पूरे साढ़े सात साल के बाद वे लोग लाहौर से अमृतसर आए थे। हॉकी का मैच देखने का तो बहाना ही था, उन्हें ज्यादा चाव उन घरों और बाजारों को फिर से देखने का था जो साढ़े सात साल पहले उनके लिए पराए हो गए थे। हर सड़क पर मुसलमानों की कोई-न-कोई टोली घूमती नजर आ जाती थी। उनकी आँखें इस आग्रह के साथ वहाँ की हर चीज को देख रही थीं जैसे वह साधारण शहर न होकर एक खास आकर्षण-केन्द्र हो।
तंग बाजारों में से गुजरते हुए वे एक-दूसरे को पुराने चीजों की याद दिला रहे थे…देख, फतहदीना, मिसरी बाजार में अब मिसरी की दुकानें पहले से कितनी कम रह गई हैं! …उस नुक्कड़ पर भठियारिन की भट्टी थी, जहाँ अब यह पानवाला बैठा है! …यह नमकमण्डी देख लो, खान साहब! यहाँ की एक-एक लालाइन वह नमकीन होती है कि बस…
बहुत दिनों के बाद बाजारों में तुर्रेदार पगड़ियाँ और लाल तुर्की टोपियाँ दिखाई दे रही थीं। लाहौर से आए हुए मुसलमानों में काफी संख्या ऐसे लोगों की थी जिन्हें विभाजन के समय मजबूर होकर अमृतसर छोड़कर जाना पड़ा था। साढ़े सात साल में आए अनिवार्य परिवर्तनों को देखकर ही उनकी आँखों में हैरानी भर जाती और कहीं अफसोस घिर आता-वल्लाह! कटरा जयमलसिंह इतना चौड़ा कैसे हो गया? क्या इस तरफ सबके सब मकान जल गए..यहाँ हकीम आसिफ़अली की दुकान थी? अब यहाँ एक मोची ने कब्जा कर रखा है!
और कहीं-कहीं ऐसे भी वाक्य सुनाई दे जाते-वली, यह मस्जिद ज्यों की त्यों खड़ी है? इन लोगों ने इसका गुरुद्वारा नहीं बना दिया?
जिस रास्ते से भी पाकिस्तानियों की टोली गुजरती, शहर के लोग उत्सुकतापूर्वक उसकी ओर देखते रहते। कुछ लोग अब भी मुसलमानों को आते देखकर शंकित-से रास्ते से हट जाते थे, जबकि दूसरे आगे बढ़कर बगलगीर होने लगते थे। ज़्यादातर वे आगन्तुकों से ऐसे-ऐसे सवाल पूछते थे कि आजकल लाहौर का क्या हाल है? अनारकली में अब पहले जितनी रौनक होती है या नहीं? सुना है, शाहालमीगेट का बाजार पूरा नया बना है? कृष्णनगर में तो कोई खास तबदीली नहीं आई? वहाँ का रिश्वतपुर क्या वाकई रिश्वत के पैसे से बना है? कहते हैं, पाकिस्तान में अब बुर्का बिल्कुल उड़ गया है, यह ठीक है?..
