कवि बिहारी का साहित्यिक परिचय ( Kavi Bihari Ka Sahityik Parichay )

कवि बिहारी का साहित्यिक परिचय

जीवन-परिचय

कवि बिहारी रीतिकाल के सबसे लोकप्रिय कवि माने जाते हैं | इनका जन्म संवत् 1652 ( 1595 ईस्वी ) में ग्वालियर के निकट बसुआ गोविंदपुर गाँव में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था | इनके पिता का नाम केशवराय था इन्होंने रीतिकाल के प्रसिद्ध कवि केशवदास से काव्य और शास्त्र की शिक्षा ग्रहण की थी | कुछ लोग नरहरिदास को इनका गुरु मानते हैं | शाहजहां के निमंत्रण पर ये तीन वर्ष तक आगरा में रहे | इसके पश्चात वे जयपुर के राजा जयसिंह के दरबार में राजकवि के पद पर प्रतिष्ठित हुए | राजा जयसिंह बिहारी के दोहों से बहुत प्रभावित थे | ऐसा माना जाता है कि उनके हर दोहे से खुश होकर वे उन्हें एक सोने की अशर्फी पुरस्कार के रूप में देते थे | बिहारी ने केवल 713 दोहे लिखे लेकिन इन दोनों से ही वे संपूर्ण हिंदी साहित्य में हमेशा के लिए अमर हो गए | संवत 1720 ( 1663 ) ईस्वी में उनका देहांत हो गया |

प्रमुख रचनाएँ

बिहारी की एकमात्र रचना ‘बिहारी सतसई’ ही उपलब्ध है | इसमें 713 दोहे हैं |

काव्यगत विशेषताएँ

बिहारी बहुमुखी प्रतिभा के धनी साहित्यकार थे | उन्होंने भले ही एक ही काव्य ग्रंथ की रचना की किंतु उन्होंने इस काव्य ग्रंथ में अपनी विलक्षण प्रतिभा का परिचय दिया | उन्होंने दोहा छंद को अपने चरम पर पहुंचाया और ब्रज भाषा को एक नया लालित्य प्रदान किया | उन्होंने अपने दोहों में गागर में सागर भर दिया है |

बिहारी के काव्य की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं —

(1) मुक्तक काव्य रचना

कवि बिहारी ने प्रबंध काव्य की रचना नहीं की | उन्होंने केवल मुक्तक काव्य की रचना की लेकिन मुक्तक काव्य के द्वारा ही उन्होंने जीवन के विभिन्न पक्षों का विषय एवं व्यापक चित्रण किया | कवि बिहारी ने अपनी एकमात्र रचना ‘बिहारी सतसई’ में मुक्तक काव्य को चरम उत्कर्ष प्रदान किया | एक छोटे से दोहा छंद के माध्यम से जिस प्रकार से उन्होंने भावाभिव्यक्ति की है वह उनकी शब्दों की जादूगरी का प्रमाण है | अनेक स्थलों पर केवल एक दोहे में उन्होंने प्रिय-युगल की संपूर्ण प्रेम-कथा को प्रस्तुत कर दिया है | संभवत इसी कारण बिहारी को गागर में सागर भरने की क्षमता में सिद्धहस्त माना जाता है |

(2) विषय की व्यापकता

‘बिहारी सतसई’ का प्रमुख वर्ण्य-विषय श्रृंगार है किंतु कवि ने भक्ति, नीति, वीरता, लोक-व्यवहार आदि से संबंधित विषयों को कि अपने दोहों में स्थान दिया है | बिहारी ने ज्योतिष, गणित, विज्ञान वेदांत आदि विषयों पर भी दोहे लिखे |

कवि बिहारी ने स्वयं स्वीकार किया है कि “करी बिहारी सतसई भरी अनेक सवाद |”

भक्ति संबंधी दोहों की रचना करते हुए कवि बिहारी किसी विशेष संप्रदाय का अनुकरण नहीं करते बल्कि एक सामान्य व्यक्ति की भांति भक्ति करते हैं | उनके नीति संबंधी अनेक दोहे अत्यंत लोकप्रिय हुए |

