आर्द्रता, बादल तथा वर्षण वायुमंडल तथा पृथ्वी पर जल उपलब्धता के विभिन्न माध्यम हैं | इनका विस्तृत वर्णन इस प्रकार है —
आर्द्रता ( Humidity )
वायुमंडल में उपस्थित जलवाष्प को आर्द्रता कहते हैं | वायुमंडल में इसकी मात्रा शून्य से 4% तक पाई जाती है | यह वायुमंडल में तीन रूपों में मिलता है | यह गैसीय अवस्था में जलवाष्प, तरल अवस्था में जल की बूंदों तथा ठोस अवस्था में हिम कणों के रूप में मिलता है | स्थान तथा समय के अनुसार इनकी मात्रा में परिवर्तन आता रहता है |
जब किसी वायु में आर्द्रता सामर्थ्य के बराबर जलवाष्प आ जाए, तो उसे संतृप्त वायु ( Saturated Air ) कहते हैं | यह मात्रा तापमान में वृद्धि के साथ बढ़ती जाती हैं |
जिस न्यूनतम तापमान पर कोई वायु संतृप्त हो जाती है, उस बिंदु को ओसांक बिंदु ( Dew Point ) कहते हैं |
आर्द्रता के प्रकार ( Types of Humidity )
आर्द्रता तीन प्रकार की होती है —
(1) निरपेक्ष आर्द्रता ( Absolute Humidity )
वायु की प्रति इकाई आयतन में विद्यमान जलवाष्प की मात्रा को निरपेक्ष आर्द्रता कहते हैं | इसे ग्राम प्रति घन मीटर में व्यक्त किया जाता है |
(2) विशिष्ट आर्द्रता ( Specific Humidity )
वायु के प्रति इकाई भार में जलवाष्प के भार को विशिष्ट आर्द्रता कहते हैं | इसे ग्राम प्रति किलोग्राम की इकाई में मापा जाता है |
(3) सापेक्ष आर्द्रता ( Relative Humidity )
किसी भी तापमान पर उसी वायु की जलवाष्प धारण करने की क्षमता के अनुपात को सापेक्ष आर्द्रता कहते हैं | इसे प्रतिशत में व्यक्त किया जाता है |
संघनन एवं उसके रूप
जल के गैसीय रूप का जल में रूपांतरण ही संघनन कहलाता है | वायु के जिस तापमान पर जल अपनी गैसीय अवस्था से तरल या ठोस अवस्था में परिवर्तित होता है, उसको ओसांक बिंदु ( Dew Point ) कहते हैं | ओसांक बिंदु पर वायु संतृप्त हो जाती है और उसकी सापेक्ष आर्द्रता 100% हो जाती है |
धूल, धुआं तथा समुद्री नमक के कण अच्छे संघनन केंद्र होते हैं क्योंकि ये जल का अवशोषण करते हैं | इन्हें आर्द्रताग्राही कण कहते हैं |
संघनन दो कारकों पर निर्भर करता है — (1) तापमान में कमी तथा (2) वायु की सापेक्ष आर्द्रता |
संघनन के लिए सर्वाधिक अनुकूल परिस्थिति तापमान में गिरावट के कारण उत्पन्न होती है | वायुमंडल में संघनित जलवाष्प जब संघनन की प्रक्रिया से ओस, पाला, कोहरा, धुंध, हिमपात, ओलावृष्टि एवं मेघ के रूप में परिवर्तित होते हैं तो उसे संघनन के रूप की संज्ञा दी जाती है |
जब ओसांक बिंदु ( Dew Point ) हिमांक बिंदु के नीचे होता है तो पाला, हिमपात, पक्षाभ मेघ ( Cirrus Clouds ) एवं ओला आदि का निर्माण होता है |
