सूर्यातप, तापमान, ताप कटिबंध व तापांतर के अर्थ, प्रकारों तथा इनको प्रभावित करने वाले कारकों का विस्तृत वर्णन इस प्रकार है —
सूर्यातप
पृथ्वी तथा उसके वायुमंडल के लिए समस्त ऊर्जा का स्रोत सूर्य है। सूर्य के तल से ऊष्मा निरन्तर लघु तरंगों (Short Waves) के रूप में विकिरित होती रहती है |
सूर्य से विकिरित होने वाले इस ताप को ‘सूर्यातप’ ( Insolation ) कहते हैं | अंग्रेजी का शब्द ‘Insolation’ तीन शब्दों (Incoming
Solar Radiation) का संक्षिप्त रूप है। अर्थात् सूर्यातप का शाब्दिक अर्थ ‘प्रवेशी सौर विकिरण’ है।
सूर्यातप को प्रभावित करने वाले कारक
भू-पृष्ठ पर सूर्यातप का वितरण निम्न कारकों पर निर्भर करता है:
(1) सूर्य की किरणों का झुकाव
सूर्य की किरणों का झुकावपृथ्वी के किसी भाग पर प्राप्त होने वाले सूर्यातप को दो प्रकार से प्रभावित करता है :–
(क) क्षेत्रफल — लंबवत् किरणों को कम क्षेत्र गर्म करना पड़ता है, इसलिए प्रति इकाई सूर्यातप अधिक प्राप्त होता है। तिरछी किरणें भू-पृष्ठ के अधिक क्षेत्रफल पर फैलती हैं और उनसे प्रति इकाई सूर्यातप कम प्राप्त होता है।
(ख) वायुमंडल की मोटाई — जितनी अधिक वायुमंडल की मोटाई
सूर्य की किरणों को तय करनी पड़ेगी, उतना ही अधिक सूर्यातप का वायुमंडल द्वारा ह्रास होगा और पृथ्वी पर कम सूर्यातप पहुँचेगा।
अत: भूमध्य रेखा पर वायुमडलद्वारा सूर्यातप का ह्रास सबसे कम तथा ध्रुवों पर सबसे अधिक ह्रास होगा। परिणामस्वरूप भूमध्य रेखा पर अधिकतम तथा ध्रुवों की ओर जाने में सूर्यातप की मात्रा उत्तरोत्तर कम होती जाती है।
(2) दिन की लम्बाई अथवा धूप की अवधि
हमें सूर्यातप दिन के समय ही मिलता है, अत: किसी स्थान पर प्राप्त हुई सूर्यातप की मात्रा दिन की लंबाई अथवा धूप की अवधि पर भी निर्भर करती है |
ग्रीष्म ऋतु में दिन बड़े होते हैं और सूर्यातप अधिक प्राप्त होता है। इसके विपरीत, शीत ऋतु में दिन छोटे होते हैं और सूर्यातप कम प्राप्त होता है |
भूमध्य रेखा पर पूरे साल दिन की लंबाई लगभग बराबर रहती है, इसलिए वहां पर सूर्यातप भी वर्ष भर लगभग एक समान प्राप्त होता है |
ध्रुवों पर छ: महीने का दिन तथा छ: महीने की रात होती है; अत: वहां पर सूर्यातप की प्राप्ति में अधिक विषमताएं पाई जाती हैं।
(3) वायुमंडल की अवस्था
वायुमंडल में मेघ, आर्द्रता तथा धूल-कण आदि परिवर्तनशील दशाएं सूर्य से आने वाले सूर्यातप को अवशोषित (Absorb), परावर्तित (Reflect) तथा प्रकीर्णन (Scatter) करती रहती हैं, जिससे पृथ्वी पर पहुंचने वाले सूर्यातप में परिवर्तन आ जाता है।
जिन क्षेत्रों में आर्द्रता एवं धूल-कण अधिक होते हैं, वहां सूर्यातप का ह्रास अधिक होता है और पृथ्वी पर कम मात्रा में सूर्यातप पहुंचता है |
(4) जल तथा स्थल का प्रभाव
