राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित ‘यशोधरा’ की रचना सन 1933 में हुई | ‘यशोधरा’ का उद्देश्य गौतम बुद्ध की पत्नी यशोधरा के हार्दिक दुख की मार्मिक अभिव्यक्ति है | यशोधरा की हृदयगत दु:खद भावनाओं की अभिव्यक्ति के निमित्त गुप्त जी ने प्रस्तुत काव्य-ग्रंथ के कथानक में अपनी कल्पना से अनेक नवीन एवं मौलिक परिवर्तन किए हैं | मूलत: ‘यशोधरा’ का कथासार बुद्ध के वनगमन और उसके पश्चात उसकी पत्नी यशोधरा के मन में उठने वाले विभिन्न भावों को लिए हुए है |
‘यशोधरा’ का पूर्वार्द्ध तो इतिहास प्रसिद्ध है परंतु उत्तरार्ध कवि की उर्वर कल्पना की सृष्टि है | यशोधरा के चरित्र में कवि के वैष्णव सिद्धांत वाणी पा गए हैं जो इस ग्रंथ का एक अन्य उद्देश्य कहा जा सकता है | ‘यशोधरा’ का कथानक सरस, सजीव और रोचक है | इसमें दो प्रवृत्तियों का द्वंद्व दिखाया गया है | एक है – गौतम की पलायनवादी मनोवृति और दूसरी है – जीवन-संग्राम में लिप्त रहने की चिरंतन कामना | यशोधरा दूसरी प्रवृत्ति की प्रतीक है | निम्नलिखित पंक्तियां कवि और उसकी ‘यशोधरा’ का जीवन-दर्शन प्रस्तुत करती हैं —
“भव भावे मुझको और उसे मैं भाऊँ |
कह मुक्ति, भला किस लिए तुझे मैं पाऊँ |”
इस रचना में विभिन्न विधाओं व काव्य-रूपों को समन्वित रूप में प्रस्तुत करने का कवि ने प्रयास किया है | ‘यशोधरा’ की कथावस्तु को प्रगीतों में विकसित किया गया है | यह प्रगीत कथा की घटना और प्रसंग का सांकेतिक उल्लेख करते हैं |
रचना-शैली व काव्य-विधा की दृष्टि से ‘यशोधरा’ एक ऐसी काव्य-कृति है जो अपने में कविता, गीत, नाटक, गद्य-पद्य आदि सभी कुछ का समावेश लिए हुए है | समीक्षकों एवं आलोचकों में इस इस विषय पर मतभेद है कि ‘यशोधरा’ साहित्य की किस शैली के अंतर्गत आयेगी | इस विषय में डॉ कमलकांत पाठक कहते हैं —
“इसका रचना-तंत्र खंडकाव्यात्मक है और विधान चंपूवत | यह रचना-शैली की दृष्टि से मिश्रकाव्य है और वर्णन-पद्धति की दृष्टि से खंडकाव्य |”
यद्यपि अधिकांश विद्वान ‘यशोधरा’ को खंडकाव्य स्वीकार करते हैं परंतु फिर भी इसमें अनेक काव्य-शैलियों व काव्य-रूपों की झलक मिलती है | वस्तुतः ‘यशोधरा’ की रचना-शैली मधुर और मिश्रित है | शैली का यह अनूठापन इसके महत्व को द्विगुणित कर देता है |
‘यशोधरा’ का कथासार’
‘यशोधरा’ का कथानक इतिहास-प्रसिद्ध है, विशेषत: इसका पूर्वाद्ध परंतु उत्तरार्द्ध में इतिहास के साथ-साथ कल्पना का समावेश भी मिलता है | प्रस्तुत काव्य-ग्रंथ में यशोधरा के चरित्र का उद्घाटन हुआ है | उसकी हृदयगत दु:खद अनुभूतियों का वर्णन करना और उसके त्याग की महत्ता को प्रतिपादित करना ‘यशोधरा’ का मुख्य उद्देश्य कहा जा सकता है | प्रस्तुत काव्य-ग्रंथ में बौद्ध-सिद्धांतों का खंडन करके वैष्णव-सिद्धांतों के मंडन की प्रवृत्ति है जो गुप्त जी के अपने पूर्वाग्रह व विचारों से प्रेरित है |
‘यशोधरा’ का संक्षिप्त कथानक ( ‘Yashodhara’ Ka Sankshipt Kathanak ) इस प्रकार है — यशोधरा के पिता महाराज दंडपाणि अपनी पुत्री के विवाह से पूर्व सिद्धार्थ की विद्या, बुद्धि और बल के दृष्टिकोण से परीक्षा लेते हैं | सिद्धार्थ सभी परीक्षाओं में उत्तीर्ण होते हैं लेकिन शास्त्रों के प्रति अधिक जिज्ञासा होने पर कुछ चिंतित अवश्य होते हैं | सिद्धार्थ और यशोधरा का विवाह हो जाता है |