इन सवालों में इतनी आत्मीयता झलकती थी कि लगता था कि लाहौर एक शहर नहीं, हजारों लोगों का सगा-सम्बन्धी है, जिसके हालात जानने के लिए वे उत्सुक हैं | लाहौर आए हुए लोग उस दिन शहर-भर के मेहमान थे, जिनसे मिलकर और बात करके लोगों को खामखाह खुशी का अनुभव होता था।
बाजार बांसां अमृतसर का एक उपेक्षित-सा बाजार है, जो विभाजन से पहले गरीब मुसलमानों की बस्ती थी। वहाँ ज्यादातर बांस और शहर की ही दुकाने थीं, जो सबकी सब एक ही आग में जल गई थीं। बांस और बांसा की आग अमृतसर की सबसे भयानक आग थी, जिससे कुछ देर के लिए तो सारे शहर के जल जाने का अंदेशा पैदा हो गया था। बाज़ार के आसपास के कई मुहल्लों को तो उस आग ने अपनी लपेट में ले ही लिया था। खैर, किसी तरह वह आग काबू में आ तो गई, पर उसमें मुसलमानों के एक-एक घर के साथ हिन्दुओं के भी चार-चार, छः-छः घर जलकर राख हो गए। अब साढ़े सात साल में उनमें से कई इमारतें तो फिर से खड़ी हो गई थीं, मगर जगह-जगह मलबे के ढेर अब भी मौजूद थे। नई इमारतों के बीच-बीच में मलबे के ढेर अजीब ही वातावरण प्रस्तुत करते थे।
बाजार बांसा में उस दिन भी चहल-पहल नहीं थी, क्योंकि उस बाजार के ज़्यादातर बाशिन्दे तो अपने मकानों के साथ ही शहीद हो गए थे और जो बचकर चले गए थे, उनमें शायद लौटकर आने की हिम्मत बाकी नहीं रही थी। सिर्फ एक दुबला-पतला बुड्ढा मुसलमान वीरान बाजार में आया और वहां की नई और जली हुई इमारतों को देखकर जैसे भूल-भुलैया में पड़ गया।
बायें हाथ को जाने वाली गली के पास पहुंचकर उसके कदम अन्दर मुड़ने को हुए, मगर फिर वह हिचकिचाकर वहां बाहर ही खड़ा रह गया, जैसे उसे निश्चय नहीं हुआ कि वह वही गली है या नहीं, जिसमें वह जाना चाहता है। गली में एक तरफ कुछ बच्चे कीड़ी-कीड़ा खेल रहे थे और कुछ अन्तर पर दो स्त्रियां ऊंची आवाज में चीखती हुई एक-दूसरी को गालियां दे रही थीं।
“सब कुछ बदल गया, मगर बोलियां नहीं बदलीं।” बुड्ढ़े मुसलमान ने धीमे स्वर में अपने से कहा और छड़ी का सहारा लिए खड़ा रहा। उसके घुटने पाजामे से बाहर को निकल रहे थे और घुटनों के थोड़ा ऊपर ही उसकी शेरवानी में तीन-चार पैबन्द लगे थे। गली से एक बच्चा रोता हुआ बाहर को आ रहा था। उसने उसको पुचकारकर पुकारा, “इधर आ, बेटे आ इधर! देख, तुझे चिज्जी देंगे, आ!” और वह अपनी जेब में हाथ डालकर उसे देने के लिए कोई चीज ढूंढने लगा। बच्चा क्षण-भर के लिए चुप कर गया, लेकिन फिर उसने ओंठ बिसोर लिए और रोने लगा। एक सोलह-सत्रह बरस की लड़की गली के अन्दर से दौड़ती हुई आई और बच्चे की बांह पकड़कर उसे घसीटती हुई गली में ले चली। बच्चा रोने के साथ-साथ अपनी बांह छुड़ाने के लिए मचलने लगा। लड़की ने उसे बांहों में उठाकर अपने साथ चिपका लिया और उसका मुंह चूमती हुई बोली, “चुप कर, मेरा वीर! रोएगा तो तुझे वह मुसलमान पकड़कर ले जाएगा, मैं वारी जाऊं, चुप कर!”
बुड्ढ़े मुसलमान ने बच्चे को देने के लिए जो पैसा निकाला था, वह वापस जेब में रख लिया। सिर से टोपी उतारकर उसने वहां थोड़ा खुजलाया और टोपी बगल में दबा ली। उसका गला खुश्क हो रहा था और घुटने जरा-जरा कांप रहे थे | उसने गली के बाहर की बंद दुकान केेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेे तख्ते का सहारा ले लिया और टोपी फिर से सिर पर लगा ली |
गली के सामने जहाँ पहले ऊँचे-ऊँचे शहतीर रखे रहते थे, वहाँ अब एक तिमंजिला मकान खड़ा था। सामने बिजली के खंभे के पास थोड़ी धूप थी। वह कई पल धूप में उड़ते हुए जरों को देखता रहा। फिर उसके मुँह से निकला, “या मालिक!”
एक नवयुवक चाबियों का गुच्छा घुमाता हुआ गली की ओर आया और बुड्ढे को वहाँ खड़े देखकर उसने रुककर पूछा, “कहिए, मियां जी, यहाँ किस लिए खड़े हैं?”
