हरियाणवी नाट्य साहित्य हरियाणवी उपन्यास और कहानी साहित्य की भांति बहुत अधिक विस्तृत नहीं है | हरियाणवी भाषा में दृश्य नाटक तथा श्रव्य नाटक दोनों प्रकार के नाटक लिखे गए हैं परंतु हरियाणवी नाटकों की संख्या अधिक नहीं है | हरियाणवी भाषा में रचित केवल कुछ नाटक ही ऐसे हैं जो कतिपय विद्वानों द्वारा बताए गए नाट्य तत्वों की कसौटी पर खरे उतरते हैं | अधिकांश हरियाणवी नाटकों पर सांग-परंपरा की झलक स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है |
हरियाणवी नाटक की विकास-यात्रा ( Haryanvi Natak Ki Vikas Yatra )
हरियाणवी नाट्य साहित्य ( Haryanvi Natak Sahitya ) की विकास यात्रा का वर्णन झलकी अथवा रेडियो नाटक, प्रहसन, एकांकी आदि के विवेचन के माध्यम से किया जा सकता है —
(1) झलकी अथवा रेडियो नाटक
हरियाणवी नाट्य-विधा का आरंभ रेडियो नाटकों से माना जाता है | 1970-80 के दशक में चौधरी प्रताप सिंह द्वारा लिखित रेडियो नाटक ‘ताऊ-झगड़ू’ हरियाणवी लोक-जीवन में खूब प्रसिद्ध रहा | इस नाटक द्वारा तत्कालीन लोकजीवन व समाज में व्याप्त समस्याओं पर हास्य-व्यंग्य शैली में प्रभावशाली ढंग से प्रकाश डाला गया है | श्री राजाराम शास्त्री ने हिंदी, उर्दू व हरियाणवी भाषा में लगभग 300 एकांकी लिखे | इसी समय श्री दयाराम मित्तल का रेडियो नाटक ‘मन्नै चाहिए टूम ठेकरी’ भी बहुत चर्चित रहा है |
हरियाणवी रेडियो नाटक के विकास में श्रीमती चंद्रमलिक का भी बहुत योगदान रहा है | उनके ‘गठड़ी‘ एवं ‘नितनेम‘ रेडियो नाटक हरियाणा के लोक-जीवन में बहुत ही प्रसिद्ध रहे हैं | श्री बलजीत सिंह राणा ने भी अनेक रेडियो नाटक रच कर इस विधा को समृद्ध किया | ‘पाप का पट्टा’, ‘पंच फैसला’, ‘चुटकी की करामात’, ‘समझौते की ओर’ आदि श्री बलजीत सिंह राणा के सुप्रसिद्ध रेडियो नाटक हैं | रघुवीर सिंह मथाना द्वारा रचित ‘रास्ता जाम है’ रेडियो नाटक भी विशेष रूप से चर्चित रहा है | श्री रामफल शर्मा का रेडियो नाटक ‘चंद्रशेखर’ भी अत्यंत लोकप्रिय हुआ | श्री ओम प्रकाश दहिया द्वारा रचित ‘रमलू’ नाटक भी हरियाणवी रेडियो नाटक की परंपरा में विशेष उल्लेखनीय है | डॉ विश्व बंधु शर्मा के नाटक ‘अपना मरण जगत की हाँसी’, ‘महादान’, ‘चादर फैंक दी मन्नै’, ‘घर तै पहलां शिक्षा’, ‘राखी का मूल्य’, ‘समय की पुकार’ आदि रेडियो नाटकों ने विशेष ख्याति अर्जित की | डॉ हरीश्चंद्र वर्मा ने डॉ विश्वबंधु शर्मा के रेडियो नाटकों के बारे में लिखा है — “इन झलकियों में भूत-प्रेत संबंधी अंधविश्वास, छुआछूत और शिक्षा दहेज-प्रथा, पुत्र-पुत्री में भेद मानने की दूषित प्रवृत्ति आदि सामाजिक विसंगतियों पर प्रहार किए गए हैं | यह सभी रचनाएँ सामाजिक परिवर्तन व सुधार की चेतना से अनुप्राणित हैं |”