यदि भू-पृष्ठ पर सर्वत्र जल अथवा स्थल होता तो एक ही अक्षांश पर सूर्यातप लगभग एक समान होता।
परन्तु पृथ्वी के विभिन्न भागों पर जल तथा स्थल का असमान वितरण है, जिस कारण ऊष्मा की प्राप्ति में भिन्नता आ जाती है। स्थल की अपेक्षा जल धीरे-धीरे गर्म होता है और धीरे-धीरे ही ठंडा होता है। परिणामस्वरूप जल पर स्थल की अपेक्षा सूर्यातप का प्रभाव बहुत कम होता है।
(5) भू तल का स्वभाव
भू-तल के स्वभाव पर भी सूर्यातप की मात्रा काफी हद तक निर्भर करती है। सामान्यतः जो भाग चिकनी मिट्टी वाले होते हैं, वहां पर सूर्यातप का अवशोषण कम होता है, परंतु पथरीले एवं बालू वाले प्रदेशों में सूर्यातप का अवशोषण अधिक होता है।
इसी प्रकार से हिमानी प्रदेशों में सूर्य की किरणों का एकाएक
परावर्तन हो जाता है तथा काली मिट्टी वाले क्षेत्रों में सूर्यातप
का अवशोषण शीघ्रातिशीघ्र होता है।
(6) भूमि का ढाल
जो ढाल सूर्य के सामने होते हैं, उन पर सूर्य की किरणें सीधी पड़ती हैं और वहां पर अधिक सूर्यातप प्राप्त होता है। इसके विपरीत, जो ढाल सूर्य से विमुख होते हैं, उन पर सूर्य की किरणें तिरछी पड़ती हैं और वहां पर सूर्यातप कम प्राप्त होता है। उत्तरी गोलार्द्ध में पर्वतों के दक्षिणी ढाल पर सूर्यातप की मात्रा अधिक तथा उत्तरी ढाल पर कम होती है।
(7) पृथ्वी की सूर्य से दूरी
पृथ्वी सूर्य के इर्द-गिर्द एक अंडाकार पथ पर परिभ्रमण करती है। 21 जून के दिन पृथ्वी अपसौरिका / अपसौर (Aphelion) स्थिति में होती है और तब यह सूर्य से 15.12 करोड़ कि.मी, की अधिकतम दूरी पर होती है।
22 दिसम्बर के दिन पृथ्वी ‘उपसौरिका’ / उपसौर (Perihelion) स्थिति में होती है और उसकी सूर्य से न्यूनतम दूरी 14.50 करोड़ कि.मी. होती है। अत: जून की अपेक्षा दिसंबर में पृथ्वी को 6.6% अधिक सूर्यातप प्राप्त होता है।
(8) सौर कलंकों की संख्या
सूर्य के तल पर कुछ धब्बे से दृष्टिगोचर होते हैं, जिन्हें ‘सूर्य कलंक’ (Sun Spots) कहते हैं। ये धब्बे निरंतर बनते और बिगड़ते रहते हैं।
सूर्य कलंकों तथा सौर-विकिरण में घनिष्ठ संबंध है। जब सूर्य कलंकों की संख्या अधिक हो जाती है, तो सूर्य के तल से सूर्यातप का विकिरण भी अधिक हो जाता है और जब ये धब्बे कम होते हैं, तो सूर्यातप का विकिरण भी कम होता है।
अनुमान है कि सूर्य कलंकों के घटते-बढ़ते रहने से धरातल पर पहुंचने वाले सूर्यातप की मात्रा में सौर-स्थिरांक (Solar Constant) की औसत से तीन प्रतिशत तक अंतर पड़ जाता है।
पृथ्वी का तापीय बजट
पृथ्वी पर औसत तापमान लगभग एक समान रहता है, क्योंकि सूर्य से प्राप्त होने वाला सूर्यातप तथा पृथ्वी द्वारा छोड़े जाने वाले भौतिक विकिरण (Terrestrial Radiation) की मात्रा लगभग एक समान है।
