वेदों व अन्य प्राचीन धार्मिक ग्रंथों में आत्मा शब्द का प्रयोग श्वास, प्राण, जीवन, परमात्मा आदि अनेक अर्थों में प्रयुक्त हुआ है| विभिन्न दार्शनिकों का विचार है कि यह आत्मा परमात्मा का एक अंश है। अतः आत्मा और परमात्मा में अंश-पूर्ण का सम्बन्ध है। मानव शरीर इसी आत्मा के कारण जीवित है। काव्यशास्त्र में काव्यात्मा का अर्थ काव्य का वह मूल तत्त्व है जिसके होने पर काव्य का अस्तित्व होता है। इस मूल तत्त्व की सत्ता के बिना काव्य को काव्य नहीं कह सकते।
वस्तुत: काव्य का मूल तत्त्व आलौकिक अह्लाद है। यह एक ऐसा तत्त्व है जो सही अर्थों में काव्य को काव्यत्व प्रदान करता है और यही तत्त्व काव्य को अन्य रचनाओं से अलग करता है। काव्य शास्त्रियों ने इस विषय पर गहन मंथन किया है कि काव्य के सौन्दर्य का आधार क्या है।लम्बे समय तक इस पर विचार मंथन चलता रहा और काव्यशास्त्रियों ने इसके बारे में अलग-अलग विचार उत्पन्न किए।
इस सन्दर्भ में भारतीय काव्य शास्त्र के छः सम्प्रदायों अथवा सिद्धान्तों ने अपने-अपने मत व्यक्त किए हैं। काव्य की आत्मा के बारे में विवेचन करते हुए डॉ. त्रिलोकी चन्द श्रीवास्तव’ ने लिखा है–
“काव्य का वह प्राण-तत्व जिसके कारण काव्य में चैतन्य, सौन्दर्य, लावण्य या यूं कहा जाए कि ‘पद’ को काव्यत्व प्राप्त होता है और जिसके अभाव में भाषा, शैली, विचार आदि के सभी गुण होने पर भी वह निर्जीव सा प्रतीत होता है-काव्य की आत्मा कहा जा सकता है। इसे काव्य का मुख्य तत्त्व, मूलाधार और मूल कारण भी स्वीकार किया गया है।”
भारतीय काव्यशास्त्र में काव्यात्मा संबंधी जो सिद्धान्त एवं सम्प्रदाय प्रचलित हैं उनके नाम इस प्रकार हैं —
(1) रस-सम्प्रदाय — भरत इस सम्प्रदाय के प्रवर्तक हैं। आगे चलकर भट्ट नायक, आचार्य विश्वनाथ, प. राज जगन्नाथ ने इसका समर्थन किया |
(2) अलंकार-सम्प्रदाय — भामह ने इस सम्प्रदाय का प्रवर्तन किया तथा दण्डी तथा रूद्रक ने इसका समर्थन किया |
(3) रीति-सिद्धान्त — वामन ने इस सिद्धान्त का प्रवर्तन किया, पर किसी भी अन्य आचार्य ने इसका समर्थन नहीं किया।
(4) ध्वनि-सम्प्रदाय — आनंदवर्धन ने इस सम्प्रदाय का प्रवर्तन किया तथा अभिनवगुप्त , मम्मट आदि ने इसका समर्थन किया |
(5) वक्रोक्ति सिद्धांत — कुंतक ने इस सम्प्रदाय का प्रवर्तन किया।
(6) औचित्य-सिद्धांत — क्षेमेन्द्र ने इस सिद्धान्त का प्रवर्तन किया।
ऊपर के छः सम्प्रदायों में रस, ध्वनि तथा औचित्य का सम्बन्ध काव्य की अनुभूति (विषय) पक्ष से है परन्तु अलंकार, रीति तथा वक्रोक्ति का सम्बन्ध अभिव्यक्ति ( शैली) पक्ष से है। काव्य शास्त्र में आत्मा शब्द का प्रयोग रीति सिद्धान्त के प्रर्वतक वामन ने किया। उन्हाने रीति को काव्यात्मा कहा | तत्पश्चात् आनदवर्धन ने ध्वनि को काव्य की आत्मा कहा | आचार्य कुंतक ने वक्रोक्ति को काव्यात्मा माना और आत्मा के स्थान पर ‘जीवित‘ शब्द का प्रयोग किया | आचार्य विश्वनाथ ने ‘रसात्मकम् वाक्यं काव्यम्’ कहकर रस को काव्य की आत्मा घोषित किया |
