‘रस सिद्धांत’ के अंतर्गत रस-निष्पत्ति, साधारणीकरण आदि की विस्तृत चर्चा हुई है | इसके पश्चात साधारणीकरण की प्रक्रिया में सहृदय की अवधारणा की चर्चा हुई | इसका कारण यह है कि रसानुभूति सहृदय ही करता है |
सहृदय का अर्थ एवं स्वरूप ( Sahridya Ka Arth Evam Swaroop )
‘सहृदय’ शब्द का अर्थ है – समान हृदय वाला | कवि या चित्रकार के हृदय में जो विशिष्ट भाव होते हैं उनको वह अनुभव कर सकता है, वह उसी प्रकार की अनुभूति-सम्पन्न हृदय रखता है | अतः उसे सहृदय कह सकते हैं | कवि अपने आसपास के वातावरण से कुछ अनुभूतियों को ग्रहण करता है और जो अनुभूति उसके हृदय को सर्वाधिक प्रभावित करती है वह उसी को अपनी काव्य-कृति के रूप में परिणत करता है | उस समय कवि या रचनाकार के ह्रदय में जो व्याकुलता व संवेदनशीलता होती है यदि वैसी ही व्याकुलता और संवेदनशीलता पाठक, श्रोता या दर्शक के हृदय में भी हो तो वह सहृदय है | वस्तुतः रचनाकार की अनुभूति पाठक, दर्शक या श्रोता की अनुभूति तभी बन पाएगी यदि वह सहृदय है | ‘सहृदय’ के लिए प्रमाता, रसिक आदि शब्दों का प्रयोग भी किया जाता है | विभिन्न आचार्यों ने अपनी-अपनी सुविधा के अनुसार इन शब्दों का प्रयोग किया है |
सामान्य शब्दों में सहृदय का अर्थ है – वह संवेदनशील पाठक या श्रोता जो काव्य-रचना को पढ़कर या सुनकर रसानुभूति प्राप्त कर सकता है | ‘सहृदय’ के शाब्दिक अर्थ के आधार पर उस व्यक्ति को सहृदय कहा जा सकता है जिसका ह्रदय कवि के समान हो अर्थात जो कवि की अनुभूति को अपनी अनुभूति बना ले, जो उसी प्रकार से संवेदनशील हो जाए जिस प्रकार उन भावों को अनुभव करके रचनाकार हुआ होगा |
सहृदय की अवधारणा ( Sahridya Ki Avdharna )
‘अवधारणा‘ शब्द का सामान्य अर्थ है – विचारपूर्वक निश्चय करना, निर्धारण करना या निरूपण करना | सहृदय की अवधारणा का अर्थ है – ‘सहृदय‘ के अर्थ, स्वरूप आदि पर प्रकाश डालते हुए उसकी विभिन्न योग्यताओं आदि का निर्धारण करना | सहृदय की अवधारणा के अंतर्गत हमें ऐसे पाठक, श्रोता या दर्शक का निर्धारण या निरूपण करना है जो किसी काव्य रचना को पढ़कर सुनकर या देखकर रसानुभूति कर सके |
सभी पाठक, श्रोता या दर्शक सहृदय, रसिक या प्रमाता नहीं होते | रसिक अथवा सहृदय वही व्यक्ति हो सकता है जो साधारणीकरण प्रक्रिया द्वारा काव्यानन्द प्राप्त कर सकता है | कोई पाठक, श्रोता या दर्शक तब तक कवि की अनुभूति को नहीं समझ सकता जब तक उसमें सहृदय की योग्यता न हो |
सहृदय की योग्यता ( Sahridya Ki Yogyta )
जैसा कि ऊपर कहा गया है कि सहृदय कोई सामान्य पाठक या श्रोता नहीं होता | सहृदय वही व्यक्ति हो सकता है जिसे काव्य के मर्म का समुचित ज्ञान है अर्थात्जो साहित्य या काव्य को समझता है, उसमें रुचि लेता है और उसे पढ़कर या सुनकर आनंदानुभूति प्राप्त करता है |
आचार्य विश्वनाथ ने ‘साहित्य-दर्पण’ में रस के स्वरूप पर चर्चा करते हुए कहा है — “अखंड, स्वप्रकाश आनंदमय, चिन्मय तथा अन्य सभी प्रकार के ज्ञान से मुक्त ब्रह्मास्वाद सहोदर चमत्कार प्राण रस का आस्वाद कुछ प्रमाता अपने हृदय में सतोगुण के उद्रेक होने पर अपने स्वरूप से भिन्न रूप में करते हैं |”
सहृदय के मन में सत्व, रजस और तमस तीन गुण विद्यमान होते हैं | सत्व गुण पर रजस् और तमस की मोटी चादर पड़ी रहती है | काव्यानंद के क्षणों में रजस् और तमस की मोटी चादर उतर जाती है और सत्व गुण प्रकट हो जाता है | फलत: सहृदय आनंदानुभूति प्राप्त करता है |
आचार्य विश्वनाथ ने अपने ग्रंथ ‘साहित्य दर्पण’ में स्पष्ट रूप से कहा है कि सभी श्रोताओं अथवा दर्शकों को काव्यानन्द की प्राप्ति नहीं होती, केवल कुछ को होती है | इसका प्रमुख कारण यह है कि रस अलौकिक और अनिर्वचनीय है | केवल कुछ सहृदय ( प्रमाता ) ही रसानुभूति प्राप्त कर सकते हैं | सामान्यतः जिन लोगों में संवेदनशीलता होती है वही काव्य का रसास्वादन कर सकते हैं, सभी नहीं |
रस और सहृदय का संबंध ( Ras Aur Sahridya Ka Sambandh )