मोलर (Moller) के अनुसार यदि वायुमंडल की ऊपरी सतह पर प्राप्त होने वाला ताप 100 ईकाई है, तो इसमें से केवल 51 इकाई तक ही पृथ्वी पर पहुंचता है, 49 इकाई ताप वायुमंडल तथा अंतरिक्ष में परिवर्तित ( Reflected ) हो जाता है |
35 ईकाई ताप तो पृथ्वी के धरातल पर पहुचन से पहले ही अंतरिक्ष में प्रकीर्णन (Scattering) द्वारा, 27 ईकाई ताप मेघों द्वारा परावर्तित होता है तथा 2 ईकाई पृथ्वी द्वारा परावर्तित हो जाता है। सौर विकिरण की इस परावर्तित मात्रा को ‘पृथ्वी का एल्बिनो।
(Albedo of the Earth) कहते हैं। शेष 65 इकाइयों में से
14 ईकाई ताप का वायुमण्डल द्वारा अवशोषण होता है। इस प्रकार पृथ्वी पर 100 इकाइयों में 51 इकाई ताप ही पहुँच पाता है।
पृथ्वी द्वारा अवशोषित 51 इकाइयां पुनः भौमिक विकिरण (Terrestrial Radiation) के रूप में लौट जाती हैं। इनमें से 17 इकाईयां तो सीधे अंतरिक्ष में लौट जाती हैं और 34 इकाईयां वायुमंडल द्वारा अवशोषित होती हैं।
इन 34 इकाईयों में से 6 इकाईयां स्वयं वायुमंडल द्वारा, 9 इकाईयां संवहन द्वारा तथा 19 इकाईयां गुप्त ऊष्मा (Latent heat) के रूप में अवशोषित होती हैं।
वायुमंडल द्वारा अवशोषित 48 इकाइयां (14 इकाईयां सूर्यातय
से तथा 34 इकाईयां भौमिक विकिरण से) पुन: अंतरिक्ष में लौट जाती हैं।
इस प्रकार पृथ्वी तथा उसके वायुमंडल को प्राप्त हुई ऊष्मा उनके द्वारा छोड़ी गई ऊष्मा के बराबर है। पृथ्वी तथा वायुमंडल द्वारा प्राप्त ताप तथा उसके द्वारा ताप के ह्रास के संतुलन को ‘ऊष्मा बजट’ अथवा ‘ऊष्मा संतुलन’ कहते हैं।
एल्बिडो (Albedo)
किसी तल द्वारा परावर्तित विकिरण तथा उस तल द्वारा कुल प्राप्त की गई विकिरण के अनुपात को संबंधित तल का ‘एल्बिडो’ कहते हैं। पृथ्वी का औसत एल्बिडो 30 प्रतिशत है।
तापमान
किसी स्थान पर मानक अवस्था (Standard Condition) में मापी गई भू-तल से लगभग एक मीटर ऊँची वायु की गर्मी को उस स्थान का तापमान कहते हैं। सूर्यातप प्राप्त होने से पृथ्वी तथा उसके वायुमंडल का तापमान बढ़ जाता है।
तापमान को नियन्त्रित करने वाले कारक
किसी स्थान के तापमान को निम्नलिखित कारक नियन्त्रित
करते हैं —
(1) भूमध्य रेखा से दूरी
सूर्य की किरणें भूमध्य रेखा पर लगभग पूरे साल लंबवत् पड़ती हैं, जिससे वहाँ पर सूर्यातप अधिक प्राप्त होता है और तापमान लगभग 30° से. होता है।
भूमध्य रेखा से दूर जाने पर सूर्य की किरणें तिरछी हो जाती हैं। अत: वहाँ पर सूर्यातप कम प्राप्त होता है और तापमान भी कम ही होता है।
(2) समुद्री तल की ऊँचाई
समुद्र तल पर उच्च तापमान पाया जाता है। ज्यों-ज्यों हम ऊँचाई की ओर जाते हैं, त्यों-त्यों तापमान में कमी आती है। सामान्यत: 165 मीटर की ऊँचाई पर 1° सेल्सियस तापमान गिर जाता है। यही कारण है कि पर्वतीय प्रदेश मैदानों की अपेक्षा अधिक ठंडे होते हैं।
