मेरे राम का मुकुट भीग रहा है : विद्यानिवास मिश्र

मेरे राम का मुकुट भीग रहा है
मेरे राम का मुकुट भीग रहा है

( यहाँ कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय द्वारा निर्धारित बी ए हिंदी – षष्ठ सेमेस्टर की पाठ्य पुस्तक ‘नव्यतर गद्य गौरव’ में संकलित विद्यानिवास मिश्र द्वारा रचित ललित निबंध ‘मेरे राम का मुकुट भीग रहा है’ का मूल पाठ तथा मूल भाव या निहित संदेश दिया गया है |)

महीनों से मन बेहद-बेहद उदास है । उदासी की कोई ख़ास वजह नहीं , कुछ तबियत ढीली , कुछ आसपास के तनाव और कुछ उनसे टूटने का डर , खुले आकाश के नीचे भी खुलकर साँस लेने की जगह की कमी , जिस काम में लगकर मुक्ति पाना चाहता हूँ , उस काम में हज़ार बाधाएँ ; कुल ले-देकर उदासी के लिए इतनी बड़ी चीज नहीं बनती । फिर भी रात-रात नींद नहीं आती । दिन ऐसे बीतते हैं , जैसे भूतों के सपनों की एक रील पर दूसरी रील चढ़ा दी गयी हो और भूतों की आकृतियाँ और डरावनी हो गयी हों । इसलिए कभी-कभी तो बड़ी-से-बड़ी परेशानी करने वाली बात हो जाती है और कुछ भी परेशानी नहीं होती , उल्टे ऐसा लगता है , जो हुआ , एक सहज क्रम में हुआ ; न होना ही कुछ अटपटा होता और कभी-कभी बहुत मामूली-सी बात भी भयंकर चिंता का कारण बन जाती है ।

अभी दो-तीन रात पहले मेरे एक साथी संगीत का कार्यक्रम सुनने के लिए नौ बजे रात गये , साथ में जाने के लिए मेरे एक चिरंजीव ने और मेरी एक मेहमान , महानगरीय वातावरण में पली कन्या ने अनुमति माँगी । शहरों की , आजकल की असुरक्षित स्थिति का ध्यान करके इन दोनों को जाने तो नहीं देना चाहता था , पर लड़कों का मन भी तो रखना होता है , कह दिया , एक-डेढ़ घंटे सुनकर चले आना । रात के नौ बजे । लोग नहीं लौटे । गृहिणी बहुत उद्विग्न हुई , झल्लायीं ; साथ में गए मित्र पर नाराज़ होने के लिए संकल्प बोलने लगीं । इतने में ज़ोर की बारिश आ गई । छत से बिस्तर समेटकर कमरे में आया । गृहिणी को समझाया , बारिश थमेगी , आ जाएँगे , संगीत में मन लग जाता है , तो उठने की तबियत नहीं होती , तुम सोओ , ऐसे बच्चे नहीं हैं । पत्नी किसी तरह शांत होकर सो गयी , पर मैं अकुला उठा , बारिश निकल गयी , ये लोग नहीं आये ।

बरामदे में कुर्सी लगाकर राह जोहने लगा । दूर कोई भी आहट होती , तो उद्दत होकर फाटक की ओर देखने लगता । रह-रहकर बिजली चमक जाती थी और सड़क छिप जाती थी । पर सामने की सड़क पर कोई रिक्शा नहीं , कोई चिरई का पूत नहीं । एकाएक कई दिनों से मन में उमड़ती-घुमड़ती पंक्तियाँ गूँज गयीं –
” मेरे राम के भीजै मुकुटवा
लछिमन के पटुकवा
मोरी सीता के भीजै सेनुरवा
त राम घर लौटहिं”

( मेरे राम का मुकुट भीग रहा होगा , मेरे लखन का पटुका ( दुपट्टा ) भीग रहा होगा , मेरी सीता की माँग का सेनुरवा ( सिंदूर ) भीग रहा होगा , मेरे राम घर लौट आते । )