राज शेखर ने सबसे पहले काव्य-पुरुष के रूपक का उल्लेख किया तथा आचार्य विश्वनाथ ने उसका विस्तारपूर्वक वर्णन किया —
“काव्यस्य शब्दार्थो” शरीर, रसादिश्चात्मक गुणः शौर्या दिवत् दोषाः काणत्वादिवत् रीतिऽवयवर्सस्थान विशेषतम् अलंकाराः कटककुण्डलादिवत् इति।”
अर्थात् काव्य रूपी पुरुष के शब्दार्थ शरीर है, रसादि आत्मा है, शौर्यादि गुण, काणत्वादि दोष है, रीति आदि उसके अवयव हैं और कटक, कुण्डल आदि के समान सौन्दर्य प्रसाद के आभूषण अलंकार है।
काव्यात्मा के विवेचन करने से पूर्व हमें विभिन्न सम्प्रदायों पर समुचित प्रकाश डालना होगा —
(1) अलंकार सम्प्रदाय
यद्यपि भामह से पहले कुछ विद्वानों ने शब्दलंकारों को महत्त्व दिया तो कुछ ने अर्थालंकारों को। इससे ये बात स्पष्ट हो जाती है कि भामह से पहले ही अलंकारों के महत्त्व की प्रतिष्ठा स्थापित हो चुकी थी परन्तु आज भामह को अलंकार सिद्धान्त का प्रवर्तक माना जाता है। भामह ने अपनी पुस्तक ‘काव्यालंकार‘ में यद्यपि ‘आत्मा’ शब्द का कहीं उल्लेख नहीं किया परन्तु उन्होंने काव्य में चारुता का कारण अलंकार को माना।
आगे चलकर दण्डी ने अलंकार का सौन्दर्यपरक तत्त्व के रूप में व्यापक अर्थ में प्रयोग किया तथा ध्वनि तथा गुणों को भी अलंकारों में समविष्ट कर लिया। परन्तु दण्डी ने भी आत्मा शब्द का प्रयोग नहीं किया। उन्होंने अलंकार को काव्य के अनिवार्य तत्त्व के रूप में ग्रहण किया। यही नहीं दण्डी ने काव्य हेतु का वर्णन करते समय दोषों को असार और अलंकारों को सार कहा ।
रूद्रक ने रस को रसवत् अलंकार के अर्न्तगत न रख कर उसे अलंकार से पृथक कर दिया। आगे चलकर जब रीति, ध्वनि अलंकारों की स्थापना हुई | तब मम्मट ने अलंकारहीन रचना को भी काव्य माना, तब जयदेव ने क्षुब्ध होकर कहा कि अलंकार रहित रचना को काव्य मानना ऐसा है जैसे अग्नि को ऊष्णता रहित मानना । इसी प्रकार प्रति हारेन्दुराज ने काव्य में अलंकार को सर्वाधिक महत्त्व दिया परन्तु किसी भी अलंकारवादी आचार्य ने अलंकार को काव्य की आत्मा नहीं कहा। सभी अलंकारवादी आचार्यों ने काव्य में सौंदर्य का प्रमुख कारक अलंकार को माना | यही कारण है कि आगे चलकर अलंकार को काव्य के सौन्दर्य का प्रतिष्ठायक माना गया।
(2) रीति सिद्धांत
रीति-सिद्धान्त के प्रवर्तक वामन हैं | इन्होंने ही सर्वप्रथम रीति को काव्य का मूल तत्त्व माना | उन्होंने घोषणा की —
“रीतिरात्मा काव्यस्य।”
रीति की परिभाषा देते हुए उन्होंने कहा कि ‘विशिष्ट पद रचना ही रीति है।’
पद रचना की यह विशिष्टता गुणों पर आश्रित है। वामन ने दो प्रकार के गुण माने हैं। शब्द गुण, अर्थ गुण। यही नहीं उन्होंने शब्द गुणों के दस भेद तथा अर्थ गुणों के दस भेद गिनवाए। उनका कहना था कि इन दस शब्द गुणों तथा अर्थ गुणों से युक्त रीति ही काव्य की आत्मा
है।
वामन से पहले रीति के दो भेद थे-वैदर्भी तथा गौड़ीय। वामन ने इन दोनों के बीच ‘पांचाली’ नामक एक तीसरी रीति की उद्भावना की। इन तीनों में वैदर्भी को श्रेष्ठ माना गया है क्योंकि यह सर्वगुण रहित तथा दोष रहित तथा पद रहित मानी गई है।