यथा — “नल की अरु नल-नीर की, गति एकै करि जोइ |

जेतो नीचो ह्वै चलै, तेतौँ ऊँचौ होइ |”

(3) श्रृंगार वर्णन

कवि बिहारी के काव्य में श्रृंगार रस का सुंदर परिपाक हुआ है | उन्होंने श्रृंगार के संयोग और वियोग दोनों पक्षों का सफलतापूर्वक चित्रण किया है |

‘बिहारी सतसई’ के 713 दोनों में से 600 दोहे श्रृंगारपरक हैं परंतु बिहारी का मन संयोग श्रृंगार में अधिक रमा है | उन्होंने प्रेम-क्रीड़ा वर्णन और नायक-नायिका के रूप का वर्णन किया है | उन्होंने नारी के रूप-वर्णन, नख-शिख वर्णन, वय सन्धि तथा अनुभावों का आकर्षक चित्र प्रस्तुत किया है |

नायिका के मुख-सौंदर्य का वर्णन करते हुए कवि बिहारी कहते हैं —

“छप्यौ छबीलों मुँह लसै, नीले अंचर चीर |

मनौ कलानिधि झलमलै, कालिंदी के नीर ||”

वस्तुतः बिहारी का काव्य हावों, अनुभावों और चेष्टाओं की चित्रशाला है |

वियोग श्रृंगार का उल्लेख करते हुए बिहारी ने अत्युक्ति एवं अतिशयोक्ति से काम लिया है | यही कारण है कि उनके विरह-वर्णन में सहजानुभूति का अभाव है | शब्दों की जादूगरी के कारण उनके विरह वर्णन में चमत्कार तो दिखाई देता है लेकिन स्वाभाविकता खो जाती है |

एक स्थान पर वे लिखते हैं कि विरह के कारण नायिका इतनी अधिक कृषकाय हो गई है कि सांस लेने पर उसका पूरा शरीर छह-सात कदम आगे-पीछे हटता है मानो वह साँसों पर चढ़ कर हिंडौला झूल रही हो |

“इत आवति चली जाति उत चली, छसातक हाथ |

चढ़ हिंडोरै सी रहै लगी उसासनु साथ |”

एक अन्य दोहे में कवि बिहारी नायिका की विरह-वेदना का वर्णन करते हुए कहते हैं कि विरहिणी नायिका की सखियां सर्दी की ऋतु में भी उसकी विरहाग्नि में झुलस जाने के भय से गीले वस्त्रों की ओट करके उसके पास जाती हैं | इस प्रकार उनके विरह-वर्णन में अधिकांशत: ऊहात्मकता दिखाई देती है |

(4) भक्ति-भावना

कवि बिहारी ने श्रृंगार वर्णन के साथ-साथ भक्तिपरक दोहे भी लिखे हैं | बिहारी ने अपने आराध्य श्री कृष्ण की आराधना के दोहे लिखे हैं | वे उनकी शरण में रहना चाहते हैं | मंगलाचरण के रूप में लिखा गया उनका यह दोहा अत्यंत प्रसिद्ध है —

“मेरी भव-बाधा हरौ,राधा नागरी सोइ |

जा तन की झाईं परैं, स्यामु हरित-दुति होइ |”

(5) नीति-काव्य

‘बिहारी सतसई’ में शृंगारिक दोहों की प्रधानता है किंतु कहीं-कहीं नीतिपरक दोहों की सरलता एवं उपदेशात्मकता से पाठक प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता | नीति के दोहों में लोक-व्यवहार संबंधित बातें शामिल किए गई हैं | एक उदाहरण देखिए —

“कोटि जतन कोऊ करै, परै न प्रकृतिहिं बीच |

नल बलि जल ऊँचो चढ़े, तऊ नीच को नीच ||”

