भारत की मिट्टियां : विभिन्न प्रकार, विशेषताएँ व वितरण

‘भारत की मिट्टियां’ विषय का विस्तृत विवेचन करने से पूर्व मृदा शब्द के अर्थ को जानना अति आवश्यक होगा |

मृदा ( Soil )

पृथ्वी की ऊपरी सतह पर मोटे, मध्यम और बारीक कार्बनिक तथा अकार्बनिक कणों को मृदा कहते हैं | ऊपरी सतह पर से मिट्टी हटाने पर प्रायः चट्टान पाई जाती है कभी-कभी थोड़ी गहराई पर ही चट्टान मिल जाती है |

मृदा विज्ञान भौतिक भूगोल की एक प्रमुख शाखा है जिसमें मृदा के निर्माण, उसकी विशेषताओं एवं धरातल पर उसके वितरण का वैज्ञानिक अध्ययन किया जाता है |

संक्षेप में भू-पृष्ठ की सबसे ऊपरी परत, जो पौधों को उगने व बढ़ने के लिए जीवांश तथा खनिजांश प्रदान करती है, मृदा या मिट्टी कहलाती है अर्थात मृदा ह्यूमस से युक्त ढीला पदार्थ है, जो पौधों के लिए आर्द्रता तथा आहार प्रदान करता है।

बैनेट के अनुसार, ”मिट्टी या मृदा का निर्माण एक जटिल प्रक्रिया है, जिसमें प्राकृतिक पर्यावरण का प्रत्येक तत्व अपना योगदान देता है।”

मृदा वैज्ञानिक इसे मृदाजनन (Pedogenesis) कहते हैं। अपक्षय तथा अपरदन के कारक भू-पृष्ठ की चट्टानों को तोड़कर उनका चूर्ण बना देते हैं | इस चूर्ण में वनस्पति तथा जीव-जन्तुओं के गले-सड़े अंश भी सम्मिलित हो जाते हैं, जिसे ह्यूमस कहते हैं। चट्टानों में उपस्थित खनिज तथा चूर्ण में मिला हुआ ह्यूमस मिलकर पेड़-पौधों को जीवन प्रदान करते हैं।

भारत की मिट्टियां : वर्गीकरण

भारत एक विशाल देश है, जहां विभिन्न प्रकार की मिट्टियां पाई जाती हैं। भारतीय मिट्टियों का उचित वर्गीकरण करना कठिन कार्य है।

मिट्टियों का वर्गीकरण करने के कई आधार हो सकते हैं। किसी भी एक आधार पर किया गया वर्गीकरण पूर्णतः त्रुटि रहित नहीं हो सकता | उदाहरणतः रासायनशास्त्री मिट्टियों का वर्गीकरण उनके रासायनिक तत्वों अथवा रासायनिक आवश्यकताओं के आधार पर करते हैं।

इसमें मिट्टियों की संरचना पर ध्यान नहीं दिया जाता। मिट्टी के वर्गीकरण का सबसे महत्त्वपूर्ण आधार उसकी उपजाऊ शक्ति है।

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (Indian Council of Agricultural Research) ने सन 1953 में अखिल भारतीय भूमि उपयोग तथा मृदा सर्वेक्षण संगठन (All India Land Use and Soil Survey Organisation) की स्थापना की, जिसने भारतीय मिट्टियों का निम्नलिखित वर्गीकरण प्रस्तुत किया —

(1) जलोढ़ मिट्टी (Alluvial Soil )

(2) काली मिट्टी (Black Soil )

(3) लाल मिट्टी (Red Soil )

(4) लेटेराइट मिट्टी (Laterite Soil )

(5) पर्वतीय मिट्टी ( Mountain Soil )

(6) शुष्क एवं मरुस्थलीय मिट्टी (Arid and Desert Soil)

(7) लवण तथा क्षारीय मिट्टी (Saline and Alkaline Soil )

