मैथिलीशरण गुप्त कृत ‘यशोधरा’ में गीत-योजना

मैथिलीशरण गुप्त कृत 'यशोधरा' में गीत-योजना
मैथिलीशरण गुप्त कृत ‘यशोधरा’ में गीत-योजना

यशोधरामैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित एक प्रगीतात्मक प्रबंध काव्य है जिसमें सुंदर गीत-योजना के माध्यम से यशोधरा की विरह-भावना का मार्मिक चित्रण किया गया है | मैथिलीशरण गुप्त कृत ‘यशोधरा’ में गीत-योजना की समीक्षा करने से पूर्व गीति काव्य के स्वरूप पर विचार करना आवश्यक एवं प्रासंगिक होगा |

गीतिकाव्य का अर्थ एवं स्वरूप

गीतिकाव्य को प्रगीत भी कहा जाता है | यह एक सर्वाधिक नवीन एवं सशक्त विधा है | भरत के ‘नाट्यशास्त्र’ में ‘गीत’ शब्द का प्राचीनतम प्रयोग मिलता है |

आचार्य हेमचंद्र ने इस संबंध में लिखा है – “गीतं शब्दित गानयो: |”

अमर सिंह अपनी रचना अमरकोश में लिखते हैं – “गीतं गान मीमे समे |”

कुछ विद्वान ऐसे भी हैं जो गीतिकाव्य को पश्चिम के देन मानते हैं | पाश्चात्य काव्यशास्त्र में गीतिकाव्य के लिए ‘लिरिक’ शब्द का प्रयोग हुआ है | ‘लिरिक’ ‘लायर’ नामक वाद्य यंत्र की सहायता से गाया जाता है | उसी ‘लिरिक’ का हिंदी रूपांतरण ही ‘गीति’ माना जाता है लेकिन अन्य विद्वान इससे सहमत नहीं है | कुछ विद्वान ऋग्वेद में गीत की झलक ढूंढने का प्रयास करते हैं और तर्कों के माध्यम से ऋग्वेद को भारतीय गीतिकाव्य का जनक सत्यापित करते हैं लेकिन फिर भी अधिकांश विद्वान् यह स्वीकार करते हैं कि वेदों में मिलने वाला गीतिकाव्य उस गीतिकाव्य से सर्वथा भिन्न है जो आज हिंदी साहित्य में विकसित है |

गीतिकाव्य की परिभाषा

गीतिकाव्य के बारे में भारतीय तथा पाश्चात्य विद्वानों ने भिन्न-भिन्न परिभाषाएं दी हैं | गीतिकाव्य के अर्थ तथा स्वरूप को जानने के लिए इन परिभाषाओं पर विचार करना नितांत समीचीन होगा |

(क ) पाश्चात्य विचारकों के गीती काव्य संबंधी मत

 एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका के अनुसार – ” Lyrical poetry a general term for all poetry which is, or can be supposed to be, susceptible of being sung to the accompaniment of a musical instrument. “

प्रो गुमरे के अनुसार – ”गीति काव्य वह अंतर्वृत्ति निरूपिणी कविता है जो वैयक्तिक अनुभूतियों से पोषित होती है, जिसका संबंध घटनाओं से नहीं अपितु भावनाओं से होता है तथा जो किसी समाज की परिष्कृत अवस्था से निर्मित होती है |”

 महादेवी वर्मा के अनुसार – “सुख-दुख की भावावेगमयी अवस्था-विशेष का गिने-चुने शब्दों में स्वर-संधान से उपयुक्त चित्रण कर देना ही गीति है |”

 डॉ नगेंद्र के अनुसार – “गीतिकाव्य की आत्मा है – भाव, जो किसी प्रेरणा के भार से दबकर एक साथ गीत में फूट निकलता है |”

 डॉक्टर गणपति चंद्रगुप्त के अनुसार – “गीतिकाव्य एक ऐसी लघु आकार एवं मुक्तक शैली में रचित रचना है जिसमें कवि निजी अनुभूतियों या किसी एक भाव-दशा का प्रकाशन गीत या लयपूर्ण कोमल पदावली में करता है |”