(3) समुद्र तल से दूरी
स्थल की अपेक्षा जल देर से गर्म होता है और देर से ही ठंडा होता है। अतः जो स्थान समुद्र के निकट हैं, वहाँ पर तापमान लगभग एकसमान रहता है। समुद्र से दूर स्थित स्थानों पर तापमान में विषमता पाई जाती है। अर्थात् समुद्र तट के निकट स्थित स्थानों पर सर्दियों में कम सर्दी तथा गर्मियों में कम गर्मी होती है, जबकि समुद्र तट से दूर स्थित स्थानों पर सर्दियों में अधिक सर्दी तथा
गर्मियों में अधिक गर्मी होती है।
(4) समुद्री धाराएँ
समुद्री धाराएँ तटवर्ती क्षेत्रों के तापमान को काफी हद तक प्रभावित करती हैं। जिन क्षेत्रों में गर्म धारा बहती है, वहां का तापमान अधिक होता है तथा जिन क्षेत्रों में ठंडी धारा बहती है, उन क्षेत्रों का तापमान कम हो जाता है। उत्तर-पश्चिमी यूरोप के तट के साथ ‘गल्फ स्ट्रीम’ की गर्म धारा बहती है, जो यूरोप के तटीय भागों का तापमान ऊँचा बनाए रखती है। इसके विपरीत, लगभग उसी अक्षांश पर स्थित लैब्रेडोर के तट के साथ लैब्रेडोर की ठंडी धारा बहती है, जिससे यह क्षेत्र वर्ष में लगभग नौ मास हिमाच्छादित रहता है।
(5) प्रचलित पवनें
जिन स्थानों पर गर्म पवनें आती हैं, वहाँ का तापमान अधिक तथा जहां पर ठंडी पवनें आती हैं, वहां का तापमान कम होता है। इटली में सहारा मरुस्थल से आने वाली सिरोको पवन तथा उत्तरी भारत के मैदानी भाग में ग्रीष्म ऋतु में चलने वाली ‘लू’ से कई बार तापमान 45° सेल्सियस तक पहुँच जाता है।
(6) भूमि का ढाल
यह तथ्य पहले ही स्पष्ट किया जा चुका है कि भूमि के जो ढाल सूर्य के सामने होते हैं, वे अधिक सूर्यातप प्राप्त करते हैं और वहाँ पर तापमान भी अधिक होता है। इसके विपरीत, जो ढाल सूर्य से परे होते हैं, वहाँ पर सूर्यातप कम प्राप्त होता है और वहां पर तापमान भी कम होता है। हिमालय तथा आल्पस पर्वतों के दक्षिणी ढलानों पर तापमान अधिक तथा उत्तरी ढलानों पर तापमान कम होता है।
(7) भू-तल का स्वभाव
हिम तथा वनस्पति से ढंके हुए भू-तल सूर्य से प्राप्त हुए अधिकांश ताप को परावर्तित कर देते हैं। अत: इन प्रदेशों में तापमान अधिक नहीं हो पाता। इसके विपरीत, बालू तथा काली मिट्टी से ढंके हुए प्रदेश अधिकांश सूर्यातप का अवशोषण कर लेते हैं और वहाँ पर तापमान अधिक होता है।
(8) मेघ तथा वर्षा
जिन प्रदेशों में मेघ छाए रहते हैं तथा वर्षा अधिक होती है, वहाँ पर तापमान अधिक नहीं हो पाता, क्योंकि मेघ सूर्य की किरणों का परावर्तन कर देते हैं। उदाहरणतया, भूमध्य रेखीय खंड में सूर्य की किरणों के लंबवत् पड़ने के बावजूद भी वहाँ पर इतना अधिक तापमान नहीं हो पाता, जितना कि मेघरहित ऊष्ण मरुस्थलीय भागों में हो जाता है।
तापीय कटिबंध
