मैथिलीशरण गुप्त कृत ‘यशोधरा’ के आधार पर यशोधरा का चरित्र-चित्रण

यशोधरा का चरित्र-चित्रण
यशोधरा का चरित्र-चित्रण

यशोधरामैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित एक प्रसिद्ध खंडकाव्य है जिसमें गौतम बुद्ध की पत्नी यशोधरा की विरह-वेदना का मार्मिक वर्णन किया गया है | गुप्त जी ने अपनी इस रचना के माध्यम से यशोधरा के प्रेम व त्याग को पाठकों के समक्ष लाकर उसके प्रति उस सम्मानित दृष्टिकोण को विकसित करने की चेष्टा की है जिससे उसे प्रायः वंचित रखा गया | यशोधरा का पीड़ा, विवशता और विरह-वेदना के बीच अपने पति के प्रति शुभाकांक्षा और पुत्र राहुल व अन्य पारिवारिक सदस्यों के प्रति अपने कर्तव्य का निर्वहन करना न केवल उसे उच्च पद पर प्रतिष्ठित करता है वरन संपूर्ण नारी-जाति के प्रति सम्मान की भावना उत्पन्न करता है | मैथिलीशरण गुप्त कृत ‘यशोधरा’ के आधार पर यशोधरा का चरित्र-चित्रण निम्नलिखित बिंदुओं में किया जा सकता है —

(1) विचारशील

यशोधरा विवेकशील व विचारशील है | वह सदैव विवेक से कार्य लेती है | प्रत्येक कार्य पर अच्छी प्रकार से चिंतन-मनन करने के पश्चात ही वह कुछ निर्णय लेती है | एक ओर वह मनुष्य होने के नाते अपना एक पृथक व्यक्तित्व रखती है तो वहीं दूसरी ओर पत्नी होने के नाते वह पति के कर्त्तव्यपालन में सहभागी बनना चाहती है | वह नहीं चाहती कि उसे एक स्वार्थिनी नारी के रूप में जाना जाये | एक स्थान पर वह गौतम से प्रश्न करते हुए पूछती है —

“हाय स्वार्थिनी थी मैं ऐसी, रोक तुम्हें रख लेती?

गौतम बिना उससे विदा लिए घर छोड़ कर चले जाते हैं इसलिए यशोधरा कहती है कि उसे अब गौतम का स्वागत करने का भी अधिकार नहीं रहा अर्थात उसे मलाल है कि वह सहर्ष अपने पति को इस पुण्य कार्य के लिए विदा न कर सकी |

“विदा न लेकर स्वागत से ही वंचित यहाँ किया है |”

(2) कर्तव्यपरायण

यद्यपि यशोधरा विरह-वेदना से ग्रस्त है, उसे निरंतर अपने प्रिय पति की स्मृतियां कचोटती रहती हैं तथापि वह कर्तव्यपरायण नारी है जो पति के जाने के बाद भी अपने पुत्र तथा अपने पारिवारिक सदस्यों के प्रति अपने कर्तव्यों का बड़ी कुशलता से निर्वहन करती है | वह पतिव्रता स्त्री होने के कारण विभिन्न कष्टों को सहन करते हुए विरह-वेदना की परीक्षा से गुजरना चाहती है —

“यदि मैं पतिव्रता तो मुझको कौन भार-भय भारी?

आर्यपुत्र दे चुके परीक्षा अब है मेरी बारी |”

अपने पति की उपलब्धियों में वह अपने तप का अंश खोजने की अपेक्षा करती है |

“प्रिय तुम तपो, सहूँ मैं भरसक देखूँ बस हे दानी –

कहाँ तुम्हारी गुण-गाथा में मेरी करुण कहानी |”

(3) त्यागशील

यशोधरा त्याग की भावना से ओतप्रोत है | उसे अपने लिए किसी भी वस्तु की चाह नहीं | वह त्याग में ही सुख अनुभव करती है | उसके हृदय में दूसरों के प्रति संवेदना की भावना है | उसे इसी में सुख मिलता है कि उसे छोड़कर किसी अन्य को वह पीड़ा सहन न करनी पड़े |

