस्तु किसी भी नाट्य कृति का प्रथम तथा सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्व कहा जा सकता है | वास्तव में कथानक उस नक्शे की तरह है जिसके आधार पर किसी सुंदर भवन का निर्माण किया जाता है| नक्शे में कमी आने पर भवन में कमी आना स्वाभाविक है |अतः कथानक व कथावस्तु का सुगठित, सुन्दर व प्रभावशाली होना आवश्यक है |
ध्रुवस्वामिनी नाटक का कथानक ( Dhruvswamini Natak Ka Kathanak )
यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि सम्राट चंद्रगुप्त ने अपने बड़े भाई रामगुप्त की हत्या कर उसकी पत्नी से विवाह कर लिया था परंतु इस नाटक में सम्राट चंद्रगुप्त द्वितीय के द्वारा उठाए गए इस कदम के पीछे के कारणों की पड़ताल की गई है |
ऐसा माना जाता है कि रामगुप्त अत्यंत कायर और विलासी प्रवृत्ति का था और सम्राट बनने के लिए सर्वथा अयोग्य था | इसीलिए सम्राट समुद्रगुप्त ने अपने छोटे पुत्र चंद्रगुप्त को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था परंतु रामगुप्त अपने अमात्य शिखर स्वामी के साथ मिलकर एक षड्यंत्र रचता है और चंद्रगुप्त की वाग्दत्ता पत्नी ( मंगेतर ) अथवा प्रेयसी ध्रुवस्वामिनी से विवाह कर लेता है और स्वयं राजसिंहासन पर अधिकार कर लेता है |
चन्द्रगुप्त स्वेच्छा से रामगुप्त को सम्राट स्वीकार कर लेता है | ध्रुवस्वामिनी भी धीरे-धीरे अपने आप को परिस्थितियों के अनुसार ढलने की कोशिश करने लगती है |
परंतु उस समय चंद्रगुप्त के सब्र का बांध टूट जाता है जब राम गुप्त अपनी कायरता की सभी हदों को पार करते हुए अपनी पत्नी ध्रुवस्वामिनी को शकराज को सौंपने के लिए तैयार हो जाता है | चंद्रगुप्त स्वयं ध्रुवस्वामिनी के वेश में शकराज के शिविर में जाता है और उसका वध कर देता है |
रामगुप्त धोखे से चंद्रगुप्त की हत्या करना चाहता है तो एक सामंत रामगुप्त को देख लेता है और उसकी हत्या कर देता है |
अंत में चंद्रगुप्त ध्रुवस्वामिनी से विवाह कर लेता है और चंद्रगुप्त सम्राट व ध्रुवस्वामिनी साम्राज्ञी बन जाती है |
‘ध्रुवस्वामिनी’ नाटक की कथावस्तु तीन अंकों में विभक्त है | प्रथम अंक राम गुप्त के शिविर में आरंभ होता है, दूसरा अंक शक राज के शिविर से प्रारंभ होता है तथा तृतीय व अंतिम अंक का पर्दा शकदुर्ग के भीतरी प्रकोष्ठ में उठता है और वहीं ‘ध्रुवस्वामिनी’ नाटक का अंत होता है |
ध्रुवस्वामिनी नाटक की कथावस्तु की समीक्षा ( Dhruvswamini Ke Kathanak / Kathavastu Ki Samiksha )
किसी भी नाटक की समीक्षा कुछ विशिष्ट गुणों के आधार पर की जा सकती है | ध्रुवस्वामिनी नाटक की कथावस्तु की समीक्षा निम्नलिखित तत्त्वों या गुणों के आधार पर की जा सकती है —
1️⃣ मौलिकता