(2) प्रहसन
प्रहसन वे नाटक होते हैं जिनमें हास्य-व्यंग्य की भूमिका महत्वपूर्ण होती है | वैसे मौखिक रूप में तो हरियाणा में हास्य-व्यंग्य की परंपरा अत्यंत प्राचीन रही है परंतु लिखित रूप में हास्य-व्यंग्य की इस नाट्य-परंपरा को प्रहसन का रूप देने में प्रसिद्ध हरियाणवी साहित्यकार श्री राजाराम शास्त्री की भूमिका प्रथम व सर्वप्रमुख है | प्रहसन के रूप में हरियाणवी भाषा में पहला संकलन सन 1983 ईस्वी में ‘धूलिया का पिटारा’ प्रकाशित हुआ | इस संकलन के लेखक श्री राजाराम शास्त्री ही हैं | इस संकलन में कुल ग्यारह प्रहसन हैं | इन प्रहसनों की कड़ियाँ आपस में जुड़ी हुई हैं | इन कड़ियों को जोड़ने का काम इन प्रहसनों के दो सूत्रधारों क्रमशः मदारी एवं जमूरा ने किया है | यथा —
मदारी – बोल, क्या देख रहा है?
जमूरा – दो भाई बैठे बातें कर रहे हैं |
मदारी – हाँ, ठीक देखा और क्या दिखाई दे रहा है?
जमूरा – एक भाई दूसरे को मना रहा है, दूसरा अकड़ रहा है |
मदारी – ठीक देखा | बिल्कुल ठीक अब देख इन दोनों भाइयों के झगड़े की करामात |
( मदारी और जमूरा दोनों नेपथ्य में जाते हैं | पर्दा खुलता है | )
मांगेराम – ( हुक्के का कश लेते हुए ) हाँ |
श्रीराम – भई, वा फैसला कर ले बैठ के ईख बोवण का |
मांगे – सच्ची बात यो सै भई! अक मैं तै ईख-वीख के चक्कर मैं पड़ता ना |
श्रीराम – अरै भाई, किम्मे अकल की बात कर | वा खेत खाली पड़्या सै, दोनू मिल कै ईख बोवांगे तै पता सै कितना फादया होगा?
इस प्रकार श्री राजाराम शास्त्री का हरियाणवी नाटक विधा में प्रहसनों का प्रारंभ किया | यद्यपि इन प्रहसनों में प्रहसन का प्रायः अभाव है परंतु ये प्रहसन हरियाणवी भाषा में इस विधा के लेखन की पर्याप्त संभावना व्यक्त करते हैं |
(3) एकांकी
एकांकी का तात्पर्य उस नाटक से है जिसमें एक ही अंक होता है |हरियाणवी नाट्य-साहित्य के विकास में हरियाणवी में रचित एकांकी नाटकों का अत्यधिक योगदान रहा है | हरियाणवी भाषा में एकाकियों की रचना वैसे तो 1950 ईस्वी के आसपास से होती रही है परंतु सही मायनों में इसका विकास 1995 ईस्वी से आरंभ होता है | इस वर्ष डॉ राजवीर धनखड़ द्वारा रचित एकांकी संग्रह ‘बिन्धग्या सो मोती’ प्रकाशित हुआ इस एकांकी-संग्रह में कुल 9 एकांकियाँ हैं | किस एकांकी-संग्रह की प्रमुख एकांकियों में ‘बिन्धग्या सो मोती’, आपणे हुए पराये’, ‘सेवापाणी’, ‘आपाधापी’ आदि प्रमुख हैं |