“तुम्हें न सहना पड़ा दु:ख यह मुझे यही सुख आली |

वधु-वंश की लाज देव ने आज मुझी पर डाली ||”

गौतम के सुख के लिए वह हर प्रकार के दु:ख को प्रसन्नतापूर्वक सहन करती है |

(4) विरह-संतप्त

यशोधरा विरह-वेदना से संतप्त है लेकिन विरह-वेदना से संतप्त होते हुए भी वह आदर्श भारतीय नारी का उदाहरण प्रस्तुत करती है | विरह-वेदना से संतप्त होते हुए भी यशोधरा का भारतीय आदर्शों से जुड़े रहना वास्तव में मैथिलीशरण गुप्त की भारतीय संस्कृति के प्रति अति मुग्धता का प्रतिफल है | पति के दूर चले जाने पर उसका जीवन नर्कतुल्य बन गया है | उसका जीवन उसके लिए बोझ है और एक-एक क्षण सैकड़ों बरसों के समान लगता है | ऐसी स्थिति में मरना ही उसके दु:खों का समाधान है | उसे मरना जीने से अधिक सुंदर प्रतीत होता है परंतु क्योंकि वह एक आदर्श नारी है ; बिना पति के आदेश के उसे मृत्यु भी स्वीकार्य नहीं | इसके अतिरिक्त उस पर अपने पुत्र राहुल के पालन-पोषण का उत्तरदायित्व भी है |

“स्वामी मुझको मरने का भी दे न गये अधिकार,

छोड़ गए मुझ पर अपने उस राहुल का सब भार |

जिये जल जल कर काया भी, मरण सुंदर बन आया री ||

विरह-वेदना से संतप्त यशोधरा का हृदय कभी-कभी आँसुओं के रूप में छलक पड़ता है और वह अपनी जीवन रूपी बगिया के वनमाली से लौट आने का आग्रह करने लगती है —

“ढलक न जाय अर्घ्य आँखों का गिर ना जाय यह थाली,

उड़ न जाय पंछी पाँखों का, आओ हे गुणशाली!

ओ मेरे वनमाली!”

(5) स्वाभिमानी

यशोधरा स्वाभिमान, धैर्य और आत्मविश्वास से ओतप्रोत है | जब गौतम उसे छोड़कर चले जाते हैं तो ऐसी स्थिति में यद्यपि वह विरह-वेदना से व्यथित होती है तथापि धैर्य और आत्मविश्वास का परिचय देती है | ऐसी अवस्था में भी वह भारतीय नारी के आदर्शों की अनुपालना करती है और अपने कर्तव्यों का निर्वाह करती है | जब गौतम के सिद्धि प्राप्त करके लौट आने की सूचना उसे मिलती है तो वह स्वाभिमान का परिचय देते हुए कहती है —

” रे मन! आज परीक्षा तेरी

विनय करती हूँ मैं तुमसे बात न बिगड़े मेरी ||”

स्वाभिमान की भावना उसे सदैव अपने कर्तव्य-पथ पर बनाए रखती है | शुद्धोधन के समझाने-बुझाने पर भी वह अपनी प्रतिज्ञा पर अटल रहती है | यह जान लेने पर भी कि उसके पति सिद्धि प्राप्त करके उसके बहुत निकट आ गए हैं, वह अपूर्व संयम और धैर्यशीलता का परिचय देती है | नारी जाति के सम्मान हेतु वह सब कुछ सहन करने के लिए तैयार है | जब उससे गौतम बुद्ध के दर्शन करने के लिए चलने को कहा जाता है तो वह स्पष्ट मना कर देती है और बेजोड़ उत्तर देती है —

“जब उन्हें इष्ट होगा आप आके अथवा

मुझको बुलाके, चरणों में स्थान देंगे वे |”

यह यशोधरा के त्याग, समर्पण और स्वाभिमान का ही परिणाम है कि अंत में यशोधरा विजयी होती है और गौतम को यशोधरा के मान की रक्षा करनी पड़ती है |