बुड्ढे मुसलमान की छाती और बाहों में हल्की-सी कंपकं हुई और उसने ओंठों पर जबान फेरकर नवयुवक को ध्यान से देखते हुए पूछा, “बेटे तेरा नाम मनोरी नहीं है?”
नवयुवक ने चाबियों का गुच्छा हिलाना बन्द करके मुट्ठी में ले लिया और आश्चर्य के साथ पूछा, “आपको मेरा नाम कैसे पता है?”
“साढ़े सात साल पहले तू बेटे, इतना-सा था,” कहकर बुड्ढे ने मुस्कराने की कोशिश की।
“आप आज पाकिस्तान से आए हैं ?” मनोरी ने पूछा।
“हाँ, मगर पहले हम इसी गली में रहते थे,” बुड्ढे ने कहा, “मेरा लड़का चिरागदीन तुम लोगों का दर्जी था। तकसीम से छः महीने पहले हम लोगों ने यहाँ अपना नया मकान बनाया था।”
“ओ गनी मियाँ!” मनोरी ने पहचानकर कहा।
“हाँ, बेटे, मैं तुम लोगों का ग़नी मियाँ हूँ! चिराग और उसके बीवी-बच्चे तो नहीं मिल सकते, मगर मैंने कहा कि एक बार मकान की सूरत ही देख लूँ।” और उसने टोपी उतारकर सिर पर हाथ फेरते हुए आँसुओं को बहने से रोक लिया।
“आप तो शायद काफी पहले ही यहाँ से चले गए थे,” मनोरी ने स्वर में संवेदना लाकर कहा।
“हाँ, बेटे, मेरी बदबख्ती थी कि पहले अकेला निकलकर चला गया। यहाँ रहता, तो उनके साथ मैं भी…”और कहते-कहते उसे एहसास हो आया कि उसे ऐसी बात नहीं कहनी चाहिए |
“छोड़िए, गनी साहब, अब बीती बातों को सोचने में क्या रखा है?
मनोरी ने ग़नी की बाँह पकड़कर कहा, “आइए, आपको आपका घर दिखा दूं?”
गली में खबर इस रूप में फैली थी कि गली के बाहर एक मुसलमान खड़ा है, जो रामदासी के लड़के को उठाने जा रहा था…उसकी बहन उसे पकड़कर घसीट लाई, नहीं तो वह मुसलमान उसे ले गया होता। यह खबर पाते ही जो स्त्रियाँ गली में पीढ़े बिछाकर बैठी थीं, वे अपने-अपने पीढ़े उठाकर घरों के अन्दर चली गईं। गली में खेलते बच्चों को भी उन स्त्रियों ने पुकार-पुकारकर घरों में बुला लिया। मनोरी जब ग़नी को लेकर गली में आया, तो गली में एक फेरीवाला रह गया था या कुएं के साथ उगे हुए पीपल के नीचे रक्खा पहलवान बिखरकर सोया था। घरों की खिड़कियों में से और किवाड़ों के पीछे से अलबत्ता कई चेहरे झाँक रहे थे। गनी को गली में आते देखकर उनमें हल्की-हल्की चेहमेगोइयाँ शुरू हो गईं। दाढ़ी के सब बाल सफेद हो जाने के बावजूद लोगों ने चिरागदीन के बाप अब्दुलगनी को पहचान लिया था।
“वह आपका मकान था,” मनोरी ने दूर से एक मलबे की ओर संकेत किया। ग़नी पल-भर के लिए ठिठककर फटी-फटी आँखों से उसकी ओर देखता रहा। चिराग और उसके बीवी-बच्चों की मौत को वह काफी अर्सा पहले स्वीकार कर चुका था, मगर अपने नए मकान को इस रूप देखकर उसे जो झुनझुनी हुई, उसके लिए वह तैयार नहीं था। उसकी जबान पहले से ज्यादा खुश्क हो गई और घुटने भी और ज्यादा कांपने लगे।
“वह मलबा?” उसने अविश्वास के स्वर में पूछा।
मनोरी ने उसके चेहरे का बदला हुआ रंग देखा। उसने उसकी बांह को और सहारा देकर ठहरे हुए स्वर में उत्तर दिया, “आपका मकान उन्हीं दिनों जल गया था।”
ग़नी छड़ी का सहारा लेता हुआ किसी तरह मलबे के पास पहुँच गया। मलबे में अब मिट्टी ही मिट्टी थी, जिसमें जहाँ-तहाँ टूटी और जली हुई ईंटें फंसी थीं। लोहे और लकड़ी का सामान उसमें से न जाने कब का निकाल लिया गया था। केवल जले हए दरवाजे का चौखट न जाने कैसे बचा रह गया था, जो मलबे में से बाहर को निकला हुआ था। पीछे की और दो जली हुई अलमारियाँ और बाकी थीं जिनकी कालिख पर अब सफेदी की हल्की-हल्की तह उभर आई थी। मलबे को पास से देखकर गनी ने कहा, “यह रह गया है, यह?” और जैसे उसके घुटने जवाब दे गए और वह जले हुए चौखट को पकड़कर बैठ गया। क्षणभर बाद उसका सिर भी चौखट से जा लगा और उसके मुँह से बिलखने की सी आवाज निकली, “ओए! ओए चिरागदीना!”