(1) ओस ( Dew ) — शीतकाल में रात्रि को जब धरातल उससे लगी हुई वायु से भी अधिक शीतल हो जाता है, तो उसमें निहित वाष्प घनीभूत हो जाती है और वह छोटी-छोटी बूंदों के रूप में धरातल पर जमा हो जाता है | घास-फूस, फूल-पत्तियों तथा भूमि पर एकत्रित जल की इन छोटी-छोटी बूंदों को ओस कहा जाता है |
(2) पाला ( Frost ) — जब वायु का तापमान 32° फॉरेनहाइट अथवा 0° सेंटीग्रेड से भी कम हो जाता है तो वायु में निहित वाष्प जल कणों में न बदलकर हिमकणों में परिणत हो जाता है | इस प्रकार हिम के रूप में जमी हुई ओस को ही पाला कहा जाता है | शीत ऋतु में जब रात्रि लंबी होती है, आकाश स्वच्छ होता है और वायु शांत होती हैं तो पाले की क्रिया अधिक होती है | पाले से पौधों एवं फसलों को बड़ी हानि होती है | उत्तर भारत में शीत काल में अक्सर पाला पड़ता है |
(3) कुहरा ( Fog ) — वायुमंडल की निचली परतो में एकत्रित धूल कण, धुएं के कण तथा संघनित सूक्ष्म जलपिंडों को कुहरा कहा जाता है | कुहरे की दृश्यता लगभग 200 मीटर तक होती है | ज्ञातव्य है कि ओसांक के नीचे वायु का तापमान होने पर कुहरा पड़ता है |
(4) धुंध ( Mist ) — धुंध कुहरे का ही एक रूप है | जब कुहरा घना न होकर हल्का पतला होता है तो उसे धुंध कहते हैं |
(5) हिमपात ( Snowfall ) — जब कभी संघनन क्रिया के समय वायु का तापमान हिमांक बिंदु से काफी नीचे गिर जाता है तो जलवाष्प हिम कणों के रूप में बदल जाते हैं जिससे धरातल पर हिमपात हो जाता है | हिमपात प्रायः ऊंचे पर्वतीय भागों तथा ठंडे प्रदेशों में होता है |
(6) ओलावृष्टि ( Hailstorm ) — कभी-कभी वायुमंडल में सुविकसित कपासी मेघों में तीव्र संवहन धाराएं चला करती हैं | इन संवहन धाराओं के साथ उष्ण एवं आर्द्र वायु भी ऊपरी भागों में पहुंच जाती है | ऐसे संवहन से ऊंचे भाग की आर्द्र पवनों का तापमान हिमांक बिंदु से बहुत नीचे गिर जाता है, इसी कारण उसमें निहित वाष्प हिम कणों में बदल जाता है |
जब इन हिमकणों का रूप काफी बड़ा हो जाता है और संवहन धाराएं इन्हें संभाल नहीं पाती, तो ये नीचे बर्फ के बड़े कणों या ओलों के रूप में गिर पड़ते हैं, इसे ओलावृष्टि ( Hailstorm ) कहा जाता है |
बादल : अर्थ व प्रकार
पृथ्वी की सतह से विभिन्न ऊंचाइयों पर वायुमंडल में जलवाष्प के संघनन के फलस्वरूप निर्मित हिमकणों की राशि को मेघ या बादल ( Clouds ) कहते हैं |
बादल मुख्यतः हवा के रुद्धोष्म प्रक्रिया ( Adiabatic ) द्वारा ठंडे होने पर उसके तापमान के ओसांक से नीचे गिरने से बनते हैं |
संघनन के कारण जलवाष्प धूल के वाष्पग्राही कणों पर द्रव्य के रूप में जम जाते हैं | ज्यों ही ये कण बड़ा रूप धारण करते हैं, वायु से भारी हो जाते हैं और वर्षा के रूप में धरातल पर आ गिरते हैं |
धरातल से ऊंचाई के आधार पर मेघों को चार वर्गों में बांटा जा सकता है —
(1) उच्च मेघ
(2) मध्य मेघ
(3) निम्न मेघ
(4) ऊर्ध्वाधर विकास वाले मेघ |