वामन अलंकार से अत्यधिक प्रभावित थे। रीति को काव्यात्मा कहकर वे न तो वे अलंकारों का गुणों में अन्तर्भाव कर सके न ही इन्हें रीति के पोषक रूप में स्वीकार कर सके। परन्तु वामन ने इन अलंकारों को गुणाश्रित माना है। वामन के अनुसार काव्य के मूल तत्व गुण हैं और अलंकार गुणों के कारण उत्पन्न शोभा को बढ़ाने वाले हैं।
इस प्रकार वामन के रीति-सिद्धान्त से स्पष्ट हो गया कि गुण आत्मा के धर्म है और अलंकार शरीर के धर्म हैं। वामन के समय तक काव्य सौन्दर्य के दो तत्त्वों-अलंकारों तथा गुणों का विवेचन हुआ। वामन की प्रमुख देन है कि एक तो उन्होंने ‘काव्य की आत्मा’ शब्द का उल्लेख किया और दूसरा काव्य सौंदर्य को गुणों पर आश्रित माना |
(3) ध्वनि सम्प्रदाय
भारतीय काव्यशास्त्र का तीसरा महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त – ध्वनि सिद्धांत है | इसके प्रवतक आचार्य आनन्दवर्धन थे | यद्यपि उन्होंने रस, ध्वनि तथा औचित्य, तीनों सिद्धांतों का विवेचन किया परंतु उन्हें ध्वनि सिद्धांत का प्रवर्त्तक माना जाता है | आनंदवर्धन ने अर्थ के वाच्यार्थ छोड़कर व्यंग्यार्थ बन जाने को ध्वनि कहा है |
उनका कहना है कि जिस प्रकार सुन्दरियों के अंगों में लावण्य की सत्ता होती है। उसी प्रकार महाकवियों की वाणी में ध्वनि की सत्ता होती है।
आनंदवर्धन ने ध्वनि द्वारा प्राप्त प्रतीयमान अर्थ के तीन भेद किये — वस्तु ध्वनि , अलंकार ध्वनि तथा रस ध्वनि | इस प्रकार आनंदवर्धन ने काव्य के चमत्कार को ध्वनि पर आश्रित माना |
वे कहते हैं — “ऐसा कोई काव्य भेद सम्भव नहीं हो रसादि का विषय न हो। रस अनुभूति मूलक और अनुभूति चित्तवृत्ति है, संसार की कोई ऐसी वस्तु नहीं है जो चितवृत्ति उत्पन्न न करे। चित्तवृति ही प्रमाण
कहलाती है।”
आनंदवर्धन ने अलंकार को व्यंजना का विषय मानकर ध्वनि में मिला लिया और रीति को भी ध्वनि के अन्तर्गत मिला लिया। आनंदवर्धन के पश्चात अभिनवगुप्त ने भी ध्वनि पर समुचित प्रकाश डाला।
ध्वनि सिद्धान्त की उपयोगिता इस अर्थ में है कि वह काव्य का एक महत्त्वपूर्ण अन्तरंग भाव है जो रसानुभूति में अत्यधिक सहायक होता है परन्तु फिर भी उसे काव्य की आत्मा नहीं माना जा सकता।
(4) वक्रोक्ति सम्प्रदाय
इस सिद्धान्त की पवर्तक आचार्य कुंतक हैं | इस समय तक आते-आते अलंकारों का महत्त्व लगभग समाप्त हो चुका था। कुंतक ने अलंकार सिद्धान्त को पुनः प्रतिष्ठा प्रदान करने की असफल चेष्टा की। कुंतक से पूर्व आचार्य वामन रीति को काव्य की आत्मा कह चुके थे और आनंदवर्धन ध्वनि को। परन्तु कुंतक ने काव्य की जीवित (आत्मा) वक्रोक्ति को माना और कहा कि कवि कर्म, कौशल से उत्पन्न वैचित्र्यपूर्ण कथन वक्रोक्ति है | अथवा जो काव्य तत्त्व किसी कथन में लोकोत्तर चमत्कार उत्पन्न कर देता है, उसे वक्रोक्ति कहते हैं |
कुंतक के अनुसार कवित्व केवल शब्द में नहीं होता न ही केवल अर्थ में होता है बल्कि कवित्व शब्द और अर्थ के सामंजस्य में होता है। कवि अपनी प्रतिभा के बल पर काव्य का एक-दूसरे के साथ विन्यास करता है।