जले हुए किवाड़ का चौखट साढ़े सात साल मलबे में से सिर निकाले खड़ा तो रहा था, मगर उसकी लकड़ी बुरी तरह भुरभुरा गई थी। ग़नी के सिर से छूने से उसके कई रेशे झड़कर बिखर गए। कुछ रेशे ग़नी की टोपी और बालों पर आ गिरे। लकड़ी के रेशों के साथ एक केंचुआ भी नीचे गिरा जो ग़नी के पैर से छः आठ इंच दूर नाली के साथ बनी ईंटों की पटरी पर सरसराने लगा। वह अपने लिए सुराख ढूंढ़ता हुआ जरा-सा सिर उठाता, मगर दो-एक बार सिर पटककर और निराश होकर दूसरी ओर को मुड़ जाता।
खिड़कियों में से झांकने वाले चेहरों की संख्या पहले से कहीं बढ़ गई थी। उनमें चेहमेगोइयाँ चल रही थीं कि आज कुछ-न-कुछ जरूर होगा। चिरागदीन का बाप ग़नी आ गया है, इसलिए साढ़े सात साल पहले की सारी घटना आज खुल जाएगी। लोगों को लग रहा था, जैसे
वह मलबा ही ग़नी को सारी कहानी सुना देगा कि शाम के वक्त चिराग ऊपर कमरे में खाना खा रहा था, जब रक्खे पहलवान ने उसे नीचे बुलाया कि वह एक मिनट आकर एक जरूरी बात सुन जाए…पहलवान उन दिनों गली का बादशाह था। हिन्दुओं पर भी उसका काफी दबदबा था, चिराग तो खैर मुसलमान था। चिराग हाथ का कौर बीच में ही छोड़कर नीचे उतर आया। उसकी बीवी जुबैदा और दोनों लड़कियाँ किश्वर और सुलताना खिड़कियों में से नीचे झाँकने लगीं। चिराग ने ड्योढ़ी से बाहर कदम रखा ही था कि पहलवान ने उसे कमीज के कॉलर से पकड़कर खींच लिया और उसे गली में गिराकर उसकी छाती पर चढ़ बैठा। चिराग छुरेवाला हाथ पकड़कर चिल्लाया, “न, रक्खे पहलवान, मुझे मत मार, हाय! मुझे बचाओ! जुबैदा! मुझे बचा!” और ऊपर जुबैदा, किश्वर और सुलताना हताश स्वर से चिल्लाई। जुबैदा चीखती हुई नीचे ड्योढी की तरफ भागी। रक्खे के एक शागिर्द ने चिराग की जद्दोजहद करती हुई बाँहें पकड़ ली और रक्खा उसकी जांघों को घुटनों से दबाए हुए बोला, “चीखता क्यों है, भैण के…तुझे पाकिस्तान दे रहा हूँ, ले!” और जुबैदा के नीचे पहुंचने से पहले ही उसने चिराग को पाकिस्तान दे दिया।
आसपास के घरों की खिड़कियाँ बन्द हो गईं। जो लोग दृश्य के साक्षी थे, उन्होंने दरवाजे बन्द करके अपने को इस घटना के उत्तरदायित्व से मुक्त कर लिया। बन्द किवाड़ों में भी उन्हें देर तक जुबैदा, किश्वर और सुलताना के चीखने की आवाजें सुनाई देती रहीं। रक्खे पहलवान और उसके साथियों ने उन्हें भी उसी रात पाकिस्तान देकर विदा कर दिया, मगर दूसरे तवील रास्ते से। उनकी लाशें चिराग के घर में न मिलकर बाद में नहर के पानी में पाई गईं।
