औचित्य सिद्धांत : अवधारणा एवं स्थापनाएं

आचार्य क्षेमेंद्र का औचित्य सिद्धांत

औचित्य सिद्धांत भारतीय काव्यशास्त्र सिद्धांतों में सबसे नवीन सिद्धांत है | भारतीय काव्यशास्त्र के अन्य सभी सिद्धांतों के अस्तित्व में आने के पश्चात इस सिद्धांत का आविर्भाव हुआ | दूसरे शब्दों में इसे संस्कृत काव्यशास्त्र का अंतिम सिद्धांत भी कह सकते हैं |

आचार्य क्षेमेंद्र ने औचित्य सिद्धांत का प्रवर्तन किया | यह सिद्धांत आने का दृष्टियों से महत्वपूर्ण है | आचार्य क्षेमेंद्र लिखते हैं —

“औचित्य रससिद्धस्य स्थिरं काव्यस्य जीवितम् |”

अर्थात रससिद्ध काव्य का प्राण औचित्य ही है | उन्होंने काव्य के सभी आवश्यक तत्वों को औचित्य के अंतर्गत ही समाहित कर दिया | उनके साथ-साथ अन्य सभी आचार्यों ने भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से औचित्य के महत्व को स्वीकार किया है | कारण यह है कि काव्य में विभिन्न अंगों- प्रत्यंगों में औचित्य होने पर ही सौंदर्य का सृजन हो सकता है तथा सहृदय रसानुभूति प्राप्त कर सकता है |

औचित्य : अर्थ एवं स्वरूप

औचित्य शब्द का अर्थ है — उचित का भाव कहा | भी गया है — “उचितस्य भाव: औचित्यम्” | ‘उचित’ शब्द ‘उच्’ धातु तथा ‘क्तिच्’ प्रत्यय के योग से बना है | इसका धातुलभ्य अर्थ है — एकत्र किया हुआ अथवा बोला हुआ | इसका कोष गत अर्थ है — योग्य | आचार्य क्षेमेंद्र ने उचित शब्द का अर्थ ‘अनुरूप’ या ‘जचना’ माना है | जो वस्तु जिसके अनुकूल होती है उसे प्राचीन आचार्यों ने उचित कहा है | अतः उचित का भाव ही औचित्य है |

औचित्य संबंधी स्थापनाएं

आचार्य क्षेमेंद्र से पूर्व भरत, आनंदवर्धन, अभिनव गुप्त आदि आचार्यों ने काव्य रचना के संदर्भ में औचित्य के महत्व का प्रतिपादन किया | औचित्य की अवधारणा का समुचित विवेचन करने के कारण आचार्य क्षेमेंद्र को इसके प्रतिपादक के रूप में स्वीकार किया जाता है |

(1) भरत मुनि — आचार्य भरत ने अपने ‘नाट्यशास्त्र’ में कहीं पर भी औचित्य सिद्धांत की चर्चा नहीं की लेकिन व्यवहार में उन्होंने औचित्य पर बल अवश्य दिया | इस पुस्तक में वे कई बार औचित्य तथा अनौचित्य शब्दों का प्रयोग करते हैं | वे काव्य में औचित्य बनाए रखने के लिए अनौचित्य से बचने की प्रेरणा देते हैं | वे तो लोक को ही प्रत्येक बात का प्रमाण मानते हुए कहते हैं —

“लोक सिद्ध बात ही नाटक में सिद्ध मानी जाती है | नाट्यशास्त्र का उद्देश्य लोक के अनुकरण नाटक से हुआ करता है | अतः नाट्य प्रयोग में लोक प्रमाण है |”

आचार्य भरत अनेक स्थान पर औचित्य की ओर संकेत करते हैं | उनके अनुसार आयु के अनुसार वेश, वेश के अनुसार गति तथा गति के अनुसार पाठ्य और पाठ्य के अनुसार अभिनय होना चाहिए |

वयः अनुरूप: प्रथमस्तु वेश: वेश: अनुरूपश्च गति प्रसार: |

गति-प्रसारानुगतं च पाठ्यं पाठ्यानुरूपोsभिनयश्चकार्य: ||

आचार्य भरत यहां तक कहते हैं कि यदि उपरोक्त नियमों के अनुसार नाट्य नहीं हुआ तो उसमें दोष उत्पन्न हो जाता है | दोष उत्पन्न होने से रस सिद्धि में बाधा उत्पन्न होती है और परिणामस्वरूप काव्य या नाट्य रचना का प्रयास व्यर्थ चला जाता है |