बचपन में दादी-नानी जाने पर यह गीत गाती, मेरे घर से बाहर जाने पर विदेश में रहने पर वे यही गीत विह्वल होकर गाती और लौटने पर कहती -‘मेरे लाल को कैसा वनवास मिला था’ | जब मुझे दादी-नानी की इस आकुलता पर हंसी भी आती, गीत का स्वर बड़ा मीठा लगता | हाँ, तब उसका दर्द नहीं छूता | पर इस प्रतीक्षा में एकाएक उसका दर्द उस ढलती रात में उभर आया और सोचने लगा, आने वाली पीढ़ी पिछली पीढ़ी की ममता की पीड़ा नहीं समझ पाती और पिछली पीढ़ी अपनी संतान के संभावित संकट की कल्पना मात्र से उद्विग्न हो जाती है | मन में यह प्रतीति ही नहीं होती कि अब संतान समर्थ है, बड़े-से-बड़ा संकट झेल लेगी | बार-बार मन को समझाने की कोशिश करता, लड़की दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कॉलेज में पढ़ाती है, लड़का संकट-बोध की कविता लिखता है, पर लड़की का ख्याल आते ही दुश्चिंता होती, गली में जाने कैसे तत्त्व रहते हैं! लौटते समय कहीं कुछ हो न गया हो और अपने भीतर अनायास अपराधी होने का भाव जाग जाता, मुझे रोकना चाहिए था या कोई व्यवस्था करनी चाहिए थी, परायी लड़की ( और लड़की तो हर एक परायी होती है, धोबी की मुटरी की तरह घाट पर खुले आकाश में कितने दिन फहरायेगी, अंत में उसे गृहिणी बनने जाना ही है ) घर आयी, कहीं कुछ हो न जाए!

मन फिर घूम गया कौसल्या की ओर, लाखों-करोड़ों कौसल्याओं की ओर, और लाखों-करोड़ों कोसल्याओं के द्वारा मुखरित एक अनाम-अरूप कौसल्या की ओर, इन सबके राम वन में निर्वासित हैं, पर क्या बात है कि मुकुट अभी जी उनके माथे पर बंधा है और उसी के भीगने की इतनी चिंता है? क्या बात है कि आज भी काशी की रामलीला आरंभ होने के पूर्व एक निश्चित मुहूर्त में मुकुट की ही पूजा सबसे पहले की जाती है? क्या बात है कि तुलसीदास ने ‘कानन’ को ‘सत अवध समाना’ कहा और चित्रकूट में ही पहुंचने पर उन्हें ‘कलि की कुटिल कुचाल’ दीख पड़ी? क्या बात है कि आज भी वनवासी धनुर्धर राम ही लोकमानस के राजा राम बने हुए हैं? कहीं-न-कहीं इन सबके बीच एक संगति होनी चाहिए |

अभिषेक की बात चली, मन में अभिषेक हो गया और मन में राम के साथ राम का मुकुट प्रतिष्ठित हो गया | मन में प्रतिष्ठित हुआ, इसलिए राम ने राजकीय वेश उतारा, राजकीय रथ से उतरे, राजकीय भोग का परिहार किया, पर मुकुट तो लोगों के मन में था, कौसल्या के मातृ -स्नेह में था, वह कैसे उतरता, वह मस्तक पर विराजमान रहा और राम भीगें तो भीगें, मुकुट न भीगने पाये, इसकी चिंता बनी रही | राजा राम के साथ उनके अंगरक्षक लक्ष्मण का कमरबंद दुपट्टा भी ( प्रहरी की जागरूकता का उपलक्षण ) न भीगने पाये और अखंड सौभाग्यवती सीता की मांग का सिंदूर न भीगने पाये, सीता भले ही भीग जायें | राम तो वन से लौट आये, सीता को लक्ष्मण फिर निर्वासित कर आये, पर लोकमानस में राम की वनयात्रा अभी नहीं रुकी | मुकुट, दुपट्टे और सिंदूर के भीगने की आशंका अभी भी साल रही है | कितनी अयोध्याएँ बसी, उजड़ी, पर निर्वासित राम की असली राजधानी, जंगल का रास्ता अपने काँटों-कुशों, कंकड़ों -पत्थरों की वैसी ही ताजा चुभन लिए हुए बरकरार है, क्योंकि जिनका आसरा साधारण-गँवार आदमी भी लगा सकता है, वे राम तो सदा निर्वासित ही रहेंगे और उनके राजपाट को संभालने वाले भरत अयोध्या के समीप रहते हुए भी उनसे भी अधिक निर्वासित रहेंगे, निर्वासित ही नहीं, बल्कि एक काल कोठरी में बंद जिलावतनी ( ) की तरह दिन बितायेंगे |