दो दिन तक चिराग के घर की खानातलाशी होती रही। जब उसका सारा सामान लूटा जा चुका तो न जाने किसने उस घर को आग लगा दी। रक्खे पहलवान ने कसम खाई थी कि वह आग लगाने वाले को जिंदा जमीन में गाड़ देगा क्योंकि उसने उस मकान पर नजर रखकर ही चिराग को मारने का निश्चय किया था। उसने उस मकान को शुद्ध करने के लिए हवन-सामग्री भी खरीद रखी थी | मगर आग लगाने वाले का पता ही नहीं चल सका और जिंदा गाड़ने की नौबत तो बाद में आती। अब साढ़े सात साल से रक्खा पहलवान उस मलबे को अपनी जागीर समझता आ रहा था, जहां न वह किसी को गाय-भैंस बांधने देता था और न खोंचा लगाने देता था। उस मलबे से बिना उसकी अनुमति के कोई ईंट भी नहीं उठा सकता था।
लोग आशा कर रहे थे यह सारी कहानी जरूर किसी न किसी तरह गनी के कानों तक पहुंच जाएगी…जैसे मलबे को देखकर उसे अपने-आप ही सारी घटना का पता चल जाएगा। और ग़नी मलबे की मिट्टी नाखून में लिए हुए रो रहा था, “बोल, चिरागदीना, बोल! तू कहां चला गया, ओए? ओ किश्वर! ओ सुलताना! हाय मेरे बच्चे ओएऽऽ! ग़नी को कहाँ छोड़ दिया ओएऽऽ!”
और भुरभुरे किवाड़ से लकड़ी के रेशे झड़ते जा रहे थे।
पीपल के नीचे सोए हुए रक्खे पहलवान को जाने किसी ने जगा दिया या वह वैसे ही जाग गया। यह जानकर कि पाकिस्तान से अब्दुलगनी आया है और अपने मकान के मलबे पर बैठा है, उसके गले में थोड़ा झाग उठ आया, जिससे उसे खाँसी हो आई और उसने कुएँ के फर्श पर थूक दिया। मलबे की ओर देखकर उसकी छाती से धौंकनी का-सा स्वर निकला और उसका निचला ओंठ थोड़ा बाहर को फैल आया।
“गनी अपने मलबे पर बैठा है,” उसके शागिर्द लच्छे पहलवान ने उसके पास आकर बैठते हुए कहा।
“मलबा उसका कैसे है? मलबा हमारा है!” पहलवान ने झाग के कारण घरघराती हुई आवाज में कहा।
“मगर वह वहाँ पर बैठा है,” लच्छे ने आँखों में रहस्यमय संकेत लाकर कहा।
“बैठा है, बैठा रहे, तू चिलम ला!” उसकी टांगें थोड़ी फैल गईं और उसने अपनी नंगी जांघों पर हाथ फेरा।
“मनोरी ने अगर उसे कुछ बताया-वताया, तो…?” लच्छे ने चिलम भरने के लिए उठते हुए उसी रहस्यपूर्ण दृष्टि से देखकर कहा।
“मनोरी की शामत आई है?”
लच्छा चला गया।
कुएं पर पीपल की कई पुरानी पत्तियाँ बिखरी थीं। रक्खा उन पत्तियों को उठा-उठाकर हाथों में मसलता रहा। जब लच्छे ने चिलम के नीचे कपड़ा लगाकर उसके हाथ में दिया तो उसने कश खींचते हुए पूछा, “और तो किसी से ग़नी की बात नहीं हुई?”
