‘यशोधरा’ राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित एक प्रसिद्ध प्रबंध काव्य है जिसमें काव्य-रूप के दृष्टिकोण से महाकाव्य के अनेक तत्व मिलते हैं परंतु फिर भी अधिकांश विद्वान इसे खंडकाव्य के रूप में स्वीकार करते हैं | ‘यशोधरा’ काव्य में विरह-वर्णन सहज एवं स्वाभाविक रूप से हुआ है |
साहित्यशास्त्र के अनुसार विरह की दस अवस्थाएँ मानी गई हैं — (1) अभिलाषा, (2) चिंता, (3) स्मृति, (4) गुण-कथन, (5) उद्वेग, (6) प्रलाप, (7) उन्माद (8) जड़ता, (9) व्याधि और (10) मृत्यु |
भारतीय साहित्यशास्त्र में वर्णित विरह की विभिन्न अवस्थाओं के आधार पर ‘यशोधरा’ काव्य में विरह-वर्णन का विवेचन इस प्रकार है —
(1) अभिलाषा
गौतम के गृह-त्याग के पश्चात गोपा ( यशोधरा ) की बस एक ही अभिलाषा है कि उसके प्रिय घर लौट आयें | गोपा को विश्वास है कि वे एक दिन अवश्य घर वापस आएंगे —
“गए, लौट भी वे आवेंगे,
कुछ अपूर्व अनुपम लावेंगे,
रोते प्राण उन्हें पावेंगे,
पर क्या गाते जाते?
सखी वे मुझ से कहकर जाते |”
यद्यपि गोपा एक असाधारण नारी है जो अपने दु:खों को सहते हुए भी केवल अपने पति के सुख की कामना करती है और उसकी प्रत्येक इच्छा को पूरा होते हुए देखना चाहती है परंतु फिर भी उसके मन के किसी कोने में अपने पति के लौटने की इच्छा बनी रहती है जो बार-बार शब्दों के रूप में फूट पड़ती है —
“नाथ तुम जाओ, किंतु लौट आओगे, आओगे, आओगे |
नाथ तुम हमें बिना अपराध अचानक छोड़ कहाँ जाओगे |
नाथ तुम अपनाकर संपूर्ण सृष्टि को मुझे न अपनाओगे?”
(2) चिन्ता
विरह भावना में चिंता सदैव बनी रहती है | विरही को यह चिंता कई रूपों में बनी रहती है | कभी उसे यह चिंता सताती है कि उसके प्रिय न जाने किस हाल में होंगे ; वह सकुशल होंगे या नहीं ; और कभी उन्हें इस बात की चिंता बनी रहती है कि वह कब आएंगे ; आएंगे भी या नहीं? इस प्रकार विरही या विरहिणी सदैव अपने प्रिय के विचारों में निमग्न रहता है | वस्तुतः प्रिय के वियोग में अहर्निश उसका चिंतन या ध्यान करना ही चिंता कहलाता है | ‘यशोधरा’ काव्य में गोपा यद्यपि सभी कार्य तत्परता से करती है, वह अपने पुत्र राहुल और ससुर शुद्धोधन की देखरेख करती है किंतु प्रतिक्षण उसे अपने प्रिय की चिन्ता बनी रहती है | वह कभी अपने अतीत के विषय में ही सोचती है तो कभी अपने भविष्य के |
(3) स्मृति
विरह-वेदना के अंतर्गत प्रायः विरही के हृदय में अपने प्रिय की स्मृति बनी रहती है | प्रिय से संबंधित किसी वस्तु को देखकर अचानक प्रिय का ध्यान आ जाता है और उस वस्तु से जुड़ा हुआ अतीत का घटनाक्रम आँखों के सामने जीवंत हो जाता है | ‘यशोधरा’ काव्य में इस प्रकार के अनेक उदाहरण मिलते हैं |
जब यशोधरा को छोड़कर गौतम वन में चले जाते हैं तो विभिन्न प्राकृतिक-उपादान यशोधरा को गौतम की स्मृति कराते हैं | ये प्राकृतिक वस्तुएं गौतम की स्मृति को यशोधरा के मन में उद्दीप्त करती रहती हैं | ऐसे मधुर वातावरण में कोयल की कूक सुनकर गोपा गौतम की स्मृति में कूक पड़ती है —
“कूक उठी है कोयल काली
