नमक : रज़िया सज्जाद ज़हीर ( Namak : Razia Sajjad Zaheer )

( यहाँ NCERT की कक्षा 12वीं की हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘आरोह भाग -2’ में संकलित ‘नमक’ कहानी के मूल पाठ तथा अभ्यास के प्रश्नों को दिया गया है | )

नमक : रज़िया सज्जाद ज़हीर

उन सिख बीबी को देखकर सफिया हैरान रह गई थी, किस कदर वह उसकी माँ से मिलती थी | वही भारी भरकम जिस्म, छोटी-छोटी चमकदार आँखें, जिनमें नेकी, मुहब्बत और रहमदिली की रोशनी जगमगाया करती थी | चेहरा जैसे कोई खुली हुई किताब | वैसा ही सफेद बारीक मलमल का दुपट्टा जैसा उसकी अम्मा मुहर्रम में ओढा करती थी |

जब सफिया ने कई बार उनकी तरफ मुहब्बत से देखा तो उन्होंने भी उसके बारे में घर की बहू से पूछा | उन्हें बताया गया कि ये मुसलमान हैं | कल ही सुबह लाहौर जा रही हैं अपने भाइयों से मिलने, जिन्हें इन्होंने कई साल से नहीं देखा | लाहौर का नाम सुनकर वे उठकर सफिया के पास आ बैठी और उसे बताने लगी कि उनका लाहौर कितना प्यारा शहर है | वहाँ के लोग कितने खूबसूरत होते हैं, उम्दा खाने और नफीस कपड़ों के शौकीन, सैर-सपाटे के रसिया, जिंदादिली की तसवीर |

कीर्तन होता रहा | वे आहिस्ता-आहिस्ता बातें करती रही | सफिया ने दो-एक बार बीच में पूछा भी, “माता जी, आपको तो यहाँ आए बहुत साल हो गए होंगे?” “हाँ बेटी! जब हिंदुस्तान बना था तभी आए थे | वैसे तो अब यहाँ भी हमारी कोठी बन गई है | बिजनेस है, सब ठीक ही है, पर लाहौर बहुत याद आता है | हमारा वतन तो जी लाहौर ही है |”

फिर पलकों से कुछ सितारे टूट कर दूधिया आँचल में समा जाते हैं |बात आगे चल पड़ती, मगर घूम-फिरकर फिर उसी जगह पर आ जाती – साडा लाहौर |

कीर्तन कोई ग्यारह बजे खत्म हुआ | जब वह प्रसाद हाथ में लिए उठने लगी और सफिया के सलाम के जवाब में दुआएँ देती हुई रुखसत होने लगी तब सफिया ने धीमे से पूछा, “आप लाहौर से कोई सौगात मँगाना चाहें तो मुझे हुक्म दीजिए |”

वे दरवाजे से लगी खड़ी थी | हिचकिचाकर बहुत ही आहिस्ता से बोली, “अगर ला सको तो थोड़ा-सा लाहौरी नमक लाना |”

पंद्रह दिन यों गुजरे कि पता ही नहीं चला | जिमखाना की शामें, दोस्तों की मुहब्बत, भाइयों की खातिरदारीयाँ – उनका बस न चलता था कि बिछड़ी हुई परदेसी बहिन के लिए क्या कुछ न कर दें! दोस्तों, अज़ीजो की यह हालत कि कोई कुछ लिए आ रहा है, कोई कुछ | कहाँ रखें, कैसे पैक करें, क्यों कर ले जाएँ – एक समस्या थी | सबसे बड़ी समस्या थी बादामी कागज की एक पुड़िया की जिसमें कोई सेर भर लाहौरी नमक था |

सफिया का भाई एक बहुत बड़ा पुलिस अफसर था | उसने सोचा कि वह ठीक राय दे सकेगा | चुपके से पूछने लगी, “क्यों भैया, नमक ले जा सकते हैं?”