स्वरूप के आधार पर भी मेघ मुख्य रूप से चार प्रकार के होते हैं —
(1) पक्षाभ मेघ ( Cirrus Clouds )
(2) स्तरीय मेघ ( Stratus Clouds )
(3) कपासी मेघ ( Cumulus Clouds )
(4) वर्षा मेघ ( Nimbus Clouds )
किंतु आकाश में प्राय: इनमें से कई प्रकार के मेघ मिश्रित रूप में पाए जाते हैं | इसलिए अंतरराष्ट्रीय ऋतु विज्ञान परिषद ने मेघों को 10 भागों में विभक्त किया है जिनका वर्णन इस प्रकार है —
(1) पक्षाभ मेघ
वायुमंडल में सबसे अधिक ऊंचाई पर पाए जाने वाले इन मेघों की रचना हिमकणों से होती है | ये अत्यधिक कोमल तथा सफेद रेशम की भांति होते हैं | जब ये मेघ पृथक-पृथक तथा आकाश में अनियमितत क्रम में फैले होते हैं तो इनसे स्वच्छ मौसम की पूर्व सूचना मिलती है किंतु जब ये नियमित क्रम में पक्षाभ स्तरी अथवा स्तरी मध्य मेघों के साथ दिखाई पड़ते हैं तो यह चक्रवात के आगमन की सूचना देते हैं |
(2) पक्षाभ स्तरी मेघ
ये महीन और सफेद चादर के समान संपूर्ण आकाश में छाए रहते हैं | आकाश दूधिया रंग का दिखाई पड़ने लगता है | इन मेघों से दिन में सूर्य और रात्रि में चंद्रमा के चारों ओर प्रभामंडल का निर्माण हो जाता है | चक्रवात के आगमन के क्रम में पक्षाभ मेघों के तुरंत बाद यही मेघ दिखाई देते हैं जो निकट भविष्य में चक्रवात के आगमन की सूचना देते हैं |
(3) पक्षाभ कपासी मेघ
ये मेघ सदैव पंक्तियों अथवा समूहों में होते हैं | इनकी छोटी-छोटी गोलाकार राशियां पायी जाती हैं | ये प्रायः छायाहीन होते हैं |
(4) स्तरी मध्य मेघ
भूरे अथवा नीलाभ रंग के मेघों की मोटी परतें आकाश में छाई रहती हैं | कहीं-कहीं मेघों की पतली परत से सूर्य अथवा चंद्रमा धुंधला दिखाई पड़ता है | इनसे विस्तृत क्षेत्रों पर लगातार वर्षा की संभावना रहती है |
(5) कपासी मध्य मेघ
ये मेघ श्वेत और भूरे रंगों के होते हैं | ये पंक्तिबद्ध या लहरों के रूप में पाए जाते हैं | कभी-कभी संवहन तरंगों अथवा किसी पर्वत पर आरोहण करने वाली वायु धाराओं की लहरों में यत्र-तत्र एकाकी कपासी मध्य मेघ उत्पन्न हो जाते हैं | पर्वत शिखरों पर उत्पन्न ऐसे मेघ पताका मेघ ( Banner Clouds ) कहलाते हैं |
(6) स्तरी कपासी मेघ
गोलाकार राशियों से निर्मित मेघों की निचली और भूरी परतें इस वर्ग में रखी जाती हैं | ये समूह, पंक्तियों अथवा लहरों में दिखाई पड़ते हैं | सामान्यतः ये जाड़े के मौसम में संपूर्ण आकाश को आवृत कर लेते हैं |
(7) स्तरी मेघ
ये धरातल से थोड़ी ऊंचाई पर कोहरे की भांति आकाश को ढँक लेते हैं | प्रायः इनका निर्माण कुहरे की निचली परतों के विसरण अथवा उनके उत्थान के कारण होता है | स्तरी मेघों के शीर्ष भाग से विकिरण द्वारा ऊष्मा के क्षय के कारण इनके ऊपरी वायु की परतों में संघनन होने से इनका विकास ऊपर की ओर होता है | इनके खंडित होने से नीला आकाश दिखाई पड़ता है |