बाबू गुलाब राय के मतानुसार – “प्रगीत काव्य में कवि जो कुछ कहता है, अपने निजी दृष्टिकोण से कहता है | उसमें निजीपन के साथ रागात्मकता होती है | रागात्मकता में तीव्रता बनाए रखने के लिए उसका अपेक्षाकृत छोटा होना आवश्यक है | आकार की इस संक्षिप्तता के साथ भाव की एकता और अन्विति लगी रहती है | गीतिकाव्य में विविधता रहती है किंतु वह प्राय: एक ही केंद्रीय भाव की पुष्टि के लिए होती है |”

हिंदी गीति काव्य’ नामक पुस्तक के लेखक श्री ओमप्रकाश ने गीति-काव्य की निम्नलिखित विशेषताएं बताई हैं जो उपर्युक्त परिभाषाओं से भी स्पष्ट होती हैं —

(1) अंतर्जगत का चित्रण

(2) संगीतात्मकता

(3) भावों की सुकुमारता

(4) भाषा की सुकुमारता

(5) कोमलकांत शब्दावली

(6) प्रभावत्मकता

‘यशोधरा’ में गीत-योजना ( ‘Yashodhra’ Mein Geet-Yojna )

मैथिलीशरण गुप्त ने ‘यशोधरा‘ काव्य में गीतों की सुन्दर व स्वाभाविक सृष्टि की है | ‘यशोधरा‘ काव्य की संपूर्ण गीति-योजना ‘गीति‘ की परिपाटी के अनुरूप है | वैसे भी प्रगीत या गीत के माध्यम से दु:खद अनुभूतियों की अभिव्यक्ति अधिक सहज, स्वाभाविक और प्रभावी ढंग से होती है | क्योंकि यशोधरा एक विरह-काव्य है, अतः इसमें गीत अपरिहार्य रूप से आवश्यक बन गए हैं |

गीतों में हृदय की सफल अभिव्यक्ति होती है क्योंकि गीत भावों का सहज उच्छलन ही तो है | दु:खद स्थितियों में हृदय प्रायः छलक पड़ता है | प्रमुख छायावादी कवि सुमित्रानंदन पंत तो कविता को ही विरह-वेदना की शब्दाभिव्यक्ति मानते हैं | किसी गीत में संगीतात्मकता, भाषा की प्रांजलता तथा भावों की सघनता जितनी अधिक होगी गीत उतना ही अधिक सफल होगा | यशोधरा के गीतों में ये सभी गुण पाए जाते हैं | यही कारण है कि ये गीत भावों की अभिव्यक्ति में सहायक हैं | यशोधरा अपने हतभाग्य को करुण गीत के माध्यम से अभिव्यक्त करते हुए कहती है —

“मिला न हा! इतना भी योग |

मैं हँस लेती तुझे वियोग |

देती उन्हें विदा मैं गाकर |

भार झेलती मैं हरसा कर |”

यशोधरा के प्रिय उसे छोड़कर वन में चले गए हैं परंतु फिर भी रह-रहकर उसके मन में उनकी स्मृतियाँ उभारती रहती हैं —

“सखी प्रियतम है वन में,

किंतु कौन इस मन में |”

मैथिलीशरण गुप्त जी ने ‘यशोधरा‘ में लावणी छंद का भी सुंदर प्रयोग किया है | यह छंद सोहनी राग में गाया जा सकता है | इसके गायन के समय अत्यंत करुणापूर्ण वातावरण बन जाता है —

“अब कठोर हो वज्रादपि ओ सुकुमादपि सुकुमारी |

आर्यपुत्र दे चुके परीक्षा कब है तेरी बारी |”

यशोधरा‘ में गुप्त जी ने भावों की सुंदर व्यंजना की है | यशोधरा कामदेव को धमकाते हुए डाँट रही है | उसमें एक सफल गीत के सभी गुण आ गए हैं —

“मुझे फूल मत मारो |

मैं अबला बाला वियोगिनी कुछ तो दया विचारो |”

एक और उदाहरण देखिए —

“मेरे फूल रहो तुम फूले |

तुम्हें झुलाता रहे समीरण झोटे देकर झूले |”

इस प्रकार गुप्त जी ने काव्यशास्त्रीय ज्ञान का लाभ उठाते हुए श्रेष्ठ गीतों की रचना की है | इन गीतों में उन्होंने सीमित शब्दों में असीम भावनाओं को शब्द दिए हैं | गुप्तजी ने अंग्रेजी लिरिक ( Lyric ) के ढंग पर जिन गीतों का सृजन किया है, वह प्रशंसनीय हैं | गुप्तजी ने भारतीय काव्यशास्त्र के सिद्धांतों को अपनाने के साथ-साथ पश्चिमी काव्यशास्त्रीय सिद्धांतों को अपने काव्य में स्थान देकर लोगों की उस शिकायत को दूर करने का प्रयास किया जो बार-बार कहते थे कि भारतीय कवि पाश्चात्य काव्यशास्त्र से अनुकरणीय तत्त्वों को ग्रहण नहीं कर रहे हैं |