वह हैरान होकर बोला, “नमक? नमक तो नहीं ले जा सकते, गैरकानूनी है और… और नमक का आप क्या करेंगी? आप लोगों के हिस्से में तो हमसे बहुत ज्यादा नमक आया है |”

वह झुँझला गई, “मैं हिस्से-बखरे की बात नहीं कर रही हूँ, आया होगा | मुझे तो लाहौर का नमक चाहिए, मेरी माँ ने यही मंगवाया है |”

भाई की समझ में कुछ नहीं आया | माँ का क्यों जिक्र था, वे तो बँटवारे से पहले ही मर चुकी थी |

जरा नरमी से समझाने के अंदाज में बोला, “देखिए बाजी! आपको कस्टम से गुजरना है और अगर एक भी चीज ऐसी-वैसी निकल आई तो आपके सामान की चिंदी-चिंदी बिखेर देंगे कस्टमवाले | कानून जो… “

वह बिगड़ कर बोली, “निकल आने का क्या मतलब, मैं क्या चोरी से ले जाऊँगी? छिपा के ले जाऊँगी? मैं तो दिखा के, जता के ले जाऊँगी |”

“भई, यह तो आप बहुत ही गलत बात करेंगी |… कानून…|”

“अरे, फिर वही कानून-कानून कहे जाते हो | क्या सब कानून हुकूमत के ही होते हैं, कुछ मुहब्बत, मुरौवत, आदमियत, इंसानियत के नहीं होते? आखिर कस्टम वाले भी इंसान होते हैं, कोई मशीन तो नहीं होते |”

“हाँ, वे मशीन तो नहीं होते, पर मैं आपको यकीन दिलाता हूँ वे शायर भी नहीं होते | उनको तो अपनी ड्यूटी करनी होती है |”

“अरे बाबा, तो मैं कब कह रही हूँ कि वह ड्यूटी ना करें | एक तोहफ़ा है, वह भी चंद पैसों का, शौक से देख लें, कोई सोना-चाँदी नहीं, स्मगल की हुई चीज़ नहीं, ब्लैक मार्केट का माल नहीं |”

“अब आप से कौन बहस करे | आप अदीब ( साहित्यकार ) ठहरी और सभी अदीबों का दिमाग थोड़ा सा तो जरूर ही घूमा हुआ होता है | वैसे मैं आपको बता देता हूँ कि आप ले नहीं जा पाएंगी और बदनामी मुफ्त में हम सब की भी होगी | आखिर आप कस्टमवालों को कितना जानती हैं? “

उसने गुस्से से जवाब दिया, “कस्टमवालों को जानें या न जानें, पर हम इंसानों को थोड़ा-सा जरूर जानते हैं | और रही दिमाग की बात सो अगर सभी लोगों का दिमाग हम अदीबों की तरह घूमा हुआ होता तो यह दुनिया कुछ बेहतर ही जगह हो जाती, भैया |”

मारे गुस्से के उसकी आँखों से आँसू बहने लगे | उसका भाई सिर हिला कर चुप हो गया |

अगली रोज दो बजे दिन को उसे रवाना होना था | सुबह के लिए बहुत व्यस्त कार्यक्रम बन चुका था इसलिए उसे सारी पैकिंग रात ही को करनी थी | कमरे का दरवाजा अंदर से बंद करके वह सामान बांधने लगी | इधर-उधर फैली हुई चीजें धीरे-धीरे सिमटकर सूटकेस और बिस्तरबंद में चली गई | सिर्फ दो चीजें रह गई | एक तो वह छोटी सी टोकरी जिसमें कीनू थे, एक दोस्त का तोहफा – संतरे और माल्टे को मिलाकर पैदा किया गया फल, माल्टे की तरह रंगीन और मीठा, संतरे की तरह नाजुक | और दूसरी थी वह नमक की पुड़िया |