आचार्य भरत कहते हैं —

“अदेशजो हि वेशस्तु न शोभा जनयिष्यति |

मेखलोरसि बन्धे तु हास्यायेव प्रजायते ||”

अर्थात जिस देश का जो वेश है और जिस अंग का जो आभूषण है उससे भिन्न स्थान या अंग पर धारण करने पर शोभा उत्पन्न नहीं होती |

(2) भामह — अलंकारवादी आचार्य भामह ने भी स्पष्ट कहा है कि जिन बातों को काव्य दोष कहा जाता है यदि काव्यादि में उनका औचित्यपूर्ण प्रयोग किया जाए तो वे दोष ने बनकर गुण बन जाया करते हैं | एक स्थान पर वे कहते हैं कि विशेष सन्निवेश अर्थात औचित्यपूर्ण विधान होने पर दोषपूर्ण उक्ति भी उसी प्रकार शोभाजनक हो जाती है जिस प्रकार माला के बीच में रखा हुआ नील पलाश |

इसी बात को स्पष्ट करते हुए कोई अन्य उदाहरण में वे कहते हैं कि सुंदर नारी के नेत्रों में काजल भी शोभित होता है —

“कान्ता विलोचनन्यस्तं मलीमसमिवांजनम्”

(3) दण्डी — आचार्य दंडी ने औचित्य के स्थान पर ‘दोष-परिहार’ शब्द का प्रयोग किया है | ‘दोष-परिहार’ का कारण कवि कौशल है | अनुचित संयोग से दोष उत्पन्न होते हैं | दंडी ने स्पष्ट कहा है —

“विरोध: सकलोsप्येष कदाचित् कवि कौशलात |

उत्क्रम्य दोषगणनां गुण वीथी विगाहते ||”

अर्थात कवि कौशल के सन्निवेश से दोष भी अपना मार्ग छोड़कर गुणों का मार्ग ग्रहण कर लेते हैं |

(4) यशोवर्मन — यशोवर्मन ने अपने नाटक ‘रामाभ्युदय’ में पात्रों की आयु, जाति तथा प्रकृति के अनुरूप वाणी का व्यवहार अवसरोचित्त रस पुष्टि तथा बाधाहीन कथा के प्रयोग की चर्चा की है | यशोवर्मन ने वचन, रस, कथन तथा शब्दों के औचित्य की चर्चा की है | उन्होंने पहली बार ‘औचित्य’ शब्द का स्पष्ट उल्लेख किया |

(5) भोज — आचार्य भोज ने ‘श्रृंगार प्रकाश’ में औचित्य पर प्रकाश डाला है | भोज ने नाटक के तीन गुण स्वीकार किए गए हैं – वचनौचित्य, पात्रौचित्य तथा भावौचित्य |

(6) उद्भट — इन्होंने उर्जस्वि अलंकार के निरूपण में औचित्य का उल्लेख किया है | उनका भाव यह है कि अनौचित्यपूर्ण रस-भाव आदि के प्रयोग में उर्जस्वि एवं उसके औचित्यपूर्ण बोध में रस, भाव की स्थिति होती है |

(7) रुद्रट — संस्कृत काव्यशास्त्र में रूद्रट पहले आचार्य हैं जिन्होंने यशोवर्मन के पश्चात ‘औचित्य’ शब्द का स्पष्ट प्रयोग किया | उन्होंने अपनी रचना ‘काव्यालंकार’ के प्रथम अध्याय में छन्दौचित्य, द्वितीय में रीति तथा वृत्ति औचित्य, तृतीय में अलंकारौचित्य, षष्ठ में वक्ता तथा विषय संबंधी औचित्य तथा एकादश अध्याय में जाति, वंश विय, विद्या, वित्त, देश-स्थान तथा पात्रादि के औचित्य के बारे में चर्चा की है | इससे क्षेमेन्द्र के औचित्य सिद्धांत को बल मिलता है |