(6) बहुज्ञता

यद्यपि काव्यशास्त्र के अनुसार काव्य-प्रतिभा ईश्वर प्रदत्त, स्वाभाविक व जन्मजात मानी जाती है फिर भी कवि को बहुश्रुत होना आवश्यक है | कवि बिहारी को तत्कालीन समाज में व्याप्त विभिन्न परंपराओं और रीति-रिवाजों, पर्वों की व्यापक जानकारी थी | उन्होंने पतंगबाजी, कबूतरबाजी, चौगान, आँख मिचौनी, होली आदि अनेक खेलों का सुंदर वर्णन किया है | वस्तु-वर्णन पद्धति के दृष्टिकोण से भी उनके काव्य में व्यापकता नजर आती है | कमल, सोनजुही, मोगरा, गुल्लाला आदि अनेक पुष्पों का वर्णन उनके काव्य में मिलता है | इस प्रकार उनके काव्य में तत्कालीन समाज में व्याप्त जीवन के विभिन्न क्षेत्रों की परंपराओं व शब्दावली का चित्रण मिलता है |

(7) उक्ति-वैचित्र्य

बिहारी के दोहों में उक्ति-वैचित्र्य की अधिकता है | इस संबंध में आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी लिखते हैं — “बिहारीलाल की कृति का जो मूल्य अधिक आँका गया है उसे अधिकतर रचना की बारीकी या काव्यांगों के सूक्ष्म-विन्यास की निपुणता की ओर ही मुख्यतः दृष्टि रखने वाले पारखियों के पक्ष में समझना चाहिए ; उनके पक्ष से समझना चाहिए जो किसी हाथी दाँत के टुकड़े पर महीन बेलबूटे देख घंटों वाह-वाह किया करते हैं |”

कवि बिहारी का निम्न दोहा देखिए जिसमें नायक-नायिका लोगों से भरे हुए भवन में आंखों ही आंखों में सभी बातें कर रहे हैं —

“कहत, नटत, रीझत, खिझत, मिलत, खिलत, लजियात |

भरे भौन में करत हैं, नैनन ही सों बात ||”

(8) भाषा और भाषा-शैली

कवि बिहारी का भाव पक्ष जितना समृद्ध है कला पक्ष भी उतना ही विकसित है | अनेक आलोचक तो ऐसे हैं जो उनके कला पक्ष को भाव पक्ष की अपेक्षा कहीं अधिक समृद्ध मानते हैं | उन्होंने ब्रजभाषा को चरम उत्कर्ष प्रदान किया | वह शब्दों के प्रयोग में अत्यंत निपुण थे | यही कारण है कि उन्होंने कम शब्दों में ही बहुत गहरी बातें अपने दोहों के माध्यम से अभिव्यक्त की हैं | उनकी भाषा में तत्सम, तद्भव, देशज, विदेशज आदि के शब्दों का सुंदर समन्वय मिलता है | मुहावरों और लोकोक्तियों के प्रयोग से उनके दोहों में स्वाभाविकता का समावेश हुआ है | उनकी भाषा चित्रात्मकता, सामासिकता , सरसता आदि गुणों से युक्त है | छंदों के दृष्टिकोण से उन्होंने दोहा छंद को अपनी भावाभिव्यक्ति का आधार बनाया | उन्होंने शब्दालंकार और अर्थालंकार दोनों प्रकार के अलंकारों का सुंदर प्रयोग अपने दोहों में किया है | अनुप्रास, यमक, श्लेष, उत्प्रेक्षा, रूपक, उपमा और अतिशयोक्ति उनके प्रिय अलंकार हैं |

उन्होंने वर्णनात्मक, चित्रात्मक, भावात्मक और सामासिक शैली का प्रयोग किया |

उपर्युक्त विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है कि बिहारी हिंदी साहित्याकाश के सर्वाधिक चमकीले नक्षत्रों में से एक हैं | यद्यपि उन्होंने किसी महाकाव्य की रचना नहीं की परंतु अपनी एकमात्र रचना ‘बिहारी सतसई’ के माध्यम से ही वे रीतिकाल के सर्वाधिक लोकप्रिय कवि माने जाते हैं | उनके दोहों के विषय में सच ही कहा गया है —

“सतसैया के दोहरे, ज्यों नावक के तीर |

देखन में छोटे लगैं, बेधैँ सकल सरीर ||”

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