(8) पीटी तथा दलदल युक्त मिट्टी (Peaty and Marshy Soil )

भारत की विभिन्न मिट्टियां : क्षेत्रफल ( % में )

भारत की मिट्टियां क्षेत्रफल ( % में )
जलोढ़ मृदा 22.16
काली मृदा 29.69
लाल मृदा 28
लैटराइट मृदा 2.62
पर्वतीय मृदा 7.94
मरुस्थलीय मृदा 6.13
क्षारीय मृदा 1.29
पीटी मृदा ( दलदली )2.17

(1) जलोढ़ मिट्टी

इसे कांप मिट्टी भी कहते हैं। यह मिट्टी नदियों द्वारा लाकर नदी-घाटियों, बाढ़ के मैदानों तथा डेल्टाई प्रदेशों में बिछाई जाती है।

इस मिट्टी में नाट्रोजन, फास्फोरस तथा वनस्पति के अंश की कमी होती है। फिर भी ये बड़ी उपजाऊ होती है। इसका कारण यह है कि नदियां कई प्रकार के शैल चूर्ण बहा कर ले आती हैं, जिनमें बहुत से रासायनिक तत्व मिले हुए होते हैं।

गंगा-सतलुज का मैदान इसी मिट्टी का बना हुआ है। इस मैदान की गणना विश्व के सबसे अधिक उपजाऊ मैदानों में की जाती है।

महानदी, गोदावरी, कृष्णा एवं कावेरी के डेल्टाई भागों में भी यही मिट्टी पाई जाती है। यहां इसे डेल्टाई मिट्टी के नाम से जाना जाता है।

इसके अतिरिक्त, यह मिट्टी असम घाटी, गुजरात तथा पश्चिमी तटीय मैदान में भी पाई जाती है। जलोढ़ मिट्टियां भारत का सबसे बड़ा मृदा समूह है। यह 15 लाख वर्ग किमी. क्षेत्र में फैली हुई है। इस प्रकार ये भारत के लगभग 45.6 प्रतिशत भाग पर वितरित है।

स्थिति, संरचना तथा उपजाऊपन के आधार पर जलोढ़ मिट्टियों को निम्नलिखित उप-विभागों में बांट गया है —

(क ) नदीय जलोढ़ मिट्टी (Riverine Alluvial Soil )

यह मिट्टी नदी घाटियों में मिलती है। इसका अधिकतम विस्तार भारत के उत्तरी मैदान में पाया जाता है। यहां पर सिंधु, गंगा, ब्रह्मपुत्र तथा उनकी सहायक नदियों ने विस्तृत क्षेत्र में तलछट का निक्षेप किया है, जिस कारण इस मिट्टी का निर्माण हुआ है। यह बहुत उपजाऊ मिट्टी है और भारतीय कृषि अर्थव्यवस्था का आधार है |

(ख ) तटीय जलोढ़ मिट्टी (Coastal Alluvial Soil )

यह मिट्टी तटीय भागों में मिलती है। इनका निर्माण मुख्यत: समुद्री लहरों की निक्षेप क्रिया द्वारा किया जाता है। कभी-कभी नदियां भी तटीय भाग में निक्षेप करती हैं, जिससे इस मिट्टी के निर्माण में वृद्धि होती है।

यह मिट्टी चावल तथा नारियल के लिए बहुत उपयुक्त होती है। पूर्वी तट का अधिकांश भाग तथा पश्चिमी तट का उत्तरी भाग (खम्भात की खाड़ी से मुंबई तक) तटीय जलोढ़ मिट्टी का क्षेत्र है |

(ग ) डेल्टाई जलोढ़ मिट्टी (Deltaic Alluvial Soil )

भारत की लगभग सभी नदियाँ समुद्र में गिरने से पहले डेल्टा बनाती है। गंगा-ब्रह्मपुत्र डेल्टा विश्व का सबसे बड़ा डेल्टा है |

