( ‘फैसला’ कहानी मैत्रेयी पुष्पा की बहुचर्चित कहानी है | इस कहानी का कथ्य सदियों से पुरुष द्वारा नारी पर किए जा रहे अत्याचारों पर आधारित है | कहानी दर्शाती है कि पुरुषप्रधान समाज ने नारी को परम्परा के नाम पर ऐसे बंधनों में बाँध दिया है कि आज की आधुनिक नारी भी उन बंधनों से मुक्त नहीं हो पा रही | )
आदरणीय मास्साब,
सादर प्रणाम!
शायद आपने सुन लिया हो। न सुना होगा तो सुन लेंगे। मेरा पत्र तो आज से तीन दिन बाद मिल पाएगा आपको। चुनाव परिणाम घोषित हो गया। न जाने कैसे घटित हो गया ऐसा? आज भी ठीक उस दिन की तरह चकित रह गई मैं, जैसे जब रह गई थी-अपनी जीत के दिन। कभी सोचा न था कि मैं प्रधान-पद के लिए चुनी जा सकती हूँ। कैसे मिल गए इतने वोट? गाँव में पार्टीबन्दी थी। विरोध था। फिर…?
बाद में कारण समझ में आ गया था जब मैंने सारी औरतों को एक ही भाव से आह्लादित देखा। उमंगों-तरंगों का भीतरी आलोड़न चेहरों पर छलक रहा था।
ब्लाक प्रमुख की पत्नी होने के नाते घर-घर जाकर अपनी बहनों का
धन्यवाद करना जब सम्भव नहीं हो सका तो मैं ‘पथनवारे’ में जा पहुंची | आप जानते तो हैं कि हर गाँव में पथनवारा एक तरह से महिला बैठकी का सुरक्षित स्थान होता है। गोबर-मिट्टी से सने हाथों, कंडा थापते समय, औरतें अकसर आप बीती भी एक-दूसरे को सुना लेती हैं।
हमारे सुख-दुःखों की सर्वसाक्षी है यह जगह।
वैसे मेरा पथनवारे में जाना अब शोभनीय नहीं माना जाता। रनवीर ने पहले ही कह दिया था कि गाँव की अन्य औरतों की तरह अब तुम सिर पर डलिया-तसला धरे नहीं सोहतीं। आखिर प्रधान की पत्नी हो।
वे प्रमुख बने तो बंदिशों में कुछ और कसावट आ गई और जब मैं स्वयं प्रधान बन गई तो उनकी प्रतिष्ठा कई-कई गुना ऊँचे चढ़ गई। वे उदार और आधुनिक व्यक्तित्व के स्वामी माने जाने लगे। अन्य
गाँवों की निगाहों में हमारा गाँव अधिक ऊँचा हो गया और मैं गाँव की औरतों से दूरी बनाए रखने की हिदायत तले दबने लगी।
पर मेरा मन नहीं मानता था, किसी न किसी बहाने पहुँच ही जाती उन लोगों के बीच।
रनवीर कहते थे, अभी तुम्हारी राजनैतिक उम्र कम है, वसुमती | परिपक्वता आएगी तो स्वयं चल निकलोगी मान-सम्मान बचाकर।
ईसुरिया बकरियों का रेवड़ हाँकती हुई उधर ही आ निकली थी | आप जानते होंगे, मैंने जिक्र तो किया था उसका कि वह कितनी निश्छल, कितनी मुखर है। यह भी बताया था कि मैं और वह इस गाँव में एक दिन ही ब्याहकर आए थे | आप हँस पड़े थे मास्साब, यह कहते हुए कि नेह भी लगाया तो गड़रिया की बहू से! वाह वसुमती!
बड़ी चौचीती नजर है उसकी। जब तक मैंने यूंघट उलटकर गाँव के रूख-पेड़ों, घर-मकानों, गली-मोहल्लों को निहारा ही था, तब तक उसने हर द्वार-देहरी की पहचान कर ली। हर आदमी को नाप-जोख लिया | शरमाना-सकुचाना नहीं है न उसके स्वभाव में। गाँव के बड़े-बुजुर्गों के नाम इस तरह लेती है, जैसे वह उनकी पुरखिन हो। ऊँच-नीच, नाते-रिश्ते, जात-कुजात के आडम्बरों से सर्वथा मुक्त है |
वह खड़ी-खड़ी आवाज मारने लगी, “ओ बसुमतियाऽऽ…! रन्ना की! रनवीर की दुलहन! ओ पिरमुखिनी!”