“नहीं |”
“ले,” और उसने खांसते हुए चिलम लच्छे के हाथ में दे दी। लच्छे ने देखा कि मनोरी मलबे की तरफ से ग़नी की बांह पकड़े हुए आ रहा है। वह उकडू होकर चिलम के लम्बे-लम्बे कश खींचने लगा। उसकी
आँखें आधा क्षण रक्खे के चेहरे पर टिकतीं और आधा क्षण ग़नी की ओर लगी रहतीं।
मनोरी ग़नी की बांह पकड़े हुए उससे एक कदम आगे चल रहा था, जैसे उसकी कोशिश हो कि ग़नी कुएं के पास से बिना रक्खे पहलवान को देखे ही निकल जाए। मगर रक्खा जिस तरह बिखरकर बैठा था, उससे ग़नी ने उसे दूर से देख लिया। कुंए के पास पहुँचते न पहुँचते उसकी दोनों बाहें फैल गईं और उसने कहा, “रक्खे पहलवान!”
रक्खे ने गरदन उठाकर और आँखें जरा छोटी करके उसे देखा। उसके गले में अस्पष्ट-सी घरघराहट हुई, पर वह बोला कुछ नहीं।
“रक्खे पहलवान, मुझे पहचाना नहीं?” ग़नी ने बांहें नीची करके कहा, “मैं ग़नी हूँ, अब्दुल ग़नी, चिरागदीन का बाप!”
पहलवान ने संदेहपूर्ण दृष्टि से उसका ऊपर से नीचे तक जायजा लिया। अब्दुल ग़नी की आँखों में उसे देखकर चमक आ गई थी। रक्खे का निचला ओंठ फड़का, फिर उसकी छाती से भारी-सा स्वर निकला, “सुना, गनिया!”
ग़नी की बाँहें फिर फैलने को हुईं, परन्तु पहलवान पर कोई प्रतिक्रिया न देखकर उसी तरह रह गईं। वह पीपल के तने का सहारा लेकर कुएं की सिल पर बैठ गया।
ऊपर खिड़कियों में चेहमेगोइयाँ तेज हो गईं कि अब दोनों आमने-सामने आ गए हैं तो बात जरूर खुलेगी…फिर हो सकता है, दोनों में गाली-गलौज भी हो…अब रक्खा ग़नी को कुछ नहीं कह सकता, अब वो दिन नहीं रहे…बड़ा मलबे का मालिक बनता था!…असल में मलबा न इसका है, न ग़नी का। मलबा तो सरकार की मलकियत है…किसी को गाय का खूटा नहीं लगाने देता।…मनोरी भी डरपोक है। इसने ग़नी को बताया क्यों नहीं कि रक्खे ने ही चिराग और उसके बीवी-बच्चों को मारा है… रक्खा आदमी नहीं, सांड़ है। दिन-भर सांड़ की तरह गली में घूमता ….ग़नी बेचारा कितना दुबला हो गया है? दाढ़ी के सारे बाल सफेद हो गए हैं!…
ग़नी ने कुएँ की सिल पर बैठकर कहा, “देख, रक्खे पहलवान, क्या से क्या रह गया है? भरा-पूरा घर छोड़कर गया था और आज यहाँ मिट्टी देखने आया हूँ। बसे हुए घर की यही निशानी रह गई है। तू सच पूछे रक्खे, तो मेरा यह मिट्टी भी छोड़कर जाने को जी नहीं करता!” और उसकी आँखें छलछला आईं।
पहलवान ने फैली हुई टांगें समेट ली और अंगोछा कुएं की मुंडेर से उठाकर कंधे पर डाल लिया। लच्छे ने चिलम उसकी तरफ बढ़ा दी और वह कश खींचने लगा।
“तू बता, रक्खे, यह सब हुआ किस तरह?” ग़नी आंसू रोकता हुआ आग्रह के साथ बोला, “तुम लोग उसके पास थे, सबमें भाई-भाई की-सी मुहब्बत थी, अगर वह चाहता तो वह तुममें से किसी के घर में नहीं छिप सकता था? उसे इतनी भी समझ नहीं आई?”
