‘ठेस’ कहानी की तात्विक समीक्षा

'ठेस' कहानी की तात्विक समीक्षा
‘ठेस’ कहानी की तात्विक समीक्षा

‘ठेस’ फणीश्वर नाथ रेणु द्वारा रचित एक बहुचर्चित कहानी है | इस कहानी में उन्होंने एक कलाकार पात्र की कोमल भावनाओं का मार्मिक चित्रण किया है | ‘ठेस’ कहानी की तात्विक समीक्षा कथानक, पात्र, संवाद, देशकाल, भाषा और उद्देश्य तत्त्वों के आधार पर की जा सकती है |

‘ठेस’ कहानी की तात्विक समीक्षा

(1) कथानक व कथावस्तु — कथानक या कथावस्तु किसी कहानी का प्राण तत्त्व है | कथानक वास्तव में उस नक्शे की भांति है जिसके आधार पर एक सुंदर इमारत का निर्माण किया जाता है | एक अच्छे कथानक में मौलिकता, रोचकता, जिज्ञासा, प्रवाहमयता आदि का होना आवश्यक है | इस दृष्टि से ‘ठेस‘ एक सफल कहानी कही जा सकती है |

प्रस्तुत कहानी का कथानक संक्षिप्त है | सिरचन कहानी का मुख्य पात्र है जो मोथी घास व पटेर से चिक, शीतलपाटी और ऐसे ही दूसरे सामान बनाने की कला में निपुण है | एक कलाकार की तरह वह भी मनमौजी वृत्ति का था | काम करते समय उसके खाने-पीने का ध्यान रखना काम करवाने वाले के लिए जरूरी था | इसलिए गांव के कुछ लोग उसे चटोरा भी कहते थे | लेखक के घर में उसका बहुत मान-सम्मान था | लेखक की सबसे छोटी बहन मानू पहली बार ससुराल जा रही थी | उसके दूल्हे ने चिक और शीतलपाटी की फरमाइश की थी | सिरचन यह सब बनाने में माहिर था | उसे इस काम पर लगाया गया | अपने काम के दौरान उसे किसी की टोका-टाकी पसंद नहीं थी | काम करते समय वह अपने लिए खाने की नई-नई चीजों की मांग करता रहता था | काम करते समय सिरचन ने चाची से सुगंधित जर्दा मांग लिया चाची ने उसे जली-कटी सुना दी | सिरचन के हृदय को बहुत ठेस लगी और वह काम छोड़कर चला गया | लेकिन कहानी के अंत में वह अपनी संवेदनशीलता का परिचय देते हुए स्टेशन पर जाकर मानू को शीतलपाटी, चिक और असनी भेंट करता है | वह इस सबका कोई पारिश्रमिक भी नहीं लेता |

इस प्रकार कहानी का कथानक संक्षिप्त होते हुए भी आरंभ, मध्य और अंत की दृष्टि से अत्यंत रोचक है | इसमें आद्यात रोचकता व उत्सुकता बनी रहती है | इसके अतिरिक्त कहानी में मौलिकता, तथ्यों की कर्मबद्धता व प्रवाहमयता भी बनी रहती है | अतः कथानक के आधार पर ‘ठेस’ कहानी एक सफल कहानी कही जा सकती है |

(2) पात्र एवं चरित्र-चित्रण — यदि कथानक किसी कहानी की नींव है तो पात्र उस कहानी की दीवारें, दरवाजे और खिड़कियां हैं जिनके समुचित विकास के पश्चात ही कहानी रूपी भवन का निर्माण होता है | पात्र किसी कहानी को गति प्रदान करते हैं तथा उसमें वास्तविकता और नाटकीयता का समावेश करते हैं | इस कहानी में लेखक के अतिरिक्त सिरचन, मानू, भाभी, छोटी चाची आदि पात्र हैं | सिरचन कहानी का मुख्य पात्र है | वह नामचीन कलाकार है | चाची rके कटु वचनों से उसके हृदय को ठेस पहुंचती है | वह काम बीच में छोड़कर चला जाता है | लेकिन कहानी के अंत में सिरचन का चिक लेकर स्टेशन पर पहुंच जाना और मानू को भेंट स्वरूप देना उसके चरित्र के उज्जवल पक्ष को दर्शाता है | इस प्रकार कहानी में सिरचन के चरित्र का स्वाभाविक चित्रण किया गया है | मानू का चरित्र भी पाठकों को प्रभावित करता है | अन्य पात्र भी अपनी भूमिका का बखूबी निर्वाह करते हैं |

(3) संवाद व कथोपकथन — कहानी में संवादों का भी अपना महत्व होता है | संवाद कहानी को न केवल गति प्रदान करते हैं बल्कि उसमें नाटकीयता तथा स्वाभाविकता का समावेश भी करते हैं | संवादों से कहानी रोचक बनती है | संवाद पात्रों के चरित्र को प्रकाशित करते हैं |

प्रस्तुत कहानी की संवाद-योजना सटीक है | कहानी में लंबे और लघु दोनों ही प्रकार के संवाद प्रयुक्त हुए हैं | संवादों से कहानी में मौलिकता, जिज्ञासा एवं रोचकता का विकास हुआ है |