सब हँस पड़ी।
बोली, “वसुमती, लो आ गई सबकी अम्मा दादी! टेर रही हैं तुम्हें। हुंकारा दो प्रधान जी।”
वह हाथ में पकड़ी पतली संटी फटकारती, बकरियों को पिछियाती हुई हमारे पास ही आ गई।
झमककर बोली, “पिरधान हो गईं अब तौ! चलो सुख हो गया।”
किसी ने खास ध्यान नहीं दिया।
संटी उठाकर जोर से बोलने लगी, “एछ, सब जनी सुनो, सुन लो कान खोलके! बरोबरी का जमाना आ गया | अब ठठरी बँधे मरद माराकूटी करें, गारी-गरौज दें, मायके न भेजें, पीहर से रुपइया पइसा मँगवावें, क्या कहते हैं कि दायजे पीछे सतावें, तो बैन सूधी चली जाना बसुमती के ढिंग। लिखवा देना कागद। करवा देना नठुओं के जेहल ।”
“ओ बसुमतिया! तू रनवीरा की तरह अन्याय तो नहीं करेगी? कागद दाब तो नहीं लेगी?”
सलिगा ने हमारे हाथ-पाँव तोरे, तो हमने लीलो के लड़का से तुरन्त कागद लिखवाया था कि सिरकार दरबार हमारी गुहार सुनें। रनवीर को हमने खुद पकड़ाया था जाकर। उन दिनों सलिगा हल-हल काँपने लगा था। हाथ तो क्या, उलटी-सूधी जुबान तक नहीं बोल पाया कई दिनों तक। हमारे जानें रन्ना ने कागद दाब लिया सलिगा सेर बनके चढ़ा आया छाती पर।
बोला, “जेहल करा रही थी हमारी? हत्यारी, हमने भी सोच लई है कि चाहे दो बकरियाँ बेंचनी पड़ें, पर तेरे कागद की ऐसी-तैसी..”
संटी फेंककर ईसुरिया ने अपनी बाँहें फैला दीं। सलूका उघाड़ दिया, गहरी खरोचों और घावों को देखकर सखियों के होंठ उदास हो गए।
खिलते चेहरों पर पाला पड़ गया, मास्साब! हँसी-दिल्लगी ठिठुरकर लूंठ हो गई!
गोपी ने हँसने का उपक्रम किया | मुस्कराने का अभिनय करती हुई बोली, “क्या बक रही है तू? कोई सुन लेगा तो कह न देगा पिरमुख जी से?”
वह तुरन्त दयनीयता से उभर आई।
“सुन ले! सुनाने के लिए ही कह रहे हैं हम। रनवीर एक दिन चाखी पीसेगा, रोटी थापेगा और हमारी बसुमती, कागद लिखेगी, हुकुम चलाएगी, राज करेगी।”
“है न बसुमती?”
“साँची कहना, तू ग्यारह किलास पढ़ी है न? और रनवीर नौ फेल? बताओ कौन हुसियार हुआ?”
“अब दिन गए कि जनी गूंगी-बहरी छिरिया बकरियाँ की नाई हँकती रहे। बरोबरी का जमाना ठहरा। पिरधान बन गई न बसुमती?”
“इन्द्रा गाँधी का राज है। बोलो इन्द्रा गाँधी की जै।”
गोपी डपटने लगी, “सिर्रिन, इन्द्रा गाँधी तो कब की मर चुकीं। राजीव गाँधी का राज है।”
“मर गई?, चलो, तो भी क्या हुआ। मतारी बेटा में कोई भेद होता है सो? एक ही बात ठहरी।”
“क्यों जी, झल्लूस कब निकलेगा?”
उसे सहसा याद हो पड़ा।
“रन्ना परिधान बना था तब कैसी रौनक लगी थी। माला पहराई थी। झंडा लेकर चले थे लोग। रन्ना ने तो कंधा-कंधा चढ़कें परिकम्मा की थी गाँव की?”
सरूपी ने उसे फिर समझाया, “ओ बौड़म रन्ना-रन्ना करे जा रही है | पिरमुख जी सबसे पहले तेरी जेहल कराएँगे।”
उसने लापरवाही से सिर झटका, “लो, सुन लो सरूपिया की बातें! रन्ना क्या, तेरा ससुर गजराज भी नहीं कर सकता हमारी जेहल । तेरा जेठ पन्ना भी नहीं कर सकता। है न बसुमती!”