अब तक सफिया का गुस्सा उतर चुका था | भावना के स्थान पर बुद्धि धीरे-धीरे उस पर हावी हो रही थी | नमक की पुड़िया ले तो जानी है, पर कैसे? अच्छा, अगर इसे हाथ में ले लें और कस्टमवालों के सामने सबसे पहले इसी को रख दें? लेकिन अगर कस्टमवालों ने न जाने दिया! तो मजबूरी है, छोड़ देंगे | लेकिन फिर उस वायदे का क्या होगा जो हमने अपनी माँ से किया था? हम अपने को सैयद कहते हैं | फिर वायदा करके झुठलाने के क्या मायने? जान देकर भी वायदा पूरा करना होगा | मगर कैसे? अच्छा, अगर इसे किनुओं की टोकरी में सबसे नीचे रख लिया जाए तो इतने किनुओं के ढेर में भला कौन इसे देखेगा? और अगर देख लिया? नहीं जी, फलों की टोकरियाँ तो आते वक्त भी किसी की नहीं देखी जा रही थी | उधर से केले, इधर से कीनू सब ही ला रहे थे, ले जा रहे थे | यही ठीक है, फिर देखा जाएगा |

उसने कीनू कालीन पर उलट दिए | टोकरी खाली की और नमक की पुड़िया उठाकर टोकरी की तह में रख दी | एक बार झाँककर उसने पुड़िया को देखा और उसे ऐसा महसूस हुआ मानो उसने अपने किसी प्यारे को कब्र की गहराई में उतार दिया हो! कुछ देर उकडूं बैठी वह पुड़िया को तकती रही और उन कहानियों को याद करती रही जिन्हें वह अपने बचपन में अम्मा से सुना करती थी, जिनमें शहजादा अपनी रान चीरकर हीरा छिपा लेता था और देवों, खोफनाक भूतों, तथा राक्षसों के सामने से होता हुआ सरहदों से गुजर जाता था | इस जमाने में ऐसी कोई तरकीब नहीं हो सकती थी वरना वह अपना दिल चीरकर उसमें यह नमक छिपा लेती | उसने एक आह भरी |

फिर वह किनुओं को एक-एक करके टोकरी में रखने लगी, पुड़िया के इधर-उधर, आसपास और फिर ऊपर, यहाँ तक कि वह बिल्कुल छिप गई | आश्वस्त होकर उसने हाथ झाड़े, सूटकेस पलंग के नीचे खिसकाया, टोकरी उठाकर पलंग के सिरहाने रखी, और लेट कर दोहर ओढ़ ली |

रात को तकरीबन डेढ़ बजे थे | मार्च की सुहानी हवा खिड़की की जाली से आ रही थी | बाहर चाँदनी साफ और ठंडी थी | खिड़की के करीब लगा चंपा का एक घना दरख़्त सामने की दीवार पर पत्तियों के अक्स लहका रहा था कभी किसी तरफ से किसी की दबी हुई खांसी की आहट, दूर से किसी कुत्ते के भौंकने या रोने की आवाज, चौकीदार की सीटी और फिर सन्नाटा! यह पाकिस्तान था | यहाँ उसके तीन सगे भाई थे, बेशुमार चाहने वाले दोस्त थे, बाप की कब्र थी, नन्हें-नन्हें भतीजे-भतीजियाँ थी जो उससे बड़ी मासूमियत से पूछते, “फूफीजान, आप हिंदुस्तान में क्यों रहते हैं, जहाँ हम लोग नहीं आ सकते |” उन सबके और सफिया के बीच में एक सरहद थी और बहुत ही नोकदार लोहे की छड़ों का जंगला, जो कस्टम कहलाता था |

कल वह लाहौर से चली जाएगी | हो सकता है, साल भर बाद फिर आए | एक साल से पहले तो वह आ भी नहीं सकती थी और यह भी हो सकता था कि अब कभी ना आ सके |