(8) आनंदवर्धन — यशोवर्मन तथा रूद्रट के पश्चात आनंदवर्धन ने भी ‘औचित्य’ शब्द का स्पष्ट उल्लेख किया | उन्होंने काव्य के सभी तत्त्वों अलंकार, रीति, वृत्ति तथा गुण आदि की उपयोगिता रसाभिव्यक्ति में सहायक होने में स्वीकार की | साथ ही औचित्य को रसाभिव्यक्ति का आधार माना | उनका तो स्पष्ट कहना था कि काव्य में रस-भंग का एकमात्र कारण अनौचित्य ही है और औचित्य का अनुसरण ही रस का परम रहस्य है | इससे भी औचित्य सिद्धांत की उपयोगिता सिद्ध होती है परंतु आनंदवर्धन औचित्य सिद्धांत पूर्ण समर्थन नहीं करते | वे औचित्य को काव्य की आत्मा नहीं मानते |

आनंदवर्धन ध्वनि संप्रदाय के प्रतिपादक हैं | वे ध्वनि को काव्य की आत्मा मानते थे लेकिन उन्होंने यह स्वीकार किया कि रस और ध्वनि में पारस्परिक संबंध स्थापित करने वाला औचित्य ही है |

आचार्य क्षेमेंद्र की औचित्य संबंधी अवधारणा

आचार्य क्षेमेंद्र ने औचित्य सिद्धांत का विवेचन करते हुए कहा कि जो पदार्थ जिसके सदृश्य अथवा अनुरूप होता है, उसे प्राचीन आचार्यों ने उचित कहा है ; इसी उचित को विद्वानों ने औचित्य कहा है और यही काव्य का जीवन है —

”उचितं प्राहुराचार्या: सदृशं किल यस्य यत् |

उचितस्य च यो भाव: तदौचित्यं प्रचक्षते ||”

क्षेमेंद्र ने स्पष्ट रूप से कहा कि सुंदर शब्दार्थ रूप काव्य के उपमा आदि अलंकार बाहरी शोभा को बढ़ाने वाले हैं | अतः यह कटक, कुंडल, केयूर और हार आदि के समान है | माधुर्य, ओज आदि गुण सत्यशील आदि के समान आहार्य गुण हैं | काव्य का अनश्वर जीवन तो औचित्य ही है | उस औचित्य के बिना अलंकार, गुणयुक्त काव्य निर्जीव ही है |

क्षेमेंद्र ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘औचित्य विचार चर्चा’ में औचित्य का विस्तृत एवं व्यापक वर्णन किया है | अपने पूर्ववर्ती आचार्यों की अपेक्षा उन्होंने औचित्य को काव्य का सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्त्व स्वीकार किया | यही कारण है कि उन्हें औचित्य सिद्धांत का प्रतिष्ठापक कहा जाता है |

क्षेमेंद्र की अधिकांश स्थापनाएँ आचार्य आनंदवर्धन और अभिनवगुप्त से मिलती हैं फिर भी अचार्य क्षेमेंद्र को ही इस सिद्धांत का सर्वाधिक विकास करने का श्रेय दिया जाता है | उन्होंने औचित्य की एक सही परिभाषा देकर उसके भेद-उपभेद बताए |

वे औचित्य की स्थिति दो रूपों में मानते हैं — ( क ) भावात्मक तथा ( ख ) अभावात्मक |

(क ) काव्य में साधनों का उचित प्रयोग भावात्मक स्थिति है | इसे उचित का भाव कहा जा सकता है |

(ख ) काव्य में साधनों के अनुचित प्रयोग का निषेध अभावात्मक है | दूसरे शब्दों में इसे अनुचित का अभाव कहा जा सकता है |

साहित्य में अलंकारों और गुणों की शोभा उनके उचित प्रयोग में ही विद्यमान है | यथा —

“कंठे मेखलया नितम्ब फलके तारेण हारेण वा |

पाणौ नूपुरबंधेन, चरेण केयूर पाशेन वा |

शौर्येण प्रणते रिपौ करुणया नायान्ति किं हास्याताम्

औचित्येन बिना रुचिं प्रतुनते नालंकृतिनो गुणा: ||”

अर्थात किसी सुंदरी के गले में मेखला, नितंबों पर हार, हाथों में नूपुर और पांवों में केयूर जैसे आभूषण हास्य ही उत्पन्न करेंगे | इसी प्रकार से शरण में आए किसी व्यक्ति पर वीरता दिखाना या दंड देना, शत्रु पर करुणा करना सर्वथा अनुचित है और ऐसा करने वाला व्यक्ति लोगों के उपहास का पात्र और निंदनीय होगा |