सिद्धार्थ के पिता उसके लिए ऐसा महल बनवाते हैं जिसमें सभी ऋतु के योग्य सुख-साधन एकत्रित हैं | ऐसा प्रबंध किया जाता है कि राजकुमार सिद्धार्थ को केवल सुख और वैभव ही हर तरफ दिखाई दे | परंतु एक दिन रोगी को, दूसरे दिन वृद्ध को और तीसरे दिन मृतक को देखकर गौतम ( सिद्धार्थ ) व्यथित हो जाते हैं, उसका मन जिज्ञासा से भर जाता है | अनेक प्रश्न गौतम के मन मेंउठने लगते हैं जिनका उत्तर पाने के लिए वे एक रात अपनी पत्नी यशोधरा और अपने पुत्र राहुल को छोड़ कर अपने घर से निकल पड़ते हैं | छंदक नामक सेवक के साथ कंथक नामक अश्व पर सवार होकर वह घर से निकल पड़े | रास्ते में उन्हें एक संन्यासी के दर्शन हुए जो साधन-विहीन होने पर भी प्रसन्न था | अतः उन्होंने संन्यासी बनने का निर्णय लिया और अपनी राजकीय वेशभूषा को त्याग दिया | छंदक को उन्होंने कपिलवस्तु वापस लौटा दिया | उन्होंने संदेश दिया कि वह जीवन के अनसुलझे रहस्य को जानकर ही वापस लौटेंगे |
गौतम वैशाली और राजगृह के बड़े-बड़े विद्वानों से मिले, परंतु उन्हें कहीं कोई संतोषजनक राह न मिली | अंततः वे गया पहुंचे | गया में निरंजना नदी के तट पर गौतम ने तपस्या आरंभ कर दी | उन्होंने कई वर्षों तक कठिन तपस्या की | गर्मी-सर्दी, आंधी- लू और क्षुधा के कारण उनका शरीर जड़ हो गया ; उनमें हिलने-डुलने की भी शक्ति नहीं रही | अब उन्होंने मिताहार करके योग-साधना करना उचित समझा | इस निर्णय पर उनके पांचो भिक्षुओं ने उनका साथ छोड़ दिया | निर्बलता और वस्त्र-विहीन होने के कारण वे भिक्षा के लिए भी नहीं जा सकते थे | उन्होंने पास के शमशान से एक वस्त्र प्राप्त किया और उसे धारण कर लिया | गाँव की कुछ लड़कियाँ उन्हें कुछ आहार दे जाती थी जिसे खाकर उनमें चलने-फिरने की शक्ति आने लगी | सुजाता नाम की लड़की ने उन्हें स्वादिष्ट खीर भेंट की जिससे उनको तृप्ति का अनुभव हुआ |
एक दिन निरंजना नदी को पार करके उन्होंने एकांत में एक अश्वत्थ वृक्ष ( पीपल का पेड़ ) देखा | उस वृक्ष के नीचे गौतम को ज्ञान की प्राप्ति हुई | बाद में वही वृक्ष बोधि-वृक्ष के नाम से जाना गया | ज्ञान प्राप्ति से पूर्व उनके मार्ग में अनेक बाधाएं आई | मार ( कामदेव ) ने उन्हें मार्ग से विरत करना चाहा, उन्हें डराया-धमकाया गया परंतु वे अटल रहे | ज्ञान-प्राप्ति के पश्चात उन्होंने विभिन्न कर्मकांड़ों और आडंबरों का विरोध किया और सदाचार पर बल दिया | यज्ञ के नाम पर होने वाली जीव-हत्या को उन्होंने सबसे बड़ा पाप कहा और सभी जीवों को जीने देने का सन्देश दिया | अहिंसा और प्रेम ही उनका मुख्य संदेश था | काशी के निकट सारनाथ में उन्होंने पहला उपदेश उन पांच भिक्षुओं को दिया जो उन्हें छोड़कर चले गए थे | इस घटना को ‘धर्मचक्र-प्रवर्तन’ कहा जाता है |
जल्दी ही यह समाचार रोहिणी नदी के निकट स्थित कपिलवस्तु में पहुंच गया | शुद्धोधन ( गौतम बुद्ध के पिता ) ने बुद्ध को बुलाने के लिए दूत भेजे परंतु जो दूत उन्हें लेने के लिए गए थे, वे सब उनके दर्शन और उपदेशों से प्रभावित होकर स्वयं संघ में शामिल हो गए | अंत में शुद्धोधन ने अपने मंत्री पुत्र व गौतम बुद्ध के बाल-सखा को गौतम बुद्ध को बुलाने के लिए भेजा | वह भी संघ में शामिल हो गया परंतु क्योंकि उसने शुद्धोधन से प्रतिज्ञा की थी कि वह गौतम बुद्ध को लेकर आएगा इसलिए उसने गौतम बुद्ध को उनका स्मरण दिला दिया |
भगवान बुद्ध कपिलवस्तु पधारे | रात को वे नगर के बाहर उद्यान में ठहरे | प्रातः नियमानुसार भिक्षा के लिए निकले | भगवान बुद्ध राजप्रासाद में पधारे | सबने उनका उचित मान-सम्मान किया परंतु यशोधरा उस समारोह में सम्मिलित न हुई | उससे कहा गया तो उसने कहा – “भगवान के मुझ पर कृपा होगी तो स्वयं ही पधारेंगे |”
अंत में भगवान बुद्ध स्वयं उनके निकट आते हैं परन्तु उस समय भी यशोधरा उन्हें राहुल का दान देकर अपनी त्यागशीलता का परिचय देती है |
इस प्रकार यशोधरा का कथानक अत्यंत सरल, सरस, सजीव एवं रोचक है | कल्पना के सम्मिश्रण से कथानक में मौलिकता, नविनता एवं भावप्रवणता का संचार हुआ है |
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