यह पश्चिम बंगाल तथा बंग्लादेश में विस्तृत है। दक्षिणी भारत में महानदी, गोदावरी, कृष्णा तथा कावेरी नदियां भी डेल्टा बनाती हैं। अत: इन भागों में डेल्टाई मिट्टी प्रचुर मात्रा में मिलती है। डेल्टाई मिट्टी में चीका की प्रधानता होती है, जो जल को काफी देर तक अपने अन्दर संजोये रखती है। अत: इस मिट्टी की गणना विश्व की सबसे उपजाऊ मिट्टियों में की जाती है।

गंगा-ब्रह्मपुत्र डेल्टा चावल तथा पटसन की कृषि के लिए विश्व भर में विख्यात हैं। अन्य डेल्टा क्षेत्रों में चावल की भरपूर कृषि की जाती है।

(घ ) तराई मिट्टी ( Tarai Soil )

यह उत्तर प्रदेश में भाभर के दक्षिण में तराई प्रदेश के लगभग 56,600 वर्ग किमी. क्षेत्र में फैली हुई है। इस मिट्टी में नाइट्रोजन तथा जैव पदार्थ की प्रचुरता होती है। इसमें फॉस्फेट की कमी होती है। इस पर ऊँची-ऊँची घास तथा घने वन उगते हैं। यहां के अधिकांश वनों को साफ करके, भूमि को कृषि योग्य बनाया गया है।

यह मिट्टी गेहूँ, चावल, गन्ना, पटसन तथा सोयाबीन की कृषि के लिए उपयुक्त है।

(2) काली मिट्टी (Black Soil )

काली मिट्टी को रेगड़ या रेगुर मिट्टी भी कहते हैं | इस मिट्टी का निर्माण ज्वालामुखी विस्फोट से हुआ है जिससे इसमें कई प्रकार के खनिज विद्यमान हैं |

काली मिट्टी में लोहा, मैग्नीशियम, चूना तथा एल्यूमिनियम अधिक मात्रा में मिलता है | गीले होने पर यह फूल जाती है तथा सूखने पर सिकुड़ जाती है | यह बहुत ही उपजाऊ मिट्टी है |

काली मिट्टी कपास की कृषि के लिए सर्वाधिक उपयोगी होती है इसलिए इस मिट्टी को ‘कपासी मिट्टी’ भी कहते हैं |

यह दक्षिणी भारत के पांच लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैली हुई है। इसका विस्तार पश्चिमी एवं मध्यवर्ती मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र तथा गुजरात के अधिकांश भाग, कर्नाटक के उत्तरी भाग तथा तेलंगाना के पश्चिमी भाग में है। यह मिट्टी चिपचिपी होती है और इसमें नमी धारण करने की पर्याप्त क्षमता होती है। इसके लिए सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है।

ग्रीष्म ऋतु में यह मिट्टी सूख जाती है और इसमें दरारें पड़ जाती है। मिट्टी के कण टूट-टूट कर दरारों में भरने लगते हैं और मिट्टी बारीक हो जाती है। कपास उत्पादन क्षेत्र की काली मिट्टी को ‘स्वतः कृष्ण मिट्टी’ कहा जाता है।

(3) लाल मिट्टी ( Red Soil )

इस प्रकार की मिट्टी मध्य प्रदेश के बुन्देलखंड क्षेत्र से धुर दक्षिण तक पायी जाती है। यह 2 लाख वर्ग किमी. क्षेत्र में विस्तृत है। यह मिट्टी आंध्र प्रदेश और छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश के उत्तर-पूर्वी भाग, बिहार, झारखंड के छोटा नागपुर के पठार, पश्चिम बंगाल के वीरभूमि, बांकुड़ा और मिदनापुर जिलों में, मेघालय की खासी, जयंतिया और गारो पहाड़ियों में, नागालैण्ड में; उत्तर प्रदेश के हमीर पुर, मिर्जापुर, बांदा और झांसी जिलों में, राजस्थान के अरावली पर्वत के पूर्वी क्षेत्रों तथा दक्षिण-पूर्वी महाराष्ट्र, तेलंगाना, कर्नाटक और तमिलनाडु के कुछ भागों में मिलती है।