सोचते-सोचते लगा कि इस देश की ही नहीं पूरे विश्व की एक कौसल्या है ; जो हर बार बारिश में बेसूर रही है ; ”मोरे राम के भीजै मुकुटवा ( मेरे राम का मुकुट भीग रहा होगा ) | मेरी संतान, ऐश्वर्य की अधिकारिणी संतान वन में घूम रही है, उसका मुकुट, उसका ऐश्वर्य भीग रहा है, मेरे राम कब घर लौटेंगे ; मेरे राम के सेवक का दुपट्टा भीग रहा है, पहरुए ( प्रहरी ) का कमरबंद भीग रहा है, उसका जागरण भीग रहा है, मेरे राम की सहचारिणी सीता का सिंदूर भीग रहा है, उसका अखंड सौभाग्य भीग रहा है, मैं कैसे धीरज धरूँ |”

मनुष्य की इस सनातन नियति से एकदम आतंकित हो उठा, ऐश्वर्य और निर्वासन दोनों साथ-साथ चलते हैं | जिसे ऐश्वर्य सोंपा जाने को है | उसको निर्वासन पहले से बदा है | जिन लोगों के बीच रहता हूँ, वे सभी मंगल नाना के नाती हैं, वह ‘मुद-मंगल’ में ही रहना चाहते हैं, मेरे जैसे आदमी को वे निराशावादी समझकर बिरादरी से बाहर ही रखते हैं, डर लगता रहता है कि कहीं उड़कर उन्हें भी दु:ख न लग जाए, पर मैं अशेष मंगलाकांक्षाओं के पीछे से झांकती हुई दुर्निवार ( अटल ) शंकाकुल आँखों में झाँकता हूँ, तो मंगल का सारा उत्साह फीका पड़ जाता है और बंदनवार, बंदनवार न दिखकर बटोरी हुई रस्सी की शक्ल में कुंडली मारे नागिन दिखती है, मंगल घट औँधाई हुई अधफूटी गगरी दिखता है, उत्सव की रोशनी का तामझाम धुओं की गाँठों का अंबार दिखता है और मंगल-वाद्य डेरा उखाड़ने वाले अंतिम कारवदार ( ) की उसाँस में बजकर एकबारगी बंद हो जाता है |

लागति अवध भयावह भारी,

मातहुँ कालराति अँधियारी |

घोर जंतु सम पुर नर नारी,

डरपहिं एक हि एक निहारी |

घर मसान परिजन जनु भूता,

सुत हित मीत मनहुँ जमदूता |

वागन्ह बिटप बेलि कुम्हिलाहीं,

सरित सरोवर देखि न जाहीं |

कैसे मंगलमय प्रभात की कल्पना थी और कैसी अंधेरी कालरात्रि आ गयी है | घर मसान हो गया है, अपने ही लोग भूत-प्रेत बन गए हैं, पेड़ सूख गए हैं, लताएँ कुम्हला गयी हैं | नदियों और शहरों को देखना भी तो दुस्सह हो गया है | केवल इसलिए कि जिसका ऐश्वर्य से अभिषेक हो रहा था, वह निर्वासित हो गया | उत्कर्ष की ओर उन्मुख समष्टि का चैतन्य अपने ही घर से बाहर कर दिया गया, उत्कर्ष की मनुष्य की ऊर्ध्वोन्मुख चेतना की यही कीमत सनातन काल से अदा की जाती रही है | इसीलिए जब कीमत अदा कर ही दी गई तो उत्कर्ष कम-से-कम सुरक्षित रहे, यह चिंता स्वाभाविक हो जाती है | राम भीगें तो भीगें, राम के उत्कर्ष की कल्पना न भीगे, वह हर बारिश में हर दुर्दिन में सुरक्षित रहे | नर के रूप में लीला करने वाले नारायण निर्वासन की व्यवस्था झेलें , पर नर रूप में उनकी ईश्वरता का बोध दमकता रहे, कि पानी बूंदों की झालर में उसकी दीप्ति छिपने न पाये | उस नारायण की सुख-सेज बने अनंत के अवतार लक्ष्मण भले ही भीगते रहें, उनका दुपट्टा, उनका अहर्निश जागर न भीजे, शेषी नारायण के ऐश्वर्य का गौरव अनंतशेष के जागर-संकल्प से ही सुरक्षित हो सकेगा और इन दोनों का गौरव जगज्जननी आद्याशक्ति के अखंड सौभाग्य सीमंत सिंदूर से रक्षित हो सकेगा, उस शक्ति का एकनिष्ठ प्रेम पाकर राम का मुकुट ; क्योंकि राम का निर्वासन वस्तुतः सीता का दुहरा निर्वासन है | राम तो लौटकर राजा होते हैं, पर रानी होते ही सीता राजा राम द्वारा वन में निर्वासित कर दी जाती हैं | राम के साथ लक्ष्मण हैं, सीता है, सीता वन्य पशुओं से घिरी हुई विजन में सोचती है – प्रसव की पीड़ा हो रही है, कौन इस बेला में सहारा देगा, कौन प्रसव के समय प्रकाश दिखलायेगा, कौन मुझे संभालेगा कौन जन्म के गीत गायेगा?