(8) वर्षा स्तरी मेघ
यह एक प्रकार का निम्न मेघ होता है जिसका रंग गहरा भूरा व काला तथा जिसका आधार अविच्छिन्न होता है | इससे लगातार जल वृष्टि अथवा हिम-वृष्टि होती है | कभी-कभी इससे होने वाली वर्षा धरातल तक पहुंचने के पूर्व ही वाष्प बनकर वायुमंडल में विलीन हो जाती है | शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवात के उष्ण वाताग्र पर मोटी परत वाले वर्षा स्तरी मेघों से वर्षा होती है |
(9) कपासी मेघ
कपासी मेघ आकाश में धुनी हुई रुई के ढेर सदृश्य दिखाई देते हैं | इनका ऊर्ध्वाधर विकास अधिक होता है | इनके खंड आकाश में गुंबदाकार रूप में दिखाई पड़ते हैं जिनके शीर्ष भाग फूलगोभी जैसे होते हैं | इनके आधार काले रंग वाले क्षैतिज होते हैं किंतु इनके वे भाग जो सूर्य के प्रकाश से प्रकाशित होते हैं, चमकीले दिखाई पड़ते हैं |
(10) कपासी वर्षा मेघ
ये अत्यधिक लंबवत विकास वाले मेघ होते हैं | इनकी भारी राशियों के शीर्ष भाग पर्वताकार अथवा गुंबदाकार होते हैं | इनकी ऊंचाई आधार से शीर्ष तक कभी-कभी 18 किलोमीटर होती है | इन मेघों से तेज बौछारें पड़ती हैं | प्रबल झंझावात होना भी इन मेघों का एक अन्य लक्षण है |
आगे बढ़ते ऐसे मेघों के अग्रभाग में विक्षोभ के कारण काले रंग वाले खंडित कपासी अथवा खंडित स्तरी मेघ उमड़ते-घुमड़ते घूमते दिखाई पड़ते हैं |
इनमें भयंकर मेघ गर्जन तथा बिजली की चमक होती है | शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवातों में शीत वाताग्रों के सहारे मुख्यतः इन्हीं बादलों से वर्षा होती है |
वर्षा : अर्थ, उत्पत्ति, प्रकार व वितरण
जब वायुमंडल से लदी हुई वायु ऊपर को उठती है तो वह ठंडी हो जाती है | जल वाष्प का संघनन होने से जलकण पैदा होते हैं और वे वायुमंडल में उपस्थित धूल कणों पर एकत्रित होकर वायु में ही तैरने लगते हैं | कुछ समय के पश्चात जल कणों की मात्रा इतनी अधिक हो जाती है कि वायु का अवरोध जल की बूंदों को वायुमंडल में लटकाए रखने में असमर्थ हो जाता है तब धरातल पर जल वर्षा की बूंदों के रूप में आ गिरता है, जिसे वर्षा कहते हैं |
किसी स्थान पर होने वाली वर्षा को निम्नलिखित कारक व्यापक रूप से प्रभावित करते हैं —
(1) वायु में जलवाष्प की मात्रा
(2) समुद्र से दूरी
(3) अक्षांशीय स्थिति
(4) जलवाष्प भरी हवाओं में बाधा अर्थात पर्वत आदि का विस्तार
(5) जलाशयों का विस्तार
(6) वनस्पतियों का आवरण |
वर्षा के प्रकार
धरातल पर सामान्यतः निम्नलिखित दो प्रकार की वर्षा होती है —
(1) संवहनीय वर्षा ( Convectional Rainfall )
जब वायु गर्म हो जाती है तो वह संवहन धाराओं के रूप में ऊपर उठती है और ऊपर उठकर फैल जाती है जिससे इसका तापमान गिर जाता है और वर्षा होती है | इस प्रकार की वर्षा को संवहनीय वर्षा कहते हैं |