पृथ्वी पर तापमान के वितरण को प्रभावित करने वाले कारकों में सबसे प्रभावशाली कारक ‘भूमध्य रेखा से दूरी’ है। भूमध्य रेखा से ध्रुवों की ओर जाने में तापमान उत्तरोत्तर कम होता है।
इस तथ्य के आधार पर ग्रीक विद्वानों ने सम्पूर्ण पृथ्वी को
निम्नलिखित ताप कटिबंधों में बांटा है —
(1) उष्णकटिबंध (Tropical or Torrid Zone)
यह कटिबंध भूमध्य रेखा के दोनों ओर 23.5° अथवा कर्क और मकर रेखा के बीच है | इस कटिबंध में पूरे साल सूर्य की किरणें लगभग लंबवत पड़ती हैं इसलिए यहाँ पर तापमान सदा उच्च रहता है |
इस भाग में सर्दी नहीं पड़ती, इसलिए इसे ‘शीतविहीन कटिबंध’ भी कहते हैं।
(2) शीतोष्ण कटिबंध (Temperate Zone)
उत्तरी गोलार्द्ध में कर्क रेखा (23.5° उत्तरी अक्षांश) तथा उत्तरी ध्रुव वृत्त (66.5° उत्तरी अक्षांश) और दक्षिणी गोलार्द्ध में मकर रेखा (23.5° दक्षिणी अक्षांश) तथा दक्षिणी ध्रुव वृत्त (66.5° दक्षिणी अक्षांश) के बीच शीतोष्ण कटिबंध स्थित हैं।
यहां पर शीत तथा उष्ण दोनों ही प्रकार की जलवायु पाई जाती है, जिस कारण इसे ‘शीतोष्ण कटिबंध’ कहते हैं।
(3) शीत कटिबन्ध (Frigid Zone):
उत्तरी गोलार्द्ध में उत्तरी ध्रुव वृत्त से उत्तरी ध्रुव तक तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में दक्षिणी ध्रुव वृत्त से दक्षिणी ध्रुव तक शीत कटिबन्ध है।
यहां पर सूर्य की किरणें बहुत ही तिरछी पड़ती हैं और तापमान बहुत ही कम होता है, इसलिए यहां शीत बहुत होती है और इसे ‘शीत कटिबंध’ कहते हैं।
तापांतर (Range of Temperature)
अधिकतम तथा न्यूनतम तापमान के अंतर को ‘तापांतर’ कहते हैं। यह दो प्रकार का होता है, जिन्हें क्रमशः ‘दैनिक तापांतर’ तथा ‘वार्षिक तापांतर’ कहते हैं।
दैनिक तापान्तर
किसी स्थान पर किसी एक दिन के अधिकतम तथा न्यूनतम तापमान के अंतर को वहाँ का ‘दैनिक तापांतर’ कहते हैं।
किसी स्थान का दैनिक तापांतर निम्नलिखित बातों पर निर्भर करता है —
(1) भूमध्य रेखा से दूरी
भूमध्य रेखा पर दिन तथा रात की अवधि बराबर होती है। जो ताप पृथ्वी दिन के समय सौर विकिरण से प्राप्त करती है, उसका अधिकांश भाग भौमिक विकिरण के रूप में नष्ट हो जाता है, अतः वहाँ पर दिन और रात के तापमान में बहुत अंतर पाया जाता है। भूमध्य रेखा से ध्रुवों की ओर जाने से दैनिक तापांतर कम होता है।
(2) समुद्र तट से दूरी
तटीय इलाकों में समुद्र के समकारी प्रभाव के कारण दैनिक तापांतर कम होता है। महाद्वीपों के भीतरी भागों में दैनिक तापांतर अधिक होता है। दिल्ली का दैनिक तापांतर मुम्बई के दैनिक तापांतर से अधिक होता है।
(3) धरातल
पर्वतीय प्रदेशों में वायु मैदानों की अपेक्षा कम सघन होती है और उसमें विकिरण तीव्र गति से होता है। इससे पर्वतों पर दैनिक तापांतर अधिक तथा मैदानों में कम होता है।
(4) मेघाच्छादन