उसकी आँखें आहिस्ता-आहिस्ता बंद होने लगी | फिर उसे एक सफेद दुपट्टे का दूधिया आँचल लहराता दिखाई देने लगा, जिस पर यहाँ-वहाँ सितारे झिलमिला रहे थे – हमें वहाँ से आए तो बहुत दिन हो गए, यहाँ हमारी कोठी भी है, बिजनेस भी, हम यहाँ बस भी गए हैं, पर हमारा वतन तो जी लाहौर ही है |

फिर दिखा इकबाल का मकबरा, लाहौर का किला, किले के पीछे डूबते हुए सूरज की नारंगी किरणें, आसपास से फैलता-उभरता अंधेरा, उस रंगीन अंधेरे में बहती हुई नरम हवा | उस हवा में रची हुई मौलसिरी की खुशबू और मकबरे की सीढ़ियों पर बैठे हुए दो इंसान – सिर झुकाए, चुपचाप, उदास, जैसे दो बेजान परछाइयाँ |

“तो तुम कल चली जाओगी?”

“हाँ!”

“अब कब आओगी?”

“मालूम नहीं, शायद अगले साल | शायद कभी नहीं |”

अचानक उसकी आँखें खुल गई | शायद उसने मकबरे की सीढ़ियों के नीचे लगी दूब से एक पत्ती तोड़ी थी जिस पर ठंडी ओस जमनी शुरू हो गई थी | हुआ यह था कि नींद में करवट लेते हुए उसका हाथ किनुओं से लबालब भरी टोकरी पर जा पड़ा था – रसीले, ठंडे कीनू, जिनको देते वक्त उसके दोस्त ने कहा था, “यह हिंदुस्तान-पाकिस्तान की एकता का मेवा है |”

सफ़िया फर्स्ट क्लास के वेटिंग रूम में बैठी थी | दिल्ली तक का किराया उसके भाई ने दिया था | वह हाथ में टिकट दबाए वेटिंग रूम के बाहर प्लेटफार्म पर टहल रहा था |

वह अंदर बैठे चाय की प्याली हाथ में लिए किनुओं की टोकरी पर निगाहें जमाए यह सोच रही थी कि आसपास, इधर-उधर इतने लोग हैं, लेकिन सिर्फ वही जानती है कि टोकरी की तह में किनुओं के नीचे नमक की पुड़िया है |

जब उसका सामान कस्टम पर जाँच के लिए बाहर निकाला जाने लगा तो उसे एक झिरझिरी-सी आई और एकदम से उसने फैसला किया कि मुहब्बत का यह तोहफा चोरी से नहीं जाएगा, नमक कस्टमवालों को दिखाएगी वह | उसने जल्दी से पुड़िया निकाली और हैंडबैग में रख ली, जिसमें उसका पैसों का पर्स और पासपोर्ट आदि थे | जब सामान कस्टम से होकर रेल की तरफ चला तो वह एक कस्टम ऑफिसर की तरफ बढ़ी | ज्यादातर मेजें खाली हो चुकी थी | एक-दो पर इक्का-दुक्का सामान रखा था | वहीं एक साहब खड़े थे – लंबा कद, दुबला-पतला जिस्म, खिचड़ी बाल, आँखों पर ऐनक | वे कस्टम अफसर की वर्दी पहने तो थे मगर उन पर वह कुछ जँच नहीं रही थी | सफिया कुछ हिचकिचाकर बोली, “मैं आपसे कुछ पूछना चाहती हूँ |”

उन्होंने नजर भरकर उसे गौर से देखा | बोले, “फरमाइए |”

उनके लहजे ने सफिया की हिम्मत बढ़ा दी | “आप… आप कहाँ के रहने वाले हैं?” उन्होंने कुछ हैरान होकर उसे फिर गौर से देखा, “मेरा वतन देहली है, आप भी तो हमारी ही तरफ की मालूम होती हैं, अपने अजीजों से मिलने आई होंगी |”

” जी हाँ! मैं लखनऊ की हूँ | अपने भाइयों से मिलने आई थी | वे लोग इधर आ गए हैं | आपको… आपको भी तो शायद इधर आए -?”