कुंतक से पूर्व भामह ने कहा था कि अलंकार अगर काव्य का प्राण है तो वक्रोक्ति अलंकारों का प्राण है। यद्यपि कुंतक ने वक्रोक्ति के भेदोपभेद बनाकर इसे एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त बनाने का प्रयास किया परन्तु कलांतर में वक्रोक्ति मात्र अलंकार बन कर रह गया। जिसे किसी भी स्थिति में काव्य की आत्मा नहीं कहा जा सकता।
(5) औचित्य सिद्धान्त
औचित्य की चर्चा आनंदवर्धन पहले ही कर चुके थे परन्तु उसे एक सिद्धांत की प्रतिष्ठा देने का श्रेय आचार्य क्षेमेन्द्र को जाता है। आचार्य क्षेमेन्द्र का कहना है —
“औचित्य रस सिद्ध काव्य का स्थाई प्राण अथवा मूल तत्त्व है।”
औचित्य से उनका अभिप्राय है – उचित का भाव अर्थात् अनुरूप वस्तुओं के भाव को औचित्य कहते हैं। इससे काव्य में रमणीयता उत्पन्न होती है। वे लिखते भी हैं —
“औचित्यम् रससिद्धहस्य स्थिरम् काव्यस्य जीवितम् ।”
इसका अर्थ यह हुआ कि काव्य का मूल तत्त्व रस सिद्ध होना है तथा उसके लिए रस का निर्वाह अत्यन्त आवश्यक है।
औचित्य सिद्धान्त से यह स्वतः स्पष्ट हो जाता है कि काव्य का मूल तत्त्व रस है ; औचित्य तो मात्र उसका उपकारक है। अतः औचित्य रस सिद्धि के लिए एक अनिवार्य हेतु के लिए ग्रहण किया जा सकता है | उसे काव्य की आत्मा कदापि नहीं कहा जा सकता।
इस सन्दर्भ में डॉ. श्रीकृष्ण देव शर्मा ने ठीक ही लिखा है —
“ध्यान देने की बात यह है कि आत्मा उसे ही कहा जाएगा जो स्वयं में पूर्ण हो तथा जिसे किसी की आवश्यकता न हो। औचित्य तो एक विशेषण है जो काव्य के दूसरे उपकरणों के आधार पर खड़ा है। औचित्य सिद्धांत को काव्य की आत्मा नहीं माना जा सकता यद्यपि इसकी महत्ता पर किसी को कोई संदेह नहीं है |”
(6) रस-सिद्धान्त
इस सम्प्रदाय के साथ आचार्य विश्वनाथ, भट्टनायक, पं. राज जगन्नाथ, राजशेखर आदि असंख्य विद्वानों के नाम जुड़े हैं। भरतमुनि रस सम्प्रदाय के प्रथम आचार्य हैं। उन्होंने अपनी रचना ‘नाट्यशास्त्र में रस की मान्यता को स्वीकार किया। उस समय तक नाटक और काव्य में कोई अन्तर नहीं था। उन्होंने कहा कि अर्थतत्व रस पर ही आधारित है।
रस निष्पत्ती का उनका सूत्र है —
“विभावानुभाव व्यभिचारिसंयोगाद् रसनिष्पत्ति: |”
अर्थात् स्थाई भाव, विभाव, अनुभाव और संचारी के संयोग से रस की निष्पत्ति तथा उत्पत्ति होती है।
भरत मुनि के बाद काव्य में रस तत्त्व को सर्वाधिक महत्त्व दिया जाने लगा | अधिकांश आचार्यों ने रस को काव्यात्मा घोषित किया |
भामह, दण्डी,उदभट्ट आदि अलंकारवादियों ने अलंकार को काव्य में महत्त्वपूर्ण माना है। परन्तु उन्होंने काव्य में रस को ही आवश्यक तत्त्व बताया।
ध्वनिवादी आचार्यों में अभिवनगुप्त तथा मम्मट ने रस को ध्वनि का सर्वोत्कृष्ठ रूप कहा। वक्रोक्तिवादी कुंतक ने रस को अलंकार से पृथक कर दिया तथा रसवत् अलंकार को सभी अलंकारों का जीवित माना। उन्होंने स्पष्ट कहा कि काव्य में वाग्वैदग्ध्य का महत्त्व अवश्य है। परन्तु काव्य की आत्मा रस ही है। अग्निपुराणकार ने भी रस को काव्य की आत्मा कहा। राजशेखर ने स्पष्ट रूप से ही रस को काव्य की आत्मा घोषित किया — “शब्दार्थों ते शरीरं रस आत्मा।”