“ऐसा ही है,” रक्खे को स्वयं लगा कि उसकी आवाज में कुछ अस्वाभाविक-सी गूंज है। उसके ओंठ गाढ़े लार से चिपक-से गए थे। उसकी मूंछों के नीचे से पसीना उसके ओंठों पर आ रहा था। उसके माथे पर किसी चीज का दबाव पड़ रहा था और उसकी रीढ़ की हड्डी सहारा चाह रही थी।
“पाकिस्तान का क्या हाल है?” उसने वैसे ही स्वर में पूछा। उसके गले की नसों में तनाव आ गया था। उसने अंगोछे से बगलों का पसीना पोंछा और गले का झाग मुँह में खींच-खींचकर गली में थूक दिया।
“मैं क्या हाल बताऊँ, रक्खे,” ग़नी दोनों हाथों से छड़ी पर जोर देकर झुकता हुआ बोला, “मेरा हाल पूछे, तो वह मेरा खुदा ही जानता है। मेरा चिराग साथ होता तो और बात थी…रक्खे, मैं उसे समझा हटा था कि मेरे साथ चला चल। मगर वह अड़ा रहा कि नया मकान छोड़कर कैसे जाऊँ, यहाँ अपनी गली है, कोई खतरा नहीं है। भोले कबूतर ने यह नहीं सोचा कि गली में खतरा न सही, बाहर से तो खतरा आ सकता है?
मकान की रखवाली के लिए चारों जनों ने जान दे दी!…रक्खे, उसे तेरा बहुत भरोसा था। कहता था कि रक्खे के रहते कोई मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकता | मगर जब आनी आई, तो रक्खे के रोके भी न रुक सकी।”
रक्खे ने सीधा होने की चेष्टा की क्योंकि उसकी रीढ़ की हड्डी दर्द कर रही थी। उसे अपनी कमर और जांघों के जोड़ पर सख्त दबाव महसूस हो रहा था। पेट की अंतड़ियों के पास जैसे कोई चीज उसकी सांस को जकड़ रही थी। उसका सारा जिस्म पसीने से भीग गया था और उसके पैरों के तलुओं में चुनचुनाहट हो रही थी। बीच-बीच में नीली फुलझड़ियाँ-सी ऊपर से उतरती और उसकी आँखों के सामने से तैरती हुई निकल जातीं। उसे अपनी जबान और ओंठों के बीच का अन्तर कुछ ज्यादा महसूस हो रहा था। उसने अंगोछे से ओंठों के कोनों को साफ किया और उसके मुँह से निकला, “हे प्रभु सच्चिआ, तू ही है, तू ही है, तू ही है!”
ग़नी ने लक्षित किया कि पहलवान के ओंठ सूख रहे हैं और उसकी आँखों के इर्द-गिर्द दायरे गहरे हो गए हैं, तो वह उसके कन्धे पर हाथ रखकर बोला, “जी हल्का न कर, रक्खिआ! जो होनी थी, सो हो गई। उसे कोई लौटा थोड़े ही सकता है? खुदा नेक की नेकी रखे और बद की बदी माफ करे! मेरे लिए चिराग नहीं, तो तुम लोग तो हो। मुझे आकर इतनी ही तसल्ली हुई कि उस जमाने की कोई तो यादगार है। मैंने तुमको देख लिया तो चिराग को देख लिया। अल्लाह तुम लोगों को सेहतमन्द रखे! जीते रहो और खुशियाँ देखो!” और ग़नी छड़ी पर दबाव देकर उठ खड़ा हुआ। चलते हुए उसने फिर कहा, “रक्खे पहलवान, याद रखना!”
रक्खे के गले में स्वीकृति की मद्धम-सी आवाज निकली। अंगोछा बीच में लिए हुए उसके दोनों हाथ जुड़ गए। ग़नी गली के वातावरण को हसरत-भरी नजर से देखता हुआ धीरे-धीरे गली से बाहर चला गया।
ऊपर खिड़कियों में थोड़ी देर चेहमेगोइयाँ चलती रहीं कि मनोरी ने गली से बाहर निकलकर जरूर ग़नी को सब कुछ बता दिया होगा… ग़नी के सामने रक्खे का तालू किस तरह खुश्क हो गया था?…रक्खा अब किस मुँह से लोगों को मलबे पर गाय बांधने से रोकेगा? … बेचारी जुबैदा | बेचारी कितनी अच्छी थी! कभी किसी से मंदा बोल नहीं बोली… रक्खा मरदूद का घर न घाट, इसे किस माँ-बहन का लिहाज था?