लाल मिट्टी का निर्माण प्राचीन रवेदार तथा रूपांतरित चट्टानों के अपक्षय एवं अपरदन से प्राप्त हुई सामग्री द्वारा हुआ है।

इस मिट्टी में लोहा एल्यूमीनियम तथा चूने की प्रधानता होती है परंतु जीवाश्म, ह्यूमस तथा फास्फोरस की कमी होती है |

(4) लेटेराइट मिट्टी (Laterite Soil )

‘Latrite’ शब्द लैटिन भाषा के ‘Later’ शब्द से बना है जिसका अर्थ ईंट होता है | इस शब्द का प्रयोग सबसे पहले 1810 ईस्वी में बुचानन ने किया था | अतः स्पष्ट है कि यह लाल मिट्टी लाल रंग के ईंटनुमा कंकड़ों से युक्त मिट्टी होती है |

इसका निर्माण मानसूनी जलवायु की विशिष्ट परिस्थितियों में होता है | मानसूनी जलवायु के आर्द्र एवं शुष्क ऋतु के क्रमिक परिवर्तन के कारण चट्टानों में सिलिका की कमी आ जाती है केवल लेट राइट में ही लौह ऑक्साइड पाया जाता है |

इस मिट्टी में नाइट्रोजन, चूना, फास्फोरस तथा मैग्नीशियम की मात्रा कम होती है | अतः इसकी उपजाऊ शक्ति कम होती है |

कुछ भागों में यह मिट्टी कंकरीली एवं छिद्रयुक्त होती है। यह कृषि के लिए अधिक उपयोगी नहीं है, परन्तु इसमें घास और झाड़ियां खूब उगती हैं। यह मिट्टी पश्चिमी घाट, छोटा नागपुर का पठार, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, उड़ीसा , असम के पर्वतीय क्षेत्रों तथा राजमहल की पहाड़ियों में मिलती हैं।

(5) पर्वतीय मिट्टी ( Mountain Soil)

यह मिट्टी पर्वतीय भागों के वनाच्छादित क्षेत्रों में पाई जाती है। इस मिट्टी का विस्तार लगभग 2.85 लाख वर्ग किमी. क्षेत्रफल पर मिलता है, जो भारत के क्षेत्रफल का लगभग 8.67 प्रतिशत भाग है।

यह मिट्टी हिमालय के पर्वतीय भागों में पाई जाती हैं। जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, सिक्किम तथा अरुणाचल प्रदेश में इसका विस्तार मिलता है।

कहीं-कहीं पर नागालैंड, मणिपुर, मिजोरम, त्रिपुरा तथा मेघालय में भी यह मिट्टी मिलती है। इन मिट्टी में पत्थर, कंकड़ आदि की प्रचुरता होती है। पर्वतीय मिट्टी मुख्यतः तीन प्रकार की होती है —

(क ) हिमालय के दक्षिणी भाग में पथरीली मिट्टी की प्रचुरता है। इन्हें नदियों ने लाकर एकत्रित कर दिया है। इसमें पत्थर, कंकड़ अधिक होते हैं, परन्तु वनस्पति, चूने तथा लोहे के अंश कम मात्रा में होते हैं। अतः यह कम उपजाऊ होती है। प्रायः इस मिट्टी के कण मोटे होते हैं, परन्तु दून व कांगड़ा घाटियों, असम तथा पश्चिम बंगाल के दार्जीलिंग क्षेत्र में बारीक कणों वाली चिकनी मिट्टी मिलती है और वहां चाय, आलू आदि की कृषि की जाती है।