आचार्य क्षेमेंद्र ने बताया कि काव्य में चमत्कार और चारुता उत्पन्न करने का प्रमुख कार्य औचित्य का है | उन्होंने रस की उत्पत्ति का कारण भी औचित्य को ही बताया | वह रस और औचित्य का सम्बन्ध आत्मा और जीव का संबंध मानते हैं | सच्चाई तो यह है कि रस और औचित्य एक दूसरे पर निर्भर हैं | औचित्य के बिना रस की प्रतीति नहीं होती | इसी प्रकार बिना रस के औचित्य की स्थिति नहीं है |

औचित्य के भेद-उपभेद

आचार्य क्षेमेंद्र ने अपनी रचना ‘औचित्य विचार चर्चा’ में 27 प्रकार के औचित्य बताएं हैं | इनमें से 6 आनंद वर्धन के बताए हुए हैं और 21 प्रकार के अन्य उदाहरणों की उदभावना क्षेमेन्द्र ने की है |

‘औचित्य विचार चर्चा’ में क्षेमेन्द्र द्वारा बताए गए कुछ प्रमुख औचित्य भेद निम्नलिखित हैं —

(1) पदौचित्य — जिस प्रकार कस्तूरी धारण की हुई चंद्रमुखी तथा चंदन चर्चित श्यामा सुंदर दिखाई देती है उसी प्रकार एक उचित पदयुक्त सूक्ति सौंदर्यपूर्ण हो जाती है |

(2) वाक्यौचित्य — औचित्य से युक्त वाक्य, त्याग से उन्नत ऐश्वर्य तथा शील से उज्ज्वल प्रसिद्धि के समान प्रशंसनीय है |

(3) प्रबंधौचित्य — यदि संपूर्ण प्रबंध का अर्थ अनुरूप हो तो वह सहृदयों के चित्त को आकर्षित करने वाला तथा चमत्कार उत्पन्न करने में समर्थ होता है | तुलसीकृत ‘रामचरितमानस‘ तथा केशवदास कृत ‘रामचंद्रिका‘ प्रबंधौचित्य के सुंदर उदाहरण हैं |

(4) गुणौचित्य — क्षेमेंद्र का कहना है कि काव्य में गुणों का समावेश अर्थ पर दृष्टि रखकर करना चाहिए | इस दृष्टि से वीर उक्ति में ओज तथा विप्रलम्भ श्रृंगार में माधुर्य गुण का समावेश आवश्यक है |

(5) अलंकारौचित्य — प्रस्तुत अर्थ के अनुकूल विभिन्न अलंकारों का प्रयोग ही अलंकारौचित्य कहलाता है | अलंकारों के प्रयोग से काव्य में लावण्य तथा रस का पोषण होना चाहिए |

(6) रसौचित्य — औचित्य से प्रदीप्त रस सभी सहृदयों के हृदयों में व्याप्त होकर उनको ऐसे प्रसन्न करता है जैसे वसंत अशोक को अंकुरित करता है |

(7) तत्त्वौचित्य — क्षेमेंद्र के अनुसार तत्त्व के उचित कथन से काव्य निश्चित विश्वास के साथ हृदयग्राही व उपयोगी हो जाता है और सहृदयों को अपनी ओर आकर्षित करता है |

(8) स्वभावौचित्य — इसे क्षेमेंद्र ने सुंदरियों का स्वाभाविक तथा अद्वितीय सौंदर्य बताया है | यह कवियों की सूक्तियों का श्रेष्ठ अलंकार है |

(9) प्रतिभा-औचित्य — कवि प्रतिभा को आचार्य क्षेमेंद्र ने विशेष महत्व दिया है | उनका स्पष्ट कहना है कि प्रतिभा-संपन्न कार्य लक्ष्मी से सुशोभित, गुणवान पुरुष के निर्मल कुल के समान शोभा पाता है |

(10) सत्त्वौचित्य — क्षेमेंद्र का कहना है कि कृति का सत्व गुणौचित कथन इस प्रकार चमत्कारजनक होता है जैसे सुबुद्धि अनुमोदित श्रेष्ठ उदार चरित्र होता है |

