मीराबाई का साहित्यिक परिचय

मीराबाई का साहित्यिक परिचय
मीराबाई का साहित्यिक परिचय

मीराबाई भक्तिकालीन हिंदी साहित्य की सगुण भक्तिधारा की कृष्णकाव्य धारा की प्रमुख कवयित्री हैं | मीराबाई का साहित्यिक परिचय निम्नलिखित बिंदुओं में दिया जा सकता है —

जीवन-परिचय

मीराबाई भक्तिकालीन कृष्णकाव्य धारा की प्रसिद्ध कवियत्री हैं | इनके आराध्य श्री कृष्ण हैं | इनका जन्म राव दादू जी के चौथे पुत्र रतन सिंह के घर संवत् 1555 में कुड़की गाँव में हुआ था | इनकी बाल्यावस्था में ही इनकी माता का देहांत हो गया | अतः इनके पितामह राव दादू जी ने इनका पालन-पोषण किया |

12 वर्ष की अल्पायु में मीरा का विवाह मेवाड़ के प्रसिद्ध राजा महाराणा सांगा के ज्येष्ठ पुत्र कुंवर भोजराज से हुआ | इनका दांपत्य जीवन सुखमय नहीं रहा | ये जल्दी ही विधवा हो गई | साधु-संतों की संगति में इनका मन और अधिक रमने लगा | पति और ससुर की मृत्यु के पश्चात मीरा पर राजकुल के अत्याचार बढ़ने लगे | परिणाम स्वरूप मीरा ने राजमहल त्याग दिया और पूर्णत: संन्यासिनी बन गई | वे साधु-संतों की मंडली में वृंदावन जाकर भजन-कीर्तन करने लगी उसके पश्चात वे द्वारिका धाम पहुंचकर ‘श्री रणछोड़’ जी के मंदिर में भजन गायन करने लगी | सम्वत 1630 में वहीं पर उनका देहांत हो गया |

प्रमुख रचनाएँ

मीराबाई की प्रमुख रचनाओं में ‘नरसी जी रो माहेरो’, ‘गीत गोविंद की टीका’, ‘गर्वा गीत’, ‘मीरा की पदावली’, ‘राग सोरठा’, ‘राग गोविंद’, ‘मीरा की मल्हार’ और कुछ फुटकर पद आदि शामिल हैं | ‘नरसी जी रो माहेरो’ में नरसी मेहता की भावपूर्ण कथा का वर्णन है | ‘गीत गोविंद की टीका’ अप्राप्य है | ‘राग गोविंद’ के बारे में मात्र अनुमान है कि यह इनकी रचना है | ‘राग सोरठा’ में मीरा, कबीर और नामदेव के पदों का संग्रह है | मीरा के फुटकर पद 200 के लगभग हैं |

काव्यगत विशेषताएँ

मीराबाई के काव्य की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं —

(1) भक्ति-भावना

मीराबाई भक्तिकाल की सगुण भक्तिधारा की कृष्ण भक्त कवयित्री हैं | सूरदास की भांति मीराबाई की भक्ति भी माधुर्य भाव की भक्ति है | दांपत्य भाव की भक्ति में मीरा सूरदास से भी आगे बढ़ गई है | सूरदास जी गोपियों के माध्यम से श्री कृष्ण की भक्ति प्राप्त करना चाहते हैं परंतु मीरा स्वयं राधा बन गई और भगवान श्री कृष्ण को अपना पति मान लिया |

“म्हारा री गिरधर गोपाल दूसरा णा कूयां |

दूसरा णा कूयां साधाँ सकल लोक जूयां ||”

मीराबाई के पदों में प्रेम-भक्ति के अनेक अनुभूतिपूर्ण चित्र मिलते हैं |उनकी विरहानुभूति की गहराई को नापना सहज नहीं हैं | उनके पदों में मिलन, उत्सुकता, आशा, प्रतीक्षा से सम्बंधित पद हैं | कहीं-कहीं उनके पदों में रहस्यवाद की अभिव्यक्ति मिलती है |

(2) सघन प्रेमानुभूति

मीराबाई का काव्य सघन प्रेमानुभूति का काव्य है | वे श्री कृष्ण से अनन्य प्रेम करती हैं | मीरा उन्हें गिरधर गोपाल, नटवर नागर, नंदलाल, बांके बिहारी, सांवरिया, गोविंद, प्रभु आदि अनेक नामों से पुकारती है | मीरा श्री कृष्ण को प्रेम करती है पर उनकी प्रेमानुभूति आध्यात्मिक है | उनका यह प्रेम सगुण श्री कृष्ण के प्रति एकनिष्ठ है | वे कहती हैं — “म्हारा री गिरधर गोपाल, दूसरा णा कूयां |”

अनेक स्तरों पर वे अपने प्रभु के नख-शिख का वर्णन भी करती हैं —

“बस्या म्हारे णेणणँ मां नंदलाल |

मोर मुगट मकराकृत कुण्डल अरुण तिलक सोहां भाल ||”

मीरा श्री कृष्ण के अवतारी रूप से प्रेम करती है | वह उन्हें अपने जीवन का आधार मानती है और उनके रंग में अनुरक्त रहती है |

“हरि मेरे जीवन का प्राण आधार

मैं गिरधर के रंग राती |”