मेघाच्छादित प्रदेशों में दैनिक तापांतर कम मिलता है, क्योंकि मेघों के आवरण से किरणों के मार्ग में बाधा आ जाने के कारण दिन के समय कम सूर्यातप प्राप्त होता है और रात को विकिरण द्वारा ताप के नष्ट होने में भी मेघ बाधा डालते हैं |
इसके विपरीत मेघरहित प्रदेशों में दिन के समय तापमान अत्यधिक बढ़ जाता है तथा रात्रि के समय विकिरण द्वारा तापमान बहुत ही कम हो जाता है। अत: इन क्षेत्रों में तापांतर बहुत अधिक होता है।
वार्षिक तापांतर
जिस प्रकार दिन तथा रात के तापमान में अंतर है, उसी प्रकार ग्रीष्म तथा शीत ऋतु के तापमान में भी अंतर होता है। अत: किसी स्थान के सबसे गर्म तथा सबसे ठंडे महीने के मध्यमान तापमान के अंतर को ‘वार्षिक तापांतर’ कहते हैं।
वार्षिक तापांतर निम्नलिखित कारकों पर निर्भर करता है:
(1) अक्षांश
भूमध्य रेखा पर लगभग पूरे साल सूर्य की किरणें लंबवत् पड़ती हैं और ग्रीष्म ऋतु तथा शीत ऋतु के तापमान में कोई विशेष अंतर नहीं होता है, इसलिए भूमध्य रेखा पर वार्षिक तापांतर बहुत कम होता है।
ज्यों-ज्यों हम ध्रुवों की ओर जाते हैं, त्यों-त्यों ग्रीष्म ऋतु तथा शीत ऋतु के दिनों की अवधि में अंतर बढ़ता जाता है, जिससे विभिन्न ऋतुओं में प्राप्त होने वाली ऊष्मा में भी अंतर बढ़ता जाता है। अतः अक्षांश के बढ़ने के साथ-साथ वार्षिक तापांतर भी बढ़ता जाता है |
(2) समुद्र तट से दूरी
दैनिक तापांतर की भाँति वार्षिक तापांतर भी समुद्र तट के निकट कम तथा महाद्वीपों के अंतरिक भागों में अधिक होता है। समुद्र तट के निकट समुद्र के समकारी प्रभाव के कारण दैनिक तथा वार्षिक दोनों ही तापांतर कम होते हैं।
(3) प्रचलित पवनें
जिन क्षेत्रों में वर्ष भर समुद्र से स्थल की ओर पवनें चलती हैं, वे अपने समकारी प्रभाव से वार्षिक तापांतर को कम कर देती हैं। इसके विपरीत, जिन प्रदेशों में वर्ष-भर स्थल से पवनें चलती हैं, उनमें वार्षिक तापांतर अधिक होता है।
(4) तट के समानांतर फैली पर्वत श्रेणियां
यदि किसी प्रदेश में समुद्र तट के समानांतर कोई उच्च पर्वत श्रेणी फैली हो तो वह समुद्र के समकारी प्रभाव को तटवर्ती क्षेत्र तक ही सीमित रखती है | ऐसी स्थिति में पर्वत श्रेणी के पीछे का प्रदेश चाहे वह समुद्र तट के निकट ही हो समकारी प्रभाव से वंचित रह जाता है | अतः वहां पर तापांतर अधिक हो जाता है |
(5) परिवर्तनशील समुद्री धाराएं
जिन तटों पर परिवर्तनशील धाराएं बहती हैं | वहां का वार्षिक तापांतर अधिक होता है | उदाहरण के लिए दक्षिण भारत के पूर्वी तट पर पश्चिम की अपेक्षा वार्षिक तापांतर अधिक होता है | क्योंकि ग्रीष्म ऋतु में मानसून ड्रिफ्ट की दिशा उत्तर से दक्षिण हो जाती है और पूर्वी तटीय भागों को अधिक ठंडा कर देती है जिससे वहां पर वार्षिक तापांतर अधिक होता है |
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