रस की अवधारणा को समझने के लिए ‘रस’ के बारे में भी जानना आवश्यक है | संस्कृत के प्राचीन आचार्यों भरत मुनि, विश्वनाथ, जगन्नाथ आदि के साथ-साथ आधुनिक काल के आचार्य रामचंद्र शुक्ल, डॉ नगेंद्र आदि विद्वानों ने रस के बारे में पर्याप्त विवेचन किया है | प्राचीन आचार्यों ने काव्यानन्द को रस कहा है |
विश्वकोश के आधार पर रस का अर्थ है – गंध, स्वाद, द्रव्य, वीर्य, धातु जल आदि | लेकिन काव्यशास्त्र के संबंध में रस से अभिप्राय करुणा, श्रृंगार आदि रसों से है और यह आनंद का पर्याय है |
रस के स्वरूप के विषय में आचार्य भरत मुनि ने कहा है —
“जिस प्रकार नाना प्रकार के व्यंजनों, औषधियों और द्रव्यों के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है, जिस प्रकार नाना प्रकार के व्यंजनों से संस्कृत अन्न का उपभोग करते हुए प्रसन्नचित्त पुरुष रसों का आस्वादन करते हैं और हर्षादि का अनुभव करते हैं, उसी प्रकार प्रत्येक प्रेक्षक ( सहृदय ) विविध भावों एवं अभिनयों द्वारा व्यंजित वाचिक, आंगिक और सात्विक अभिनयों से युक्त स्थायी भावों का आस्वादन करते हुए हर्षादि को प्राप्त करते हैं |”
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि काव्यानंद अथवा रस का संबंध सहृदय, सामाजिक अथवा प्रेक्षक से है | कवि भी अपनी रचना का अनुशीलन करके यह रस प्राप्त करता है और सहृदय भी |
सहृदय और साधारणीकरण ( Sahridya Aur Sadharanikaran )
साधारणीकरण का संबंध सहृदय से है | सर्वप्रथम भट्टनायक ने ‘साधारणीकरण’ शब्द का प्रयोग किया | भट्टनायक के बाद अभिनवगुप्त तथा धनंजय ने साधारणीकरण की विस्तृत विवेचना की |
अभिनवगुप्त साधारणीकरण के विषय में लिखते हैं — “काव्य नाटक द्वारा प्रस्तुत वस्तु के संबंध में सामाजिक की व्यक्तिगत आसक्ति मित्र, शत्रु तथा उदासीन भाव से असंबद्ध अथवा मुक्त प्रतीत होती है | वस्तु की व्यक्ति से यह असमबद्धता ही उस वस्तु का साधारणीकरण है |”
भाव यह है कि विभावादि के साधारणीकरण द्वारा सहृदय का भी साधारणीकरणी हो जाता है | वह व्यक्ति विशेष न रहकर सामान्य प्रमाता बन जाता है और साधारणीकरण द्वारा अलौकिक आनन्द प्राप्त करता है |
इस प्रकार साधारणीकरण का विषय भी सहृदय अथवा सामाजिक है | अन्य शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि काव्य की रचना सहृदय अथवा प्रमाता के लिए की गई है | यदि सुयोग्य एवं प्रतिभा-संपन्न सहृदय काव्य का अनुशीलन करते हैं तो वे तत्काल काव्यानंद प्राप्त कर लेते हैं | अतः काव्यनंद प्राप्त करने के लिए सुयोग्य सहृदय का होना नितांत आवश्यक है |
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने साधारणीकरण का विवेचन करते हुए सहृदयता पर भी प्रकाश डाला है | अपने ग्रंथ ‘चिंतामणि भाग-1’ में वे लिखते हैं — “साधारणीकरण का अभिप्राय है कि पाठक या श्रोता के मन में जो वस्तु विशेष या व्यक्ति विशेष आती है, वह जैसे काव्य में वर्णित आश्रय के भाव का आलंबन होती है वैसे ही सभी सहृदयों या पाठकों के भाव का आलम्बन हो जाती है |”
इस प्रकार आचार्य शुक्ल ने सह्रदय और साधारणीकरण का गहरा संबंध बताया है | आचार्य शुक्ल ने सहृदय के लिए सहृदय के साथ-साथ पाठक, श्रोता आदि शब्दों का प्रयोग किया है | अनेक विद्वान सहृदय के लिए प्रमाता, सामाजिक आदि शब्दों का प्रयोग भी करते हैं |
संक्षेप में कहा जा सकता है कि वह संवेदनशील, सुयोग्य व प्रतिभाशाली व्यक्ति जो काव्यानुशीलन करके काव्यानन्द प्राप्त करता है, सहृदय कहलाता है | इस प्रकार सहृदय साधारणीकरण प्रक्रिया का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बिंदु है | सहृदय के बिना साधारणीकरण की प्रक्रिया निरर्थक हो जाती है |
यह भी देखें
औचित्य सिद्धांत : अवधारणा एवं स्थापनाएं
ध्वनि सिद्धांत ( Dhvani Siddhant )
वक्रोक्ति सिद्धांत : स्वरूप व अवधारणा ( Vakrokti Siddhant : Swaroop V Avdharna )
रीति सिद्धांत : अवधारणा एवं स्थापनाएँ (Reeti Siddhant : Avdharana Evam Sthapnayen )