‘ध्रुवस्वामिनी’ एक ऐतिहासिक नाटक है | परंतु ऐतिहासिक तथ्यों को आधार बनाकर जिस प्रकार कथावस्तु की रचना की गई है, वह मौलिक है | इतिहास यह तो बताता है कि चंद्रगुप्त अपने बड़े भाई रामगुप्त की हत्या करके राजसिहासन प्राप्त करता है, परंतु किस कारणवश चंद्रगुप्त को यह कदम उठाना पड़ा इस विषय में इतिहासकार प्रायः मौन रहते हैं | इसके अतिरिक्त ध्रुवस्वामिनी, मंदाकिनी और कोमा जैसे नारी पात्रों की अंतर्मन की भावनाओं की अभिव्यक्ति केवल साहित्य के माध्यम से ही हो सकती है | इसके अतिरिक्त प्रसाद जी ने ऐतिहासिक कथा को आधार बनाकर धर्म और समाज की प्रथाओं की आड़ में सदियों से हो रहे नारी शोषण के षड्यंत्र का पर्दाफाश किया है जो नाटक की कथावस्तु को मौलिकता प्रदान करता है |
2️⃣ उद्देश्य या मूल संवेदना
किसी भी नाटक की मूल संवेदना या उद्देश्य उस नाटक की सार्थकता व सफलता निर्धारित करता है | जहां तक इस नाटक की मूल संवेदना का प्रश्न है, वह नारी स्वतंत्रता और अधिकारों के प्रश्न से संबंधित है | प्रस्तुत नाटक में नारी के अनेक अधिकारों के हनन की झलक मिलती है | पुरुष प्रधान समाज में नारी को भोग की वस्तु समझना, पुरुष द्वारा एक से अधिक विवाह करना है, विवाह के संबंध में स्त्री की इच्छा-अनिच्छा को कोई महत्त्व न देना, स्त्री को पुनर्विवाह की अनुमति न होना आदि ऐसी अनेक बातें हैं जो नाटक में दिखाई गई हैं |
प्रसाद जी ने इस नाटक में केवल नारी की इन समस्याओं को उठाया ही नहीं बल्कि इनके विरुद्ध अनेक पात्रों के विद्रोह को भी दर्शाया है | कोमा जहां मन ही मन अपने साथ हो रहे अन्याय को सहन कर जाती है वहीं मंदाकिनी और ध्रुवस्वामिनी नारी के विरुद्ध सदियों से चल रही कुप्रथाओं के विरुद्ध आवाज उठाती हैं | नाटक के अंत में ध्रुवस्वामिनी की रामगुप्त से मुक्ति और धर्मगुरु की स्वीकारोक्ति उपरांत चंद्रगुप्त से पुनर्विवाह नाटक का आदर्शवादी अंत कहा जा सकता है |
3️⃣ सुगठित कथानक
‘ध्रुवस्वामिनी’ का कथावस्तु सुगठित है | घटनाक्रम परस्पर गूंथे हुए हैं | कथावस्तु सहज़, स्वाभाविक और व्यवस्थित रूप से विकास की ओर अग्रसर होती है | पाठक एक बार जब पढ़ने लगता है तो लगातार उसकी रुचि बनी रहती है| नाटक की पात्र योजना, संवाद, और प्रासंगिक कथाएं आदि सबकुछ कथावस्तु को रोचक और सुगठित बनाते हैं |
4️⃣ नाटक की अवधि
यह एक विवाद का विषय रहा है कि नाटक की अवधि कितनी होनी चाहिए | कुछ नाटक ऐसे हैं जो कई अंकों में विभक्त होते हैं और जिनके मंचन में एक लंबा समय लगता है | इसके विपरीत कुछ ऐसे नाटक भी हैं जो केवल एक अंक में ही समाप्त हो जाते हैं और जिनके मंचन में भी केवल 15-20 मिनट का समय लगता है | दोनों ही प्रकार के नाटक सफल होते देखे गए हैं | फिर भी यह माना जाता है कि अगर नाटक की अवधि सीमित हो तो ऐसी अवस्था में उसकी सफलता की संभावनाएं बढ़ जाती हैं |