(11) संघटनौचित्य — पदों की सुव्यवस्थित रचना ही संघटना कहलाती है | यह संघटना गुणों पर आश्रित है तथा रसाभिव्यक्ति में सहायक है |

(12) नामौचित्य — काव्य तथा लोकव्यवहार में नाम का विशेष महत्व होता है | नाम से ही व्यक्ति के गुणों का आभास हो जाता है कवि को अपनी काव्य रचना में नामों का उचित प्रयोग करना चाहिए |

(13) लिंगौचित्य — संस्कृत में तीन लिंग होते हैं परंतु हिंदी में केवल दो लिंग होते हैं | कवि प्रसंगानुसार स्वाभाविक अर्थ की दृष्टि से विशेष लिंग का प्रयोग करता है | लिंग का उचित प्रयोग ही लिंगौचित्य कहलाता है |

(14) वृत्तौचित्य — इसका अर्थ है कि किस विषय अथवा रस के लिए कौन सा वृत्त अथवा छंद उपयुक्त है | आचार्य क्षेमेंद्र ने प्राकृत अर्थ और रसोचित अर्थ के प्रयोग पर बल दिया है | यहीं वृत्तौचित्य कहलाता है |

औचित्य का महत्व

काव्य में औचित्य का विशेष महत्व है | औचित्य का निर्वाह काव्य को सुंदर बनाता है | यद्यपि क्षेमेंद्र ने औचित्य को काव्य की आत्मा घोषित किया लेकिन साथ ही काव्य को रससिद्ध की संज्ञा भी दे डाली | इसका अर्थ यह है कि वे काव्य में रस को भी आवश्यक मानते हैं | फिर औचित्य को काव्य आत्मा कैसे कहा जा सकता है? क्षेमेंद्र का यह कहना भी अधिकार तर्कसंगत नहीं है कि औचित्य रस जीवित है | औचित्य मूलत: विशेषण है और यह विशेष्य का नियामक है | इस प्रकार यह कार्य का कारक तत्त्व माना जाता है | अभिनवगुप्त ने स्पष्ट रूप से औचित्य का रस-ध्वनि औचित्य अर्थ दिया है और रस-ध्वनि के अभाव में औचित्य के महत्व को स्वीकार नहीं किया |

फिर भी औचित्य का क्षेत्र व्यापक है | काव्य जगत में कवि प्रतिभा नवीन उद्भावनाओं, विधाओं और शैलियों के नवीन प्रयोग करती रही है, उस समय औचित्य ही नए प्रयोगों का नियामक होता है |

उपर्युक्त विवेचन से यह स्वत: ही स्पष्ट हो जाता है कि औचित्य का काव्य रचना में विशेष महत्व है | यदि कोई कवि औचित्य का समुचित पालन नहीं करता तो उसकी काव्य-रचना पाठकों को रसानुभूति प्रदान नहीं कर सकेगी | डॉक्टर सत्यदेव चौधरी का मत है कि काव्य में गुण, अलंकार, रस आदि सभी 27 काव्य-तत्त्वों का प्रयोग औचित्यपूर्ण होना चाहिए |

यह भी देखें

रस सिद्धांत ( Ras Siddhant )

सहृदय की अवधारणा ( Sahridya Ki Avdharna )

ध्वनि सिद्धांत ( Dhvani Siddhant )

वक्रोक्ति सिद्धांत : स्वरूप व अवधारणा ( Vakrokti Siddhant : Swaroop V Avdharna )

रीति सिद्धांत : अवधारणा एवं स्थापनाएँ (Reeti Siddhant : Avdharana Evam Sthapnayen )

अलंकार सिद्धांत : अवधारणा एवं प्रमुख स्थापनाएँ ( Alankar Siddhant : Avdharna Evam Pramukh Sthapnayen )

काव्यात्मा संबंधी विचार

21 thoughts on “औचित्य सिद्धांत : अवधारणा एवं स्थापनाएं”

  1. सर काव्यशास्त्रर मैं समीक्षा पद्धतियां करवा दो
    1शास्त्रीय आलोचनात्मक
    2Vayktiwadi
    3Sodhryshstriy
    4प्रभाववादी
    5Mnovisleshnwadi
    6शैली वैज्ञानिक
    7समाजशास्त्रीय

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