(3) सघन विरहानुभूति

मीराबाई का काव्य श्रृंगारी काव्य है जिसमें श्रृंगार के संयोग और वियोग दोनों पक्षों का सुंदर वर्णन मिलता है परंतु संयोग की अपेक्षा वियोग कहीं अधिक मार्मिक बन पड़ा है | मीराबाई का विरह-वर्णन सघन, व्यापक एवं स्वाभाविक है | विरह-वर्णन की दृष्टि से मीरा का स्थान संपूर्ण हिंदी साहित्य में सर्वश्रेष्ठ माना जा सकता है | उनका विरह-वर्णन जायसी के विरह-वर्णन से भी बढ़कर है |

स्वाभाविकता मीराबाई के विरह-वर्णन की सर्वाधिक महत्वपूर्ण विशेषता कही जा सकती है | कहीं-कहीं अत्युक्तियाँ अवश्य देखी जा सकती हैं परंतु फिर भी उनका विरह-वर्णन जायसी की तरह अस्वाभाविक व मात्र शब्द-चमत्कार नहीं लगता |

मीरा का विरह वर्णन कोई सामान्य विरह नहीं है | वह अपने प्रिय से अनन्य प्रेम करती है | वह उनके दर्द में दीवानी है और हमेशा उन्हीं का नाम जपती रहती है | मीरा अपने प्रियतम से मिलन के लिए इतनी अधिक व्यग्र है कि हर पल उनका रास्ता तकती रहती है | जगते और सोते हुए वह उन्हीं के सपने देखती रहती है |

अपनी विरहजन्य विवशता का वर्णन करते हुए एक पद में वह अपनी सखी से कहती है —

“आली री म्हारे णेणा बाण पड़ी |

चित्त चढी म्हारे माधुरी मूरत, हिवड़ा अणी गड़ी |”

(4) रहस्यानुभूति

यद्यपि मीराबाई सगुण ईश्वर की आराधना करती हैं परंतु फिर भी उनके काव्य में अनेक स्थलों पर रहस्यात्मक अनुभूतियों का वर्णन हुआ है | उनका रहस्यवाद कबीर के समान अनुराग, परिचय और मिलन आदि अवस्थाओं को नहीं दर्शाता | उनकी रहस्यानुभूति साधक और ईश्वर की प्रेमानुभूति की व्यंजक है | जहाँ मीराबाई साधक और ईश्वर के बीच में तादात्मय स्थापित करती हैं, वहाँ उनके काव्य में अद्वैतवाद का आभास मिलता है |

इसी तादात्मय को प्रकट करते हुए वे कहती हैं —

“तुम बिच हम बिच अन्तर नाहिं”

कहीं-कहीं मीराबाई को लगता है कि उनके प्रभु उनके भीतर ही समाए हुए हैं | इसलिए वे उनसे पत्र-व्यवहार भी नहीं कर सकती |

इसी विवशता को प्रकट करते हुए मीराबाई लिखती हैं —

“पतिया मैं कैसे लिखूँ लिख्योही न जाये”

निम्न पंक्तियों में भी उनकी रहस्यवादी वृत्ति को देखा जा सकता है —

” मैं तो गिरधर के घर जाऊँ |

गिरधर म्हारो साँचो प्रीतम, देखत रूप लुभाऊँ |”

(5) गीति-तत्त्व की प्रधानता

गेयता मीरा के काव्य की सर्वाधिक महत्वपूर्ण विशेषता कही जा सकती है | निश्चित रूप से उनका काव्य गीतिकाव्य है | गीतिकाव्य की सभी विशेषताएं – आत्माभिव्यक्ति, संक्षिप्तता, तीव्रता, संगीतात्मकता, भावात्मक एकता आदि उनके काव्य में देखी जा सकती हैं | उनके सभी पद संगीत शास्त्र के नियमों पर खरे उतरते हैं | यही कारण है कि उनके पद आज भी भजन के रूप में गाए जाते हैं और सुनने वाले को भावविभोर कर देते हैं |

(6) भाषा

मीराबाई का कला पक्ष भी उनके भाव पक्ष की भांति अत्यंत सशक्त है | उनकी भाषा में राजस्थानी भाषा के शब्दों की बहुलता है | इसके अतिरिक्त उनकी भाषा में ब्रज और गुजराती भाषाओं का प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है | ब्रज क्षेत्र और राजस्थान में प्रचलित मुहावरों और लोकोक्तियों का सहज एवं स्वाभाविक प्रयोग उनके काव्य में हुआ है |

जहां तक छंदों एवं अलंकारों का प्रश्न है उनके काव्य में इनका प्रयोग सायास नहीं बल्कि स्वाभाविक रूप से हुआ है | यही कारण है कि इनकी अभिव्यक्ति रीतिकालीन भक्त कवियों की अपेक्षा कहीं अधिक हृदयस्पर्शी बन गई है | मीरा के काव्य में उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, अत्युक्ति आदि अलंकारों का सुंदर प्रयोग हुआ है | यथा —

“असुवाँ जल सींची-सींची प्रेम-बेल बूयाँ |”

मीरा के काव्य में दोहा, कुंडल, शोभन, बरवै, सवैया आदि छंदों का सुंदर प्रयोग मिलता है |

अतः निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि हिंदी साहित्य के भक्तिकालीन काव्य में मीराबाई का एक महत्वपूर्ण स्थान है | उनका भाव पक्ष और कला पक्ष दोनों ही अपने आप में विशिष्टता लिए हुए |

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