विरहाग्नि में तपकर ही तो यशोधरा अपने वास्तविक रूप में आई है |वह केवल आदर्शों के पंखों पर चढ़कर गगन में मुक्त विहार ही नहीं करना चाहती बल्कि वह ऐसा जीवन चाहती है जिसमें शांति और संयम हो | यही कारण है कि वह जीवन के सबसे भयंकर अभिशाप मृत्यु को भी सहर्ष गले लगाना चाहती है |

जगत के प्रति गौतम और यशोधरा के दृष्टिकोण पहली नजर में एक दूसरे से भिन्न नजर आते हैं | जहाँ गौतम संसार से पलायन का संदेश देते हैं तो वहीं यशोधरा का जीवन इस संसार में रहते हुए विभिन्न सांसारिक का कर्तव्यों को पूरा करने का सन्देश देता है |

“ये चन्द्र, सूर्य निर्वाण नहीं पाते हैं,

ओझल हो होकर दृष्टि हमें आते हैं |”

यद्यपि गुप्त जी वैष्णववादी सिद्धांतों को महत्व देने के लिए बुद्ध को पलायनवादी कहते हैं परंतु सिद्धि-प्राप्ति के पश्चात बुद्ध स्वयं यशोधरा के मत का सम्मान करते हुए गृहस्थ व सांसारिक जीवन में रहते हुए ही सदाचार का संदेश देते हैं | इस दृष्टिकोण से बुद्ध और यशोधरा दोनों के विचारों में एकरूपता है | भक्ति और साधना के भ्रमित जीवन से उबरते हुए बुद्ध के ज्ञान प्राप्त करने और व्यावहारिक धर्म की स्थापना में उनके व्यक्तिगत प्रयासों के साथ-साथ यशोधरा के प्रेम, त्याग, समर्पण और स्वाभिमान की भी महती भूमिका है |

(6) वात्सल्यपूर्ण माँ

गुप्त जी ने ‘यशोधरा‘ खंडकाव्य में यशोधरा को पत्नी के साथ-साथ एक माँ के रूप में भी वर्णित किया है | यशोधरा राहुल की माँ है | अपने पति गौतम के जाने के पश्चात वह अपार दु:खों को सहन करते हुए माँ के पद की रक्षा करती है | गौतम के चले जाने के पश्चात सर्वप्रथम उसकी दृष्टि अबोध राहुल पर पड़ती है और उसके मुख से जो शब्द निकलते हैं वह उसकी व्यक्तिगत विरह-वेदना के साथ-साथ उसके वात्सल्यपूर्ण हृदय का भी चित्रण करते हैं —

“चुप रह, चुप रह, हाय अभागे!

रोता है अब किसके आगे?

तुझे देख पाते वे रोता,

मुझे छोड़ जाते क्यों सोता?

अब क्या होगा? तब कुछ होता,

सोकर हम खोकर ही जागे |”

उपर्युक्त विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है कि मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित खंडकाव्य ‘यशोधरा‘ का केंद्रीय एवं सर्वाधिक महत्वपूर्ण पात्र यशोधरा है | सिद्धार्थ के गौतम बुद्ध तक के सफर में यशोधरा के त्याग को रेखांकित करना ही गुप्त जी का प्रमुख उद्देश्य रहा है | वस्तुतः गुप्त जी की यशोधरा भारतीय आदर्शों से युक्त नारी है जो अपने पति के हित के लिए प्रत्येक कष्ट को प्रसन्नतापूर्वक सहती है | असीम विरह-वेदना को झेलते हुए जिस प्रकार से यशोधरा प्रेम, त्याग, समर्पण, स्वाभिमान और कर्तव्य जैसे गुण अपने व्यक्तित्व में संजोए रहती है वे उसे केवल इस खंडकाव्य की ही नहीं अपितु सम्पूर्ण हिंदी साहित्य के सर्वाधिक महत्वपूर्ण नारी पात्रों में स्थान दिलाते हैं |

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