झुंड में से कोई बोल पड़ी, “काहे को मुँह लगती हो इस सरगपताल के। ओ ईसुरिया, तेरी छिरियाँ, वे निकल गईं खेत में।”
“ओ मेरी दइया…” वह संटी फटकारती दौड़ने लगी।
सवेरे की घाम रसोई के ओटले पर रही होगी। चूल्हा जलाकर मैंने तवा रखा ही था। हाथ आटे में सने थे। कोई छाया-सी द्वार पर दिखी।
सही अनुमान लगाती, तब तक तो आवाज आने लगी, “ओ बसुमती! बसुमतियाऽ!”
ईसुरिया थी।
“पंच्याती चौंतरे पर दुरगा बैठा है। पन्ना देख रहा है। तेरी सौं बसुमती, सारे पंच तेरी परतिच्छा में!” वह खुशी से खिल रही थी।
मैंने तुरंत कुसुमा को बुलाया। वह बोली, “तुम जाओ भाभी, हम बना देंगे रोटी”
सभा में जाने लगी तो औरतें किवाड़ों की झिरी से झाँकने लगीं। शायद वह देखने के लिए कि मैं यूँघट डालकर जा रही हूँ या पर्दा त्यागकर।
माथे तक साड़ी का किनारा। न घूघट था न खुला चेहरा।
रास्ते में गोपी मिल गई। ईसुरिया को छेड़ने लगी, “वसुमती भाभी तो सभा में जा रही हैं, तू कहाँ जा रही है ईसुरिया?”
वह तमक गई, “चल! गोपिया की बच्ची! हम बसुमती के सेकटरी ठहरे | सभा में जा रहे हैं। पंचों को टोकते नहीं है।”
“छिरियाँ कहाँ गईं आज?”
“छिरियाँ चराने सलिगा चला गया | जान गया अब कि मरद और औरत बरोबर हो गए, बेटा, अब चलो छिरियाँ चुगाने।
हम चबूतरे के समीप पहुँचने ही वाले थे कि रनवीर आते दिखाई दिए।
के लपकते कदमों से हमारे पास आकर रुके। मुख पर आश्चर्य की रेखाएँ थीं और नाक तथा होंठ कठोर मुद्रा में अकड़े हुए।
उत्तर ईसुरिया ने दिया, “पिरमुख जी, हम पंचायत में जा रहे हैं।”
बोले, “कहाँ?”
अगाई छोड़ो। रस्ता दो।”
उसके कहे वाक्यों को सुनकर वे मुझसे मुखातिब हुए, “घर चलो तुम।”
ईसुरिया मुँह बाए खड़ी रह गई।
कुछ ही क्षणों में सम्भलकर बोली, “टोका-टाकी न करो पिरमुख जी | चलने दो हमें।”
रनवीर की त्यौरियाँ झुलस आईं।
“सुन नहीं रहीं बसुमती तुम?”
उनकी आग्नेय दृष्टि मेरे पाँवों को जलाने लगीं। उमंग गतिहीन हो गई।
ईसुरिया अड़ी खड़ी थी। उसकी ओर मैंने समझदार संकेत किया कि लौट चलने में ही मंगल है। उसने मुझे विचित्र भाव से घूरा और विवश भाव से मेरे पीछे-पीछे खिचड़ आई।
लौटकर मैं बर्तन समेटने लगी। कुसुमा के अनकहे प्रश्नों का उत्तर मेरे पास नहीं था। घुटन ज्यों की त्यों ठहरी हुई थी सीने में।
इसुरिया आँगन में बैठी बड़बड़ा रही थी, “लो, हद्द हो गई कि नहीं? हौदा पर तो बसुमती और राज करे रनवीर!
अरे अपनी पिरमुखी सम्भारें। पिरधानी से अब इन्हें क्या मतलब?”