और थोड़ी ही देर में स्त्रियाँ घरों से गली में उतर आईं, बच्चे गली में गुल्ली-डण्डा खेलने लगे और दो बारह-तेरह की लड़कियाँ किसी बात पर एक-दूसरी से गुत्थम-गुत्था हो गईं।
रक्खा गहरी शाम तक कुएं पर बैठा बँखारता और चिलम फूंकता रहा। कई लोगों ने वहाँ से गुजरते हुए उससे पूछा, “रक्खे शाह, सुना है आज ग़नी पाकिस्तान से आया था?”
“आया था,” रक्खे ने हर बार एक ही उत्तर दिया।
“फिर?”
“फिर कुछ नहीं, चला गया।”
रात होने पर पहलवान रोज की तरह गली के बाहर बाईं ओर की दुकान के तख्ते पर आ बैठा। रोज अक्सर वह रास्ते से गुजरने वाले परिचित लोगों को आवाज दे-देकर बुला लेता था और उन्हें सट्टे के गुर और सेहत के नुस्खे बताया करता था, मगर उस दिन वह लच्छे को अपनी वैष्णो देवी की यात्रा का विवरण सुनाता रहा जो उसने पन्द्रह साल पहले की थी। लच्छे को विदा करके वह गली में आया तो मलबे के पास लोकू पण्डित की भैंस को खड़ी देखकर वह रोज की आदत के मुताबिक उसे धक्के दे-देकर हटाने लगा-तत्-तत्-तत्…तत्-तत्…
और भैंस को हटाकर वह सुस्ताने के लिए मलबे के चौखट पर बैठ गया। गली उस समय बिलकुल सुनसान थी। कमेटी की कोई बत्ती न होने से वहाँ शाम से ही अन्धेरा हो जाता था। मलबे के नीचे नाली का पानी हल्की आवाज करता हुआ बह रहा था। रात की खामोशी के साथ मिली हुई कई तरह की हल्की-हल्की आवाजें मलबे की मिट्टी में से निकल रही थीं…च्यु च्यु च्यु…चिक्-चिक्-चिक…चिरर् इरर रीरीरीरी-चिरर…एक भटका हुआ कौआ न जाने कहाँ से उड़कर लकड़ी के चौखट पर आ बैठा। उससे लकड़ी के रेशे इधर-इधर छितरा गए। कौए के वहाँ बैठते न बैठते मलबे के एक कोने में लेटा हुआ कुत्ता गुर्राकर उठा और जोर-जोर से भौंकने लगा, वऊ-अऊ-अऊज्वऊ! कौआ कुछ देर सहमा-सा चौखट पर बैठा रहा, फिर वह पख फड़फड़ाता हुआ उड़कर कुएं के पीपल पर चला गया। कौए के उड़ जाने पर कुत्ता और नीचे उतर आया और पहलवान की ओर मुँह करके भैंकने लगा। पहलवान उसे हटाने के लिए भारी आवाज में बोला-दुर दुर दुरदुरे!
मगर कुत्ता और पास आकर भौंकने लगा-वउ-अउ-वउ-वउ-वउ-वउ..
-हट-हट,दुर् र् र् – दुर् र् र् दुरे!…
-वउ-अऊ-अउ-अउ-अउ-अउ!…
पहलवान ने एक ढेला उठाकर कुत्ते की ओर फेंका। कुत्ता थोड़ा पीछे हट गया, पर उसका भौंकना बन्द नहीं हुआ। पहलवान मुँह ही मुँह कुत्ते को माँ की गाली देकर वहाँ से उठा खड़ा हुआ और धीरे-धीरे जाकर कुएँ की सिल पर लेट गया। पहलवान के वहाँ से हटने पर कुत्ता गली में उतर आया और कुएँ की ओर मुँह करके भौंकने लगा। काफी देर भौंककर जब गली में उसे कोई प्राणी चलता-फिरता दिखाई नहीं दिया तो वह एक बार कान झटकाकर मलबे पर लौट आया और वहाँ कोने में बैठकर गुरनि लगा।
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ईदगाह : मुंशी प्रेमचंद ( Idgah : Munshi Premchand )
‘ईदगाह’ ( मुंशी प्रेमचंद ) कहानी की समीक्षा [ ‘Idgah’ ( Munshi Premchand ) Kahani Ki Samiksha ]
गैंग्रीन : सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’
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