“जी, जब पाकिस्तान बना था तभी आए थे, मगर हमारा वतन तो देहली ही है |”

सफ़िया ने हैंडबैग मेज पर रख दिया और नमक की पुड़िया निकालकर उनके सामने रख दी और फिर आहिस्ता-आहिस्ता रुक-रुक कर उनको सब कुछ बता दिया |

उन्होंने पुड़िया को धीरे से अपनी तरफ सरकाना शुरू किया | जब सफिया की बात खत्म हो गई तब उन्होंने पुड़िया को दोनों हाथों में उठाया, अच्छी तरह लपेटा और खुद सफिया के बैग में रख दिया | बैग सफिया को देते हुए बोले, “मुहब्बत तो कस्टम से इस तरह गुजर जाती है कि कानून हैरान रह जाता है |”

वह चलने लगी तो वह भी खड़े हो गए और कहने लगे, “जामा मस्जिद की सीढ़ियों को मेरा सलाम कहिएगा और उन खातून को यह नमक देते वक्त मेरी तरफ से कहिएगा कि लाहौर अभी तक उनका वतन है और देहली मेरा, तो बाकी सब रफ्ता-रफ्ता ठीक हो जाएगा |”

सफिया कस्टम के जंगले से निकलकर दूसरे प्लेटफार्म पर आ गई और वे वहीं खड़े रहे |

प्लेटफार्म पर उसके बहुत-से दोस्त, भाई रिश्तेदार थे, हसरत भरी नजरों, बहते हुए आँसुओं, ठंडी साँसों और भिचे हुए होठों को बीच में से काटती हुई रेल सरहद की तरफ बढ़ी | अटारी में पाकिस्तानी पुलिस उतरी, हिंदुस्तानी पुलिस सवार हुई | कुछ समझ में नहीं आता था कि कहाँ से लाहौर खत्म हुआ और किस जगह से अमृतसर शुरू हो गया |

एक ज़मीन थी, एक ज़बान थी, एक-सी सूरतें और लिबास, एक-सा लबोलहज़ा, और अंदाज़ थे, गालियाँ भी एक ही-सी थी जिनसे दोनों बड़े प्यार से एक दूसरे को नवाज़ रहे थे | बस मुश्किल सिर्फ इतनी थी कि भरी हुई बंदूकें दोनों के हाथों में थी |

अमृतसर में कस्टमवाले फर्स्ट क्लास वालों के सामान की जांच उनके डिब्बे के सामने ही कर रहे थे | सफिया का सारा सामान देखा जा चुका तो वह उन नौजवान कस्टम अफसर की ओर बढ़ी जो बातचीत और सूरत से बंगाली लगते थे, “देखिए, मेरे पास नमक है, थोड़ा सा |”

फिर उसने हैंडबैग खोला और वह पुड़िया उनकी तरफ बढ़ाते हुए, अटकते, झिझकते, हिचकिचाते हुए उनको सब-कुछ कह सुनाया | उन्होंने सिर झुका लिया था, सुनते रहे, बीच-बीच में सिर उठाते, गौर से उसे देखते, फिर सुनने लगते | बात पूरी हो गई तो उन्होंने एक बार फिर सफिया को ऊपर से नीचे तक देखा, धीरे से बोले, “इधर आइए जरा!”

चलते-चलते उन्होंने एक-दूसरे से कहा, “इनके सामान का ध्यान रखिएगा |”

प्लेटफार्म के सिरे पर एक कमरा था | वे उसके अंदर घुसे | सफिया दाखिल होते हिचकिचाई | वह मुसकराकर बोले, “आइए, आइए न!”