(ख ) मसूरी, नैनीताल, चकराता आदि क्षेत्रों में चूना व डोलोमाइट अधिक मात्रा में मिलते हैं। अतः इन क्षेत्रों में चूनायुक्त मिट्टी का निर्माण हुआ है | वर्षा के कारण अधिकांश चूना बह जाता है और भूमि अनुत्पादक तथा बीहड़युक्त हो जाती है। ऐसी भूमि में केवल चीड़, साल आदि के वन उगते हैं। घाटियों में जहां कहीं यह मिट्टी जमी हुई अवस्था में पाई जाती है, वहां चावल की कृषि होती है।

(ग ) हिमालय के कई भागों में ज्वालामुखी उद्गार से ग्रेनाइट तथा डायोराइट आदि आग्नेय चट्टानों का निर्माण हुआ है। इससे वहां पर आग्नेय मिट्टियां बन गई हैं। इन मिट्टियों में नमी धारण करने की शक्ति होती है, जिससे इस मिट्टी पर कृषि की जाती है।

(6) शुष्क एवं मरुस्थली मिट्टी (Arid and Desert)

यह मिट्टी 50 सेमी. से कम वार्षिक वर्षा वाले इलाकों में मिलती है और भारत के 1.42 लाख वर्ग किमी. (कुल का 4.30%) भाग में फैली हुई है।

इस प्रकार की मिट्टी में रेत की मात्रा अधिक तथा ह्यूमस की मात्रा कम होती है। इसलिए यह अधिक उपजाऊ नहीं होती।

यह मिट्टी राजस्थान, दक्षिण-पश्चिमी पंजाब तथा दक्षिण-पश्चिमी हरियाणा में पाई जाती है। जहां वर्षा कम होती है, वहां बालू के स्तूप बनते रहते हैं। इनमें खनिज, नमक अधिक मात्रा में पाए जाते हैं, परन्तु ये शीघ्र ही घुल जाते हैं।

जिन क्षेत्रों में सिंचाई की सुविधा उपलब्ध है, वहां पर गन्ना, कपास, ज्वार-बाजरा तथा सब्जियां आदि पैदा की जाती हैं।

(7) लवणीय तथा क्षारीय मिट्टी (Saline and Alkaline Soil )

बिहार, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान तथा महाराष्ट्र के अपेक्षाकृत शुष्क भागों में लवणीय तथा क्षारीय मिट्टी पाई जाती है।

इस मिट्टी को रेह, कल्लर, ऊसर, थूर, कार्ल तथा चोपन आदि कई नामों से पुकारा जाता है। नहरों द्वारा सिंचित तथा उच्च भूमिगत जल स्तर वाले इलाकों में केशिक क्रिया (Capillary Action) द्वारा भूमिगत लवण धरातल पर आ जाते हैं और मिट्टी को अनुपजाऊ बना देते हैं।

(8) पीटी तथा दलदल युक्त मिट्टी (Peaty and Marshy Soil )

पीटी मिट्टी अधिक आर्द्रता वाले क्षेत्रों में अधिक जैव पदार्थ के जमा होने पर बनती है | इनमें घुलनशील तत्व अधिक होते हैं और जैव पदार्थ कि मात्रा भी 10 से 40 प्रतिशत तक होती है।

दलदली मिट्टी मुख्य रूप से पश्चिमी तटीय मैदान में पाई जाती है। उड़ीसा, तमिलनाडु के तट तथा पश्चिम बंगाल के सुन्दर वन क्षेत्र में भी यह मिट्टी पाई जाती है |

वर्षा ऋतु में अधिकांश पीटी मिट्टियां जल में डूबी रहती हैं; परन्तु वर्षा ऋतु समाप्त होते ही इन पर चावल की फसल बोई जाती है।

यह भी देखें

मृदा का वर्गीकरण और मृदा अपरदन

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भारत : जलवायु, वनस्पति तथा वन्य प्राणी ( भूगोल, कक्षा-6) ( India : Climate, Vegetation and Wildlife ( NCERT, Geography, Class -6, Chapter 8 )

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