कुसुमा से नहीं रहा गया, “मतलब कैसे नहीं है? रामकिसुन कुम्हार से रुइपया वसूल करने हैं। बनीसिंह को बचन दे रखा होगा। भाभी जाती, तो क्या मालूम उलटा हो जाता फैसला।”
बेचारे रामकिसुन ने छान-छप्पर के कारण अपना बैल बेच डाला था कि बिन छत के कैसे रहे चौड़े में। बनीसिंह राच्छत, पहले तो बैल खरीद ले गया और खलियान उठाते ही आ गया लौटाने। कहता है यह मरघिल्ला बैल उसे नहीं चाहिए। लौटाओ रुपइया।
अब कहाँ से आवे रुपइया? छान बेच दे क्या? छान बिकती है
क्या? कौन करे न्याय? रनवीर तो गरीब को ही मारेंगे। तुम चली जाती तो बच जाता कुम्हार का।
ईसुरिया भारी कदमों में लौट गई अपने घर।
मास्साब, मेरी आत्मा में किरचें चुभती रह गईं।
लौटकर रनवीर ने खूब समझाया था, “पंचायती चबूतरे पर बैठती
तुम शोभा देती हो? लाज-लिहाज मत उतारो। कुल-परम्परा का ख्याल भी नहीं रहा तुम्हें? औरत की गरिमा आढ़-मर्यादा से ही है। फिर तुम क्या
जानो गाँव में कैसे-कैसे धूर्त हैं?”
उस दिन के बाद पंचायती चबूतरे से प्रधान की टेर निरन्तर उठती रही। लोग जानते थे कि रनवीर इस बात को पसन्द नहीं करते, फिर भी बुलाने चले आते।
मैं ही पस्तहिम्मत थी या कि पति की प्रतिच्छाया मेरे भीतर निवास करती थी, देहरी उलाँघते ही कोई बरजने लगता, “हम हैं तो सही। अब तक भी तो करते रहे हैं। तुम्हें क्या जरूरत है बाहर आने की?”
उत्तर में मन उफनता। आक्रोश से सवाल की सीमा तक होंठ खुलते, मगर पत्नी होने के नाते सब कुछ सिराने लगता। दूध के झाग सा बैठ जाता विरोध।
मास्साब, मैंने कितने दिनों तक सोचा था कि दस्तखत नहीं करूँगी। करने दो मनमानी।
रनवीर रजिस्टर लिए चारपाई पर बैठे थे। मैं कामों में उलझी थी। सवेरे का समय वैसे भी खाने-पीने से लेकर दूध-घी की सार-सम्भाल में निकल जाता है, ऊपर से मईदारों का कलेऊ-पानी। वे आवाज दे चुके थे, शायद कई बार। मैं फिर भी खाली नहीं हुई।
“सुनो मैं लिखत-पढ़त कब का निबटा चुका, तुम्हें दस्तखत करने का समय नहीं?”
वे झल्ला उठे, “कब तक बैठा रहूँ? ब्लाक पहुँचना है मुझे। एक हफ्ते से घुमा रही हो।”
धोती के पल्ले से हाथ पोंछती पहुँच गई मैं। उनके निकट जा खड़ी
हुई।
“लो करो दस्तखत” उन्होंने खुला पेन पकड़ा दिया।”
“तुम सोच क्या रही हो? अभी तक तो बीस बार कर चुकी होती।” मैंने खुला पेन बन्द कर दिया।
आँखों में सवाल का जंगल उग आया। भटकती रही मैं। क्या रनवीर उबार नहीं सकते मुझे? आसपास से नुकीले काँटे यों ही छेदते रहेंगे?
रनवीर इसी तरह चले होंगे अपने प्रधान काल में, या किसी दूसरी
तरह। पूछना तो चाहिए न, शायद कोई मार्ग…
रनवीर?
वे मुख खोले देखते रहे।
मजूर आए थे मेरे पास, कहते थे कि अभी तक गारा-पत्थरों की ढुलाई की मजदूरी…?
गाँवों की औरतें ताना देती हैं कि भली हुई तुम प्रधान, अपने द्वारे पर ही पक्का खरंजा करा लिया। अपनी गली ही पत्थरों से जड़ ली। हमसे क्या बैर था बहन कि कीचड़ में ही छोड़ दिए। बच्चों को स्कूल भेजते डर लगता है, छत आज गिरी कि कल। आपके अलावा कौन सुधरवा सकता है उसे।
कौन कहेगा कि यह पिरमुख का गाँव है? गड्ढों में पानी, पानी में मच्छर। कूड़ा-कचरा। घर-घर जूड़ी ताप। कुछ दवा-दारू होती। गड्ढों की पुराई, जैसे लालपुर में।
“कुछ भी तो नहीं हुआ जवाहर रोजगार योजना के पैसे से?”