ओ मेरे वनमाली |
चक्कर काट रही है रह रह, सुरभि मुग्ध मतवाली,
अंबर ने गहरी छानी यह भू पर दुगुनी ढाली
ओ मेरे वनमाली |”
यशोधरा कहती है कि यद्यपि प्राकृतिक वातावरण में किसी प्रकार का कोई परिवर्तन नहीं हुआ है | वह आज भी वही है, वन के पक्षी भी वही हैं किंतु प्रिय के न होने पर यह सब उसके लिए अत्यंत विचित्र और दुःखदायी बन गए हैं —
“अब भी सब साज समाज वही
तब भी सब आज अनाथ यहाँ |
सखि जा पहुंचे सुधि-संग कही,
यह अंध-सुगंध समीर वहाँ |”
(4) गुण-कथन
प्रिय की अनुपस्थिति में उसके गुण विरही के मस्तिष्क में घूमते रहते हैं | विरही अपने प्रिय के गुण-कथन को अपने शांति के कारणों में से एक समझता है | गोपा गौतम की अनुपस्थिति में उनके गुणों का वर्णन करके कुछ शांति का अनुभव करती है | अपने विवाह के समय की घटनाएं उसे याद आती हैं, जब गौतम की परीक्षा ली गई थी और वे सब में खरे उतरे थे |
“मेरे लिए पिता ने सबसे धीर वीर वर चाहा,
आर्यपुत्र को देख उन्होंने सभी प्रकार सराहा |”
(5) उद्वेग
प्रिय की अनुपस्थिति में जब विरही का मन अत्यधिक बेचैनी अनुभव करता है तो इस स्थिति को उद्वेग कहते हैं | यशोधरा ( गोपा ) कभी-कभी विरह में इतनी अधिक व्यथित हो जाती है कि उसे अपना जीवन भार लगने लगता है | वह इतना अधिक कष्ट अनुभव करती है कि उसे इस जीने से मृत्यु भली लगती है |
“मरने से बढ़कर जीना, अप्रिय आशंकायें करना |
भय खाना, हा आँसू पीना |”
(5) प्रलाप
प्रिय की अनुपस्थिति में जब विरही की विरह-वेदना इतनी अधिक बढ़ जाती है कि वह रूदन करने लगती है तो उस स्थिति को प्रलाप कहते हैं | ‘यशोधरा’ काव्य में यशोधरा के आँसुओं की भरमार है | काव्य में यशोधरा की अश्रुधारा के अनेक शब्द चित्र मिलते हैं | युवावस्था में ही पति-संयोग से वंचित गोपा आँसुओं की अविरल धारा बहाती हुई कहती है —
“यह प्रभात या रात है घोर तिमिर के साथ |
नाथ! कहाँ हो हाय तुम? मैं अदृश्य के हाथ ||
नहीं सुधानिधि को भी छोड़ा ;
आँसू बहाते हुए भी यशोधरा अपने प्रिय गौतम की राह में बाधा नहीं बनना चाहती —
“मेरी नयन मालिके! माना, तूने बंधन तोड़ा,
पर तेरा मोती न बने हा! प्रिय के पथ का रोड़ा |”
(7) उन्माद
विरह-वेदना के अतिरेक से विरही की विवेकहीन अवस्था को उन्माद कहा जाता है | ‘यशोधरा’ खंडकाव्य में यशोधरा ( गोपा ) वियोग-वेदना के आधिक्य से प्रायः उन्मादिनी हो जाती है | उसका विवेक समाप्त हो जाता है | ऐसी अवस्था में उसके आदर्श छिन्न-भिन्न हो जाते हैं ; वह उचित-अनुचित का कोई ध्यान नहीं रखती | उसकी स्थिति विक्षिप्त जैसी हो जाती है | वह अपने सिर के बालों को काला नाग समझकर उन्हें काट डालना चाहती है |
(8) जड़ता
विरह-वेदना के आधिक्य से विरही के शारीरिक अवयवों का जड़ हो जाना ही जड़ता कहलाता है | ‘यशोधरा’ खंडकाव्य में गोपा की विरह-वेदना कई स्थानों पर जड़ता को प्राप्त हो जाती है | गौतम के विरह में गोपा सूखकर काँटा हो गई है | अब उससे चला-फिरा तक नहीं जाता | वह सोचती है – काश मुझमें चलने-फिरने की शक्ति होती तो मैं सारे संसार में उन्हें ढूँढती |