आगे चलकर आचार्य विश्वनाथ ने अपनी रचना ‘साहित्य दर्पण’ में रस की विस्तारपूर्वक चर्चा की। उन्होंने काव्यपुरुष का रूपक प्रस्तुत करते हुए रस को काव्य की आत्मा कहा। उनके अनुसार —
“शब्द और अर्थ काव्य के शरीर हैं, रस उसकी आत्मा है |”
इसी प्रकार पं. राज जगन्नाथ ने भी रस को काव्य की आत्मा घोषित किया। उनका कथन है — “शब्दार्थों ते शरीर रस आत्मा।”
रीतिकीन आचार्यों का मत
रीतिकालीन आचार्यों में आचार्य केशवदास ने काव्य में अलंकारों को
अत्यधिक महत्त्व प्रदान किया। उन्होंने भले ही ‘आत्मा‘ शब्द का प्रयोग नहीं किया फिर भी अलंकारों को काव्य की आत्मा माना। श्रीपति केशवदास से प्रभावित थे। फिर भी उन्होंने हदय से रस की महत्ता को स्वीकार किया तथा अलंकार और रस को समान रूप में काव्य में महत्त्व प्रदान किया।
रीतिकालीन आचार्य कवियों में चिन्तामणि, देव तथा भिखारीदास ने रस को काव्य की आत्मा घोषित किया। आचार्य चिन्तामणि ने काव्य का रूपक प्रस्तुत करते हुए रस को ही उसका जीवित कहा —
“सबै अर्थ तुन वररणिये जीवित रस जिय जानि।
कविता पुरुष की साजु सब समुझ लोक का रीति।”
देवदत्त ने काव्य की आत्मा के लिए ‘सुसार‘ शब्द का प्रयोग किया और काव्य पुरुष के रूपक में रस को काव्य की आत्मा माना —
“काव्य सार शब्दार्थ को रस तेहि काव्य सुसार।
ताते काव्य हिं मुख्य रस जामे दरसत् भाव।”
इसी प्रकार आचार्य भिखारीदास ने काव्य को अंगी मानकर रस को उसका अंग ( आत्मा ) घोषित किया —
“रस कविता को अंग भूषन हैं भूषन सकल।
गुन सयप और रंग दूषन करै करुपता।”
निष्कर्ष
रीतिकालीन आचार्यों ने यद्यपि काव्यात्मा संबंधी अपने विचारों को प्रस्तुत किया परंतु वे भी संस्कृत आचार्यों की छाया मात्र प्रतीत होते हैं | आधुनिक काल में संस्कृत के काव्यशास्त्रीय सिद्धान्तों का पर्याप्त विश्लेषण हुआ है। परन्तु काव्य की आत्मा को लेकर किसी नवीन सिद्धान्त की स्थापना नहीं की गई। बल्कि आधुनिक काल में काव्य को रस की आत्मा मान लिया गया।
यहाँ हमें इस बात का ध्यान रखना होगा कि पाठक आनंदानुभूति के लिए काव्य-रचना को पढ़ता एवं सुनता है। अतः रस ही काव्य का मूल प्राण है। जहाँ तक रीति, वक्रोक्ति का प्रश्न है, उनका सम्बन्ध अभिव्यक्ति पक्ष से है। अतः ये तीनों रस के उपकारक कहे जा सकते हैं। ध्वनि को हम इसी रूप में ग्रहण कर सकते हैं। यद्यपि कुछ विद्वानों ने ध्वनि को काव्यात्मा सिद्ध करने का प्रयास किया पर वह सफल नहीं हो पाए। कारण यह है कि ध्वनि मात्र साधन है। साध्य तो रस है। इसलिए सिद्धान्त और व्यवहार दोनों दृष्टियों से रस का महत्त्व अक्षुण्ण है।
इस सम्बन्ध में डॉ. नगेन्द्र का निम्नलिखित कथन महत्त्वपूर्ण है —
“जीवन की भूमिका में जब तक मानव से महतर सत्य का आविर्भाव नहीं होता और साहित्य की भूमिका में जब तक मानव संवेदना से अधिक रमणीय सत्य की उद्भावना नहीं होती तब तक रस सिद्धांत से अधिक प्रामाणिक सिद्धांत की प्रकल्पना भी नहीं की जा सकती |”
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