कोई गीत नहीं गाता | सीता जंगल की सूखी लकड़ी बीनती हैं, जलाकर अंजोर करती हैं और जुड़वां बच्चों का मुँह निहारती हैं | दूध की तरह अपमान की ज्वाला में चित्त कूद पड़ने के लिए उफनता है और बच्चों की प्यारी और मासूम सूरत देखते ही उस पर पानी के छींटे पड़ जाते हैं, उफान दब जाता है, पर इस निर्वासन में भी सीता का सौभाग्य अखंडित है, वह राम के मुकुट को तब भी प्रमाणित करता है, मुकुटधारी राम को निर्वासन से भी बड़ी व्यथा देता है और एक बार और अयोध्या जंगल बन जाती है, स्नेह की रसधार रेत बन जाती है, सब कुछ उलट-पुलट जाता है, भवभूति के शब्दों में पहचान की बस एक निशानी बच रहती है, दूर ऊँचे तटस्थ पहाड़, राजमुकुट में जड़े हीरो की चमक के सैकड़ों शिखर, एकदम कठोर, तीखे और निर्मम –

“पूरा यत्र स्रोत: पुलिनमधुना तत्र सरितां

विपर्यासं यातो धन विरलभाव: क्षितिरुहाम् |

वहो: कालाद् दृष्टं ह्यपरमिव मन्ये वनमिदं

निवेशं शैलानां तदिदमिति बुद्धि द्रढयति |

राम का मुकुट इतना भारी हो उठता है कि राम उस बोझ से कराह उठते हैं और इस वेदना के चीत्कार में सीता के माथे का सिंदूर और दमक उठता है, सीता का वर्चस्व और प्रखर हो उठता है |

कुर्सी पर पड़े-पड़े यह सब सोचते-सोचते चार बजने को आये, इतने में दरवाजे पर हल्की सी दस्तक पड़ी, चिरंजीव निचली मंजिल से ऊपर नहीं चढ़े, सहमी हुई कृष्णा ( मेरी मेहमान लड़की ) बोली – दरवाजा खोलिए | आँखों में इतनी कातरता कि कुछ कहते नहीं बना, सिर्फ इतना कहा कि तुम लोगों को इसका अंदाजा होगा कि हम कितने परेशान रहे हैं | भोजन-दूध धरा रह गया, किसी ने भी छुआ नहीं, मुँह ढाँपकर सोने का बहाना शुरू हुआ, मैं भी स्वस्ति ( सुख ) की साँस लेकर बिस्तर पर पड़ा, पर अर्धचेतन अवस्था में फिर जहाँ खोया हुआ था, वही लौट गया |

अपने लड़के घर लौट आए, बारिश से नहीं, संगीत से भीगकर, मेरी दादी-नानी के गीतों के राम, लखन और सीता अभी भी वन-वन भीग रहे हैं | तेज बारिश में पेड़ की छाया और दुखद हो जाती है, पेड़ की हर पत्ती से टप-टप बूंदे पड़ने लगती हैं, तने पर टिकें, तो उसकी हर नस-नस से आप्लावित होकर पीठ गलाने लगती है | जाने कब से मेरे राम भीग रहे हैं और बादल हैं कि मुसलधार ढरकाये चले जा रहे हैं, इतने में मन में एक चोर धीरे से फुसफुसाता है, राम तुम्हारे कब से हुए, तुम जिसकी बुनाहट पहचान में नहीं आती, जिसके व्यक्तित्व के ताने-बाने तार-तार हो कर अलग हो गए हैं, तुम्हारे कहे जाने वाले कोई हो भी सकते हैं कि वह तुम कह रहे हो, मेरे राम! और चोर की बात सच लगती है, मन इतना बटा हुआ है, मनचाही और अनचाही दोनों तरह की हजार चीजों में |