“सिंहनी सी काननों में, विनोगिनी सी शैलों में |
शफरी सी जल में, विहंगिनी सी व्योम में |
जाती सभी और उन्हें खोज कर लाती मैं ||”
(9) व्याधि
विरह की निरंतर पीड़ा के कारण उत्पन्न शारीरिक या मानसिक रोग को व्याधि कहते हैं | ‘यशोधरा’ खंडकाव्य में गोपा ( यशोधरा ) विरह-पीड़ित है और अब तो वह इतनी संतप्त और रुग्ण है कि उसके पास रहने वाले लोग भी उससे प्रभावित हैं |
“सखि वसंत से कहाँ गए वे
मैं ऊष्मा-सी यहाँ रही
मैंने ही क्या सहा सभी ने,
मेरी बाधा व्यथा सही |”
(10) मरण
जब विरही लंबे समय तक अपने प्रिय की प्रतीक्षा करता रहता है और विरह-वेदना की सभी अवस्थाएं पार कर जाता है तो अंत में उसकी मृत्यु भी संभावित है | यद्यपि ‘यशोधरा’ खंडकाव्य में गोपा ( यशोधरा ) की मृत्यु तो नहीं हुई परंतु उसे विरह की ऐसी कठोर स्थिति में दिखाया गया जो मरण से भी अधिक कष्टप्रद है | अपनी इस विरह-वेदना के विषय में यशोधरा अपनी सखी से कहती है —
“मरण सुंदर बन आया री!
शरण मेरे मन भाया री!
आली मेरे मनसंताप से पिघला वह इस बार,
रहा कराल कठोर काल सो हुआ सदय सुकुमार
नर्म सहचर सा छाया री,
मरण सुन्दर बन आया री |”
यशोधरा अपने पुत्र राहुल के लिए जीवित रहती है यदि उसे अपने पुत्र के पालन-पोषण का कर्तव्यपालन न करना होता तो संभवत: वह विरह-वेदना से मर जाती |
निष्कर्षत: ‘यशोधरा’ काव्य में विरह-वर्णन अत्यंत मार्मिक एवं हृदयस्पर्शी बन पड़ा है | मैथिलीशरण गुप्त ने ‘यशोधरा’ खंडकाव्य में पहली बार हिंदी-साहित्य में नारी के आहत स्वाभिमान को जागृत करने का प्रयास किया गया | इसके पश्चात हिंदी-साहित्य में नारी के आभ्यन्तर तथा बाह्य को पवित्रता के साथ वर्णित किया जाने लगा | गुप्त जी के पश्चात इस कार्य को प्रमुख छायावादी कवि जयशंकर प्रसाद ने सफलतापूर्वक आगे बढ़ाया | यद्यपि ये दोनों नारी-पुरुष समानता के पक्ष को उतनी अधिक प्रबलता से अभिव्यक्त नहीं कर पाए जितना की प्रगतिवादी, प्रयोगवादी और उसके पश्चात के आधुनिक कवि करते हैं लेकिन फिर भी नारी के त्याग, समर्पण और प्रेम को यथोचित सम्मान दिलाने में गुप्त और प्रसाद जी का स्थान हिंदी साहित्य में अप्रतिम है |
Other Related Posts
मैथिलीशरण गुप्त ( Maithilisharan Gupt )
मैथिलीशरण गुप्त का साहित्यिक परिचय ( Mathilisharan Gupt Ka Sahityik Parichay )
मैथिलीशरण गुप्त कृत ‘यशोधरा’ के आधार पर यशोधरा का चरित्र-चित्रण
यशोधरा ( मैथिलीशरण गुप्त ) का कथासार
मैथिलीशरण गुप्त के काव्य में नारी-चित्रण ( Maithilisharan Gupt Ke Kavya Mein Nari Chitran )
मैथिलीशरण गुप्त की राष्ट्रीय चेतना ( Maithilisharan Gupt Ki Rashtriya Chetna )
भारत-भारती ( Bharat Bharati ) : मैथिलीशरण गुप्त
जयद्रथ वध ( Jaydrath Vadh ) : मैथिलीशरण गुप्त ( सप्रसंग व्याख्या )
संदेश यहाँ मैं नहीं स्वर्ग का लाया ( Sandesh Yahan Nahin Main Swarg Ka Laya ) : मैथिलीशरण गुप्त
12 thoughts on “‘यशोधरा’ काव्य में विरह-वर्णन ( ‘Yashodhara’ Kavya Mein Virah Varnan )”