यथा — जब माँ लेखक को सिरचन को बुला लाने के लिए कहती हैं तो वह पूछता है – “भोग क्या-क्या लगेगा? “

माँ हँसकर कहती है — “जा-जा बेचारा मेरे काम में पूजा-भोग की बात नहीं उठाता कभी |”

इन संवादों से सिरचन की अच्छा खाने-पीने की प्रवृत्ति का ज्ञान होता है |

(4) देशकाल व वातावरण — देशकाल और वातावरण से अभिप्राय कहानी के समय, स्थान और परिवेश से है | फणीश्वर नाथ रेणु की सभी कहानियों में देशकाल और वातावरण का बड़ी कुशलता से चित्रण हुआ है | प्रस्तुत कहानी में भी बिहार के ग्रामीण अंचल का सजीव अंकन किया गया है | कहानी से ग्रामीण परिवेश का एक जीवंत चित्रण प्रस्तुत है — ” खेती-बाड़ी के समय गांव के किसान सिरचन की गिनती नहीं करते | लोग उसको बेकार ही नहीं बेगार समझते हैं | इसलिए खेत-खलिहान की मजदूरी के लिए कोई नहीं बुलाने जाता है सिरचन को | क्या होगा उसको बुलाकर | दूसरे मजदूर खेत पहुंचकर एक-तिहाई काम कर चुके होंगे तब कहीं सिरचन राय हाथ में खुरपी डुलाता हुआ दिखाई पड़ेगा | पगडंडी पर तोल-तोलकर पांव रखता हुआ, धीरे-धीरे | मुफ्त में मजदूरी देनी हो तो और बात है |”

इसी प्रकार वातावरण के निर्माण हेतु अंचल-विशेष की बोली के शब्दों का सफल प्रयोग किया गया है ; जैसे – मोथी घास और पटेर की रंगीन शीतलपाटी, मोढ़े, मूँज की रस्सी, गमकौआ जर्दा आदि |

(5) भाषा व भाषा शैली — फणीश्वर नाथ रेणु द्वारा रचित ‘ठेस’ कहानी में आम बोलचाल की भाषा का प्रयोग किया गया है | क्योंकि रेणु आंचलिक कहानीकार हैं, इसलिए अंचल -विशेष के शब्द अधिक मिलते हैं | तद्भव व आंचलिक देशज शब्दों की भरमार है | जैसे – मोथी घास और पटेर की रंगीन शीतलपाटी, मोढ़े, मूँज की रस्सी, गमकौआ जर्दा आदि | इससे कहानी में चित्रात्मकता तथा भावात्मकता का समावेश हुआ है | मुहावरों का सटीक प्रयोग हुआ है |

जहाँ तक शैली का प्रश्न है, ठेस कहानी मुख्य रूप से आत्मकथात्मक शैली में लिखी गई कहानी है परंतु आत्मकथात्मक शैली के अंतर्गत चित्रात्मक, भावात्मक एवं मनोविश्लेषणात्मक शैलियों का प्रयोग भी हुआ है |

(6) उद्देश्य — प्रत्येक साहित्यिक रचना का कोई न कोई उद्देश्य अवश्य होता है | फणीश्वर नाथ रेणु द्वारा रचित ‘ठेस’ कहानी भी इस विषय में कोई अपवाद नहीं है | इस कहानी के माध्यम से कहानीकार ने इस तथ्य को अभिव्यक्त किया है कि एक सच्चा कलाकार अत्यंत संवेदनशील होता है और केवल सम्मान का भूखा होता है |

लेखक स्वयं कहता है – “मैं चुपचाप वापस लौट आया | समझ गया कलाकार के दिल में ठेस लगी है | वह नहीं आ सकता |”

कलाकार अत्यंत संवेदनशील होता है | भले ही उसके अपने दिल को ठेस लगे लेकिन वह किसी दूसरे के दिल को तोड़ना नहीं चाहता | यही कारण है कि चाची के जली-कटी सुनाने पर वह लेखक के घर से काम छोड़ कर वापस आ जाता है लेकिन घर आकर मानू बिटिया के लिए चिक, शीतलपाटी और एक जोड़ी आसनी कुश बनाने लगता है | और जब मानू की विदाई होने लगती है तो वह रेलवे स्टेशन पर जाकर उसे सारा सामान भेंट-स्वरूप दे देता है | वह पारिश्रमिक के रूप में भी कुछ नहीं लेता |

उपर्युक्त विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है कि ‘ठेस’ कहानी एक सफल कहानी है जिसमें कहानी के सभी गुण एवं तत्व एक साथ देखे जा सकते हैं |

यह भी देखें

ईदगाह : मुंशी प्रेमचंद ( Idgah : Munshi Premchand )

पुरस्कार ( जयशंकर प्रसाद )

गैंग्रीन : सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’

फैसला ( मैत्रेयी पुष्पा )

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पच्चीस चौका डेढ़ सौ : ( ओमप्रकाश वाल्मीकि )

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