(2) पर्वतीय वर्षा ( Mountainous Rainfall )
उष्ण और आर्द्र पवनों के मार्ग में जब कोई पर्वत, पठार अथवा ऊंची पहाड़ियां आ जाती हैं तो पवन को बाध्य होकर ऊपर उठना पड़ता है | ऊपर उठने पर वह ठंडी हो जाती है व वर्षा कर देती है | इस प्रकार की वर्षा को पर्वतीय वर्षा कहा जाता है | इसे मानसूनी वर्षा भी कहते हैं |
यहाँ पर्वतों के पवनाभिमुखी ढालों ( Windward Slope ) पर अधिक वर्षा होती है | किन्तु पवनाविमुखी ढाल ( Leeward Slope ) वर्षा से अछूते रहते हैं | ऐसा इसलिए होता है क्योंकि जब पवनें पर्वतों के दूसरी ओर नीचे उतरती हैं तो शुष्क होती जाती हैं | यह वर्षा विहीन भाग वृष्टि छाया प्रदेश ( Rainshadow Area ) कहलाता है |
वर्षा का वितरण
एक साल में पृथ्वी की सतह पर अलग-अलग भागों में होने वाली वर्षा की मात्रा भिन्न-भिन्न होती है | सामान्यतः जब हम विषुवत वृत्त से ध्रुवों की तरफ जाते हैं, वर्षा की मात्रा धीरे-धीरे घटती जाती है |
विश्व के तटीय क्षेत्रों में महाद्वीपों के भीतरी भागों की अपेक्षा अधिक वर्षा होती है | विश्व के स्थलीय भागों की अपेक्षा महासागरों के ऊपर वर्षा अधिक होती है क्योंकि वहां पानी के स्रोत की अधिकता के कारण वाष्पीकरण की क्रिया लगातार होती रहती है |
विषुवत वृत्त से 35° से 40° उत्तरी एवं दक्षिणी अक्षांशों के मध्य पूर्वी तटों पर बहुत अधिक वर्षा होती हैं तथा पश्चिम की तरफ यह घटती जाती है | लेकिन 45° से 65° उत्तरी एवं दक्षिणी अक्षांश के बीच पछुआ पवनों के कारण सबसे पहले महाद्वीपों के पश्चिमी किनारों पर वर्षा होती है तथा यह पूर्व की तरह घटती जाती है |
जहां भी पहाड़ तट के सामानांतर हैं, वहाँ वर्षा की मात्रा पवनाभिमुख तटीय मैदान में अधिक होती है एवं यह प्रतिपवन दिशा की तरफ घटती जाती है |
तड़ित झंझा
तड़ित झंझा एक तीव्र स्थानीय झंझावात होता है जिसमें विस्तृत तथा घने कपासी वर्षा मेघ होते हैं तथा नीचे से ऊपर की ओर प्रबल हवा चलती है |
बिजली का तेजी से चमकना तथा बादलों की गरज इसकी प्रमुख विशेषताएं हैं परंतु कभी-कभी ओले भी पड़ते हैं |
वर्षा इतनी तेजी से होती है की ऐसा लगता है कि मेघ ही फूट पड़े हों | इसलिए इस वर्षा को ‘मेघ प्रस्फोट’ ( Cloud Burst ) भी कहते हैं | परंतु वर्षा थोड़े समय तक ही होती है |
तड़ित झंझा का संबंध उच्च तापमान, उच्च आर्द्रता तथा अभिसरण से अधिक होने के कारण भूमध्य रेखीय प्रदेश इसके लिए सर्वाधिक आदर्श स्थान होते हैं जहां पर स्थानीय या तापीय झंझावात प्राय: आते रहते हैं |
उच्च अक्षांशों ( 45 डिग्री से 60 डिग्री ) शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवातों के साथ इनका निर्माण होता रहता है परंतु 60 डिग्री से 70 डिग्री अक्षांशों के आगे तड़ित झंझा नहीं आते |
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