डॉ लक्ष्मण सिंह ने ‘बिन्धग्या सो मोती’ एकांकी-संग्रह की भूमिका में लिखा है — “इसमें हरियाणवी संस्कृति को पूर्ण रूप से हरियाणवी भाषा में पाठकों के सम्मुख रखा गया है | ठेठ ग्रामीण परिवेश है |…… प्रत्येक एकांकी में कोई न कोई समस्या उठाई गई है |…….. इन समस्याओं को उठाकर विवेकपूर्ण समाधान निकालकर पाठकों के सम्मुख पूर्ण भोजन की थाली की भाँति परोसा गया है |”
इसके पश्चात 1998 ईस्वी में पंडित किशन चंद द्वारा रचित एक एकांकी संग्रह ‘लगाम’ प्रकाशित हुआ | 1998 ईस्वी में ही श्री रामफल चहल द्वारा रचित एक एकांकी-संग्रह ‘विघ्न की जड़’ नाम से प्रकाशित हुआ | इस एकांकी संग्रह में 9 एकांकियाँ थी | ‘विघ्न की जड़’, ‘सरपंचणी’, ‘खानदानी गवाह’, ‘माँ की पोटली’ और ‘बिचौला’ आदि इस एकांकी-संग्रह की प्रमुख एकांकियाँ हैं |
‘विघ्न की जड़’ एकांकी संग्रह के विषय में श्री कपिलवर्धन का कथन है — “प्रस्तुत संग्रह की नौ एकांकी झलकियां विशेषकर हरियाणवी चिंतन एवं परीपाटियों का भला सा चित्रण करती हैं | नाट्य-विधा के सभी तत्वों के साथ ही लोक-परंपराओं का संपुट इन रचनाओं में रुचिकर बन पाया है | मंचन एवं प्रसारण दोनों ही अवस्थाओं में यथावांछित संशोधनों के मिश्रण से इनका प्रदर्शन भली-भांति किया जा सकता है |”
सन 1999 में प्रख्यात साहित्यकार श्री रघुवीर सिंह मथाना का एक एकांकी-संग्रह ‘बदलते पात्र’ नाम से प्रकाशित हुआ | इस संग्रह की दो एकांकियाँ ‘स्वर्ण जयंती’ तथा ‘पंचायत’ हरियाणवी भाषा में हैं | इन दोनों इकाइयों में बदलते वर्तमान परिवेश पर करारा व्यंग्य किया गया है |
‘बदलते पात्र‘ एकांकी-संग्रह के विषय में श्री ओमप्रकाश कादयान कहते हैं — ” यह पुस्तक हमारे समाज का ऐसा आईना है जो समाज की सही तस्वीर हमारे सम्मुख रखता है |….. संग्रह की रचनाएं पढ़ने में हल्की-फुल्की अवश्य लगती हैं किंतु समस्याएं बड़ी गंभीर बनी हुई हैं | यह वे समस्याएं हैं जो हमारी रोजमर्रा की जिंदगी में हमारे सामने बार-बार कठिनाई बनकर आती हैं | ये समस्याएँ हमारे समाज को अंदर ही अंदर खोखला कर रही हैं | इन्हीं समस्याओं को लेखक ने गंभीरता से लिया है तथा इनके विरुद्ध एक जंग लड़ने के लिए अपनी लेखनी का प्रयोग किया है |”
इसके अतिरिक्त हरियाणवी एकांकी साहित्य के विकास में डॉ श्याम सखा ‘श्याम ‘ द्वारा रचित एकांकी संग्रह ‘मुखाग्नि‘ तथा डॉ रणवीर सिंह दहिया द्वारा रचित ‘कसौण व अन्य हरियाणवी नाटक’ का भी महत्वपूर्ण योगदान है | इस प्रकार हरियाणवी एकांकी-साहित्य अपनी एक विशेष पहचान लिए हुए है परंतु इस दिशा में अभी हरियाणवी साहित्यकार बहुत आगे तक नहीं गए |
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