गुप्तजी ने यशोधरा के गीतों में मर्मस्पर्शी भावों की अभिव्यंजना सफतातपूर्वक की है | उनकी सुंदर गीत-योजना का एक अन्य उदाहरण देखिए —

” अबला जीवन हाय! तुम्हारी यही कहानी |

आँचल में है दूध और आँखों में है पानी ||”

उपर्युक्त पंक्तियों में लक्ष्यणाशक्ति के माध्यम से भावाभिव्यक्ति हुई है | यहाँ ‘आँचल में दूध‘ होना मुख्यार्थ में बाधा है | इसका लक्ष्यार्थ है – माँ के स्तन में दूध होना |

एक अन्य उदाहरण देखिए —

“रुदन का हँसना ही तो गान |”

यहाँ ‘रुदन का हँसना‘ मुख्यार्थ में बाधा है | यहाँ मुख्यार्थ / वाच्यार्थ है – वेदना और लक्ष्यार्थ है – तीव्र वेदना के कारण गीत फूट पड़ना | यहाँ वाच्यार्थ और लक्ष्यार्थ में सामीप्य सम्बन्ध है |

प्रगीतात्मक काव्य में व्यंग्य अथवा वक्रोक्ति का बड़ा ही महत्व होता है | जिस प्रयोजन के लिए लक्षणा का आश्रय ग्रहण किया जाता है, वह शब्दशक्ति के द्वारा परिलक्षित होता है | इसे लक्षणामूलक शाब्दी-व्यंजना कहते हैं |

“कादम्बिनी प्रसव की पीड़ा,

हँसी तनिक उस ओर |

छिति का छोर छू गई सहसा |

वह बिजली की कोर ||”

इसमें व्यंग्यार्थ है | जिस प्रकार एक स्त्री को प्रसव-पीड़ा के पश्चात पुत्र की प्राप्ति होती है, उसी प्रकार बिजली की उत्पत्ति तब होती है जब कादंबिनी ( बादलों की घटा ) को प्रसव के समान प्राणाँतक पीड़ा होती है |

प्रतीक-योजना का भी प्रगीत में महत्त्वपूर्ण स्थान है | प्रतीकों के माध्यम से प्रस्तुत के स्थान पर अप्रस्तुत का व्यवहार करते हैं और उस अप्रस्तुत के द्वारा प्रस्तुत की प्रतीति करायी जाते है | ‘यशोधरा‘ में भी अनेक स्थानों पर इस प्रतीक-योजना का निर्वाह हुआ है —

“तप मेरे मोहन का उद्धव धूल उड़ाता आया |”

यशोधरा‘ खंडकाव्य में गीतों की भरमार होने के कारण इसे प्रबंधात्मक गीतिकाव्य कहा जा सकता है | ‘यशोधरा’ में गीत-योजना यशोधरा की मानसिक वेदना का सहज उच्छलन है | इन गीतों के माध्यम से यशोधरा के गीले जीवन का संपूर्ण इतिहास व वर्तमान हमारी आँखों के सामने उभर आता है | यह गीति-तत्त्व ‘यशोधरा‘ की प्रबंधात्मकता में नवीन आकर्षण व गरिमा का सृजन करता है | गीति तत्त्व के करण ‘यशोधरा’ खंडकाव्य आस्वाद्य व मर्मस्पर्शी बन गया है जो गुप्त जी की काव्य-प्रतिभा का परिचायक है | यशोधरा का संपूर्ण जीवन गीतिकाव्य के अनुकूल है | उसका जीवन प्रेम, त्याग और विरह- वेदना से युक्त होने के कारण उसकी अनुभूतियों और भाव-संवेगों की सहज अभिव्यक्ति गीतिकाव्य के माध्यम से ही हो सकती थी | यही कारण है कि गुप्त जी ने यशोधरा में स्थान-स्थान पर सुंदर गीतों की सफल योजना की है जिसके कारण ‘यशोधरा’ खंडकाव्य हिंदी-साहित्य की एक अमूल्य निधि बन गया है |

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