दूसरे कुछ पतियायें भी, पर अपने ही भीतर परतीति नहीं होती कि मैं किसी का हूँ या कोई मेरा है | पर दूसरी ओर यह भी सोचता हूँ कि क्या बार-बार विचित्र-से अनमनेपन में अकारण चिंता किसी के लिए होती है, वह चिंता क्या पराये के लिए होती है, वह क्या कुछ भी अपना नहीं है? फिर इस अनमनेपन में ही क्या राम अपनाने के लिए हाथ नहीं बढ़ाते आये हैं, क्या न-कुछ होना और न-कुछ बनाना ही अपनाने की उनकी बढ़ी हुई शर्त नहीं है?

तार टूट जाता है, मेरे राम का मुकुट भीग रहा है, यह भीतर से कहाँ पाऊँ? अपनी उदासी से ऐसा चिपका अपने सकरे-से दर्द से ऐसा रिश्ता, राम को अपना कहने के लिए केवल उनके लिए भरा हुआ हृदय कहाँ पाऊँ? मैं शब्दों के घने जंगलों में घिर गया हूँ | जानता हूँ, इन्हीं जंगलों के आसपास किसी टेकड़ी पर राम की पर्णकुटी है, पर इन उलझाने वाले शब्दों के अलावा मेरे पास कोई राह नहीं | शायद सामने उपस्थित अपने ही मनोराज्य के युवराज, अपने बचे-खुचे स्नेह के पात्र, अपने भविष्यत् के संकट की चिंता में राम के निर्वासन का जो ध्यान आ जाता है, उनसे भी अधिक एक बिजली से जगमगाते शहर में एक पढ़ी-लिखी चंद दिनों की मेहमान लड़की के एक रात कुछ देर से लौटने पर अकारण चिंता हो जाती है | उसमें सीता का ख्याल आ जाता है, वह राम के मुकुट या सीता के सिंदूर के भीगने की आशंका से जोड़े न जोड़े, आज की दरिद्र अर्थहीन, उदासी को कुछ ऐसा अर्थ नहीं दे देता, जिससे जिंदगी ऊब से कुछ उबर सके?

और इतने में पूरब से हल्की उजास आती है और शहर के इस शोर-भरे बियाबान में चक्की के स्वर के साथ चढ़ती-उतरती जंतसार गीति हल्की-सी सिहरन पैदा कर जाती है | ‘मोरे राम का भीजै मुकुटवा’ और अमचूर की तरह विश्वविद्यालयी जीवन की नीरसता में सूखा मन कुछ जरूर ऊपरी सतह पर ही सही भीगता नहीं, तो कुछ नम तो जरूर ही हो जाता है, और महीनों की उमड़ीघुमड़ी उदासी बरसने-बरसने को आ जाती है | बरस न पाये, यह अलग बात है ( कुछ भीतर भाप हो, तब न बरसे ), पर बरसने का यह भाव जिस ओर से आ रहा है, उधर राह होनी चाहिए | इतनी असंख्य कौसल्याओं के कंठ में बसी हुई जो एक अरूप ध्वनिमयी कोसल्या है | अपनी सृष्टि के संकट में उसके सतत उत्कर्ष के लिए आकुल, उस कोसल्या की ओर, उस मानवीय संवेदना की ओर ही कहीं राह है, घास के नीचे दबी हुई | पर उस घास की महिमा अपरंपार है, उसे तो आज वन्य पशुओं का राज्यकीय संरक्षित क्षेत्र बनाया जा रहा है, नीचे ढकी हुई राह तो सैलानियों के घूमने के लिए, वन्य पशुओं के प्रदर्शन के लिए, फोटो खींचने वालों की चमकती छवि यात्राओं के लिए बहुत ही रमणीक स्थल बनाई जा रही है | उस राह पर तुलसी और उनके मानस के नाम पर बड़े-बड़े तमाशे होंगे, फुलझड़ियाँ दगेंगी, सैर-सपाटे होंगे, पर यह राह ढकी ही रह जाएगी, केवल चक्की का स्वर, श्रम का स्वर ढलती रात में, भीगती रात में अनसोये वात्सल्य का स्वर तलाशता रहेगा – किस ओर राम मुड़े होंगे, बारिश से बचने के लिए? किस ओर? किस ओर? बता दो सखी |