इस आधार पर, ध्रुवस्वामिनी नाटक पूर्णतया सफल नाटक है |ध्रुवस्वामिनी नाटक की कथावस्तु में अधिक विस्तार नहीं है |इसकी कथावस्तु सीधी, सरल और स्पष्ट है | नाटक केवल तीन अंकों में विभक्त है | हर अंक में केवल एक ही दृश्य है |पात्रों की संख्या भी कम है | इन गुणों के कारण नाटक की कथावस्तु अत्यंत सुव्यवस्थित और रोचक बन गई है |
5️⃣ उपकथाओं का अभाव
नाटक में प्रायः एक प्रधान कथा होती हैं तथा कुछ उपकथाएं होती है | नाटक की सफलता इस बात में निहित होती है कि उस नाटक की उपकथाएं मुख्यकथा से कितनी अधिक सम्बद्ध हैं |
‘ध्रुवस्वामिनी'( Dhruvsvamini ) नाटक में एक मुख्य कथा है | कथावस्तु में उपकथाओं का नितांत अभाव है | नाटक में शकराज और कोमा के प्रणय की केवल एक उपकथा है | परंतु यह उपकथा मुख्यकथा से पूरी तरह से संबद्ध है और नाटक की मूल संवेदना को प्रकट करती है |
इसके अतिरिक्त यह कथा मूल कथा के विकास में भी सहायक है | नाटक के अंत में जब रामगुप्त के सैनिक मिहिर देव और कोमा की हत्या कर देते हैं तो सामंतों में रामगुप्त के प्रति रोष उत्पन्न हो जाता है जो रामगुप्त की मृत्यु, चंद्रगुप्त के लिये राज सिंहासन और ध्रुवस्वामिनी के पुनर्विवाह का मार्ग प्रशस्त करता है |
6️⃣ ध्रुवस्वामिनी नाटक की कथावस्तु के दोष
‘ध्रुवस्वामिनी’ नाटक में कुछ ऐसी बातें हैं जिन्हें पूरी तरह से स्पष्ट नहीं किया गया | जैसे चंद्रगुप्त और ध्रुवस्वामिनी की प्रेम को पर्याप्त धरातल नहीं मिला | नाटक में बहुत कम ऐसे संकेत मिलते हैं जिनसे ध्रुवस्वामिनी और चंद्रगुप्त के पारस्परिक प्रेम की प्रतीति होती हो | यही कारण है कि रामगुप्त द्वारा अपनी पत्नी ध्रुवस्वामिनी पर शक करने के कारण भी सही प्रकार से प्रकट नहीं हो पाए | कोमा और शकराज की उपकथा में ‘कोमा’ का पात्र वास्तव में किसी भी मायने में ध्रुवस्वामिनी से कम नहीं है | कोमा का प्रेम, समर्पण, बलिदान, दुविधा, दुर्दशा आदि सब कुछ ध्रुवस्वामिनी के समकक्ष या उससे भी बढ़कर है परंतु कोमा के पात्र को भी पर्याप्त स्थान नहीं दिया गया |
◼️ वस्तुतः ध्रुवस्वामिनी का कथानक पूर्णत: मौलिक, रोचक एवं सुगठित कथानक है | कुछ उपकथाओं व सहायक पात्रों को पर्याप्त स्थान न देने का मुख्य कारण नाटक में मुख्य उद्देश्य को रेखांकित करने का आग्रह है जिसके परिणामस्वरूप उपकथाओं व सहायक पात्रों पर ध्यान केंद्रित न कर पाना स्वाभाविक है परन्तु फिर भी यह स्वीकार किया जा सकता है कि अगर ‘ध्रुवस्वामिनी’ (Dhruvswamini ) नाटक की कथावस्तु पर कुछ और परिश्रम किया जाता तो एक श्रेष्ठतर कथानक का निर्माण किया जा सकता था |
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Sir can you please make a answer of question Dhruvswamini natak ki patr yojna ?