जेब से रुमाल निकाल कर उन्होंने कुर्सी को झाड़ा और बोले, “बैठिए |”

सफ़िया ने पुड़िया और बैग को मेज पर रख दिया | बाहर की तरफ झाँककर उन्होंने एक पुलिसवाले को इशारा किया | सफिया के पैर तले की जमीन खिसकने लगी – अब क्या होगा!

“दो चाय लाओ, अच्छी वाली |” पुलिसवाला सफिया को घूरता हुआ चला गया |

फिर उन्होंने मेज की दराज खींची और उसमें अंदर दूर तक हाथ डालकर एक किताब निकाली | किताब को सफिया के सामने रखकर उन्होंने पहला सफ़ा खोल दिया | बाईं ओर नजरुल इस्लाम की तस्वीर थी और टाइटल वाले सफ़े पर अंग्रेजी के कुछ धुंधले शब्द थे – “शमशुलइसलाम की तरफ से सुनील दास गुप्त को प्यार के साथ, ढाका 1946”

“तो आप क्या ईस्ट बंगाल के हैं? “

“हाँ, मेरा वतन ढाका है |” उन्होंने बड़े फ़ख्र से जवाब दिया |

“तो आप यहाँ कब आए?”

“जब डिवीज़न हुआ तभी आए, मगर हमारा वतन ढाका है, मैं तो कोई बारह-तेरह साल का था | पर नज़रुल और टैगोर को हम लोग बचपन से पढ़ते थे | जिस दिन हम रात यहाँ आ रहे थे उसके ठीक एक वर्ष पहले मेरे सबसे पुराने, सबसे प्यारे, बचपन के दोस्त ने मुझे यह किताब दी थी | उस दिन मेरी सालगिरह थी – फिर हम कलकत्ता रहे, पढ़े, नौकरी भी मिल गई, पर हम वतन आते-जाते थे |”

“वतन?” सफिया ने जरा हैरान होकर पूछा |

“मैंने आपसे कहा न कि मेरा वतन ढाका है |” उन्होंने ज़रा बुरा मानकर कहा |

“हाँ-हाँ, ठीक है | ठीक है |” सफिया जल्दी से बोली |

“तो पहले तो बस इधर ही कस्टम था, अब उधर भी कुछ गोलमाल हो गया है |”

उन्होंने चाय की प्याली सफ़िया की तरफ खिसकाई और खुद एक बड़ा-सा घूंट भरकर बोले, “वैसे तो डाभ कलकत्ता में भी होता है, जैसे नमक यहाँ भी होता है, पर हमारे यहाँ के डाभ की क्या बात है! हमारी ज़मीन, हमारे पानी का मज़ा ही कुछ और है!”

उठते वक्त उन्होंने पुड़िया सफ़िया के बैग में रख दी और खुद उस बैग को उठाकर आगे-आगे चलने लगे ; सफ़िया ने उनके पीछे चलना शुरू किया |

जब सफिया अमृतसर के पुल पर चढ़ रही थी | तब पुल की सबसे निचली सीढ़ी के पास वे सिर झुकाए चुपचाप खड़े थे | सफ़िया सोचती जा रही थी किसका वतन कहाँ है – वह जो कस्टम के इस तरफ़ है या उस तरफ़!

यह भी देखें

भक्तिन : महादेवी वर्मा ( Bhaktin : Mahadevi Verma )

बाजार दर्शन : जैनेंद्र कुमार ( Bajar Darshan : Jainendra Kumar )

काले मेघा पानी दे : धर्मवीर भारती ( Kale Megha Pani De : Dharmveer Bharti )

पहलवान की ढोलक : फणीश्वरनाथ रेणु

बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर ( Baba Saheb Bheemrav Ambedkar )

चार्ली चैप्लिन यानी हम सब : विष्णु खरे

शिरीष के फूल : हजारी प्रसाद द्विवेदी ( Shirish Ke Phool : Hajari Prasad Dwivedi )

Leave a Comment