‘मेरे राम का मुकुट भीग रहा है’ निबंध का मूल भाव / संदेश / उद्देश्य या वर्णित समस्या

मेरे राम का मुकुट भीग रहा है’ श्री विद्यानिवास मिश्र द्वारा रचित एक सुप्रसिद्ध ललित निबंध है | प्रस्तुत निबंध में लेखक ने एक व्यक्तिगत प्रसंग के माध्यम से यह बताने का प्रयास किया है कि प्रत्येक आने वाली पीढ़ी पिछली पीढ़ी की ममता नहीं समझ पाती जबकि पिछली पीढ़ी अपनी संतान के संभावित संकट की कल्पना मात्र से ही उद्विग्न हो जाती है |

माता-पिता के अपने बच्चों के प्रति प्रेम, समाज में बढ़ रही बेरोजगारी, अव्यवस्था और असुरक्षा की भावना को लेखक ने प्राचीन काल से चली आ रही लोकमानस की राम के मुकुट के भीग जाने की चिंता के उदाहरण से प्रस्तुत किया है |

लेखक ने इस बात को अभिव्यक्त किया है कि राम की वनवास की अवधि तो निश्चित थी | वे चौदह वर्ष के बाद अयोध्या लौट कर पुन: राजा बन गए थे परंतु आज के बेरोजगार युवकों की पीड़ा की कोई समय-सीमा नजर नहीं आती | अब भी वर्षा में उनकी आशाओं रूपी मुकुट निरंतर भीग रहा है | उनकी चिंता करने वाली कौसल्याएँ थक चुकी हैं, उनके लिए कोई गीत नहीं गाया जाता |

इसी प्रकार सीता के निर्वासन को राम के निर्वासन से कहीं अधिक कड़ा तथा दुहरा बताया गया है | अयोध्या वापस आने पर वे पुन: निर्वासित कर दी गई थी | राम तो अपने निर्वासन के दौरान अपने भाई लक्ष्मण तथा पत्नी सीता के साथ थे परंतु सीता को जंगल में अकेले ही वनवास काटना पड़ा | प्रसव-वेदना से जूझ रही सीता को जंगली पशुओं के बीच जीवन जीने को विवश होना पड़ा | वन में वन्य पशुओं से घिरी हुई सीता सोचती है – “प्रसव की पीड़ा हो रही है, कौन इस बेला में सहारा देगा? कौन प्रसव के समय प्रकाश दिखलायेगा? कौन मुझे संभालेगा? कौन जन्म के गीत गायेगा?” इस उदाहरण के माध्यम से लेखक संभवत: यह स्पष्ट करना चाहता है कि प्राचीन युग की भाँति वर्तमान युग में भी पुरुष की अपेक्षा स्त्री को अधिक संकटों का सामना करना पड़ता है | हर गली में खतरनाक तत्त्व नज़र आते हैं |

इस प्रकार लेखक ने लोक गीत “मेरे राम के भीजै मुकुटवा” के माध्यम से करोड़ों कौशल्याओं ( माताओं ) की चिंता को अभिव्यक्ति प्रदान की है जो अपने रामों ( संतानों, पुत्रों या पुत्रियों ) के लिए वर्तमान समाज में व्याप्त अव्यवस्था, बेरोजगारी तथा असुरक्षा के कारण प्राय: चिंतित रहती हैं |

यह भी देखें

आशा का अंत : बालमुकुंद गुप्त ( Asha Ka Ant : Balmukund Gupt )

उत्साह : आचार्य रामचंद्र शुक्ल ( Utsah : Acharya Ramchandra Shukla )

देवदारु : आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ( Devadaru : Aacharya Hajari Prasad Dwivedi )

गिल्लू : महादेवी वर्मा ( Gillu : Mahadevi Verma )

सदाचार का ताबीज : हरिशंकर परसाई ( Sadachar Ka Tabeez : Harishankar Parsai )

तिब्बत के पथ पर : राहुल सांकृत्यायन ( Tibbat Ke Path Par : Rahul Sankrityayan )

error: Content is proteced protected !!