रनवीर की आँखें फैलती चली गईं।
दृष्टि धीरे-धीरे खौलने लगी।
उनके चक्षुओं से ऐसे अग्निबाण बरसने लगे कि मैं खड़ी-खड़ी भस्म होने लगी। मास्साब, मेरे बोल तपते तवे पर पड़े छींटों की तरह जलने लगे।
“गाँव की औरतें कह रही थीं या तुम?”
“ये गाँव की औरतें कब से बोलने लगीं?”
“प्रधान के कर्त्तव्य और अधिकार वाली पुस्तिका रटी है क्या?”
“तुम प्रधान हो कि एम.एल.ए?”
उनके चेहरे को विद्रूप हँसी ने ढाँप लिया।
“च् च् च्…! हमसे तो कभी किसी ने कुछ नहीं पूछा और तुमसे इतने ढेर सवाल?”
रनवीर की भाषा बड़ी तीक्ष्ण थी। काँपते हाथों से चुपचाप लिख लिया, बसुमती देवी।
दस्तखत! इस रुपये को जिस दिन हस्ताक्षर करके लाई थी, उन दिनों स्वर्ग के सपनों में विचरा करती थी। चमचमाते स्कूल और पक्की गलियों की चाह थी मन में। वर्षा की रौ में ढहे झोंपड़ों को सँवार देने की आकांक्षा की थी। हाथ पर हाथ धरे बैठे बेरोजगारों के घर दुर्दिनों में चूल्हा जलाने की बात सोची थी। बीमारों के दर्द को हरने के लिए कुछ दवा-गोली की साध थी।
‘बसुमती देवी’ इन छः अक्षरों ने सपनों के घरौंदे का कण-कण आहत कर डाला।
एक वृद्धा ने आ किवाड़ खटखटाया।
“ओ बेटा, बसुमती!”
पानी का घड़ा घड़ोंची पर रखती, तब तक रनवीर का छोटा भाई देववीर जा पहुँचा द्वार पर।
“क्या है दादी?”
“बेटा, तनक अपनी भौजाई को भेज।”
“पंचायत के लिए बुलाने आई हो क्या?”
“और काहे को लिवा जाएँगे भइया!”
“दादी, जाओ यहाँ से। भइया घर पर नहीं हैं। भाभी नहीं जा सकेंगी।”
“काहे नहीं जा सकेगी? पिरधान नहीं है क्या वह? पंच्यात में तो जाना ही पड़ेगा भइया।”
“तुम लड़ाई करवाओगी हमारे घर में?”
“लड़ाई की क्या बात ठहरी बेटा? जे तो पहले ही सोचनी थी तुम्हें |
मैं पौर में आ चुकी थी। बूढ़ी अम्मा ने देख लिया। वे पाँवों में गिर पड़ी, ‘बेटी बसुमती! लाचारी तो समझ हमारी। फिर हमारे जमाई को छुट्टी नहीं मिलेगी। लाम की नौकरी ठहरी। हमारी बेटी का न्याय-फैसला करवा बहू।”
मैं खड़ी-खड़ी उनकी सुनती रही।
“बेटा, लड़की का दर्द देखा नहीं जाता अब। बाप राच्छत है। चैन से जीना नहीं बदा हमारे भाग में।” कहते-कहते वृद्धा के कोये भीगने लगे। धार बह उठी, झुर्रियों-भरे मुख पर।
क्या करती, कोई चारा न था। सांत्वना थी मेरे पास, सो देती रही,
“न्याय मिलेगा अम्मा। भरोसा रखो। पंच अन्याय थोड़ेई करेंगे?” उस समय न जाने कैसे निर्णय ले डाला कि ठिठके कदम अम्मा के संग चल पड़े। देववीर रोकता रह गया।
फैसला करवाकर आई तो अपूर्व तोष में भीगी हुई थी। अनाम आर्द्रता और प्रेमिल निष्ठा के साथ लिया निर्णय। पवित्र मन्दिर-सा लगा था पंचायत वाला चबूतरा, जिस पर बैठकर रुके हुए सड़े जल को जैसे काटकर बहा दिया हो मैंने। सम्पूर्ण गन्दगी रिता दी हो अपने हाथों से। अब मानो नई वाटिका का बीजारोपण होगा वहाँ।
रनवीर ने उस रात धीमे से घर में प्रवेश किया। उनका गम्भीर चेहरा दहला देने की हद तक विध्वंसात्मक हो उठा।
मेरे कलेजे को जैसे कोई खुरों से खूदने लगा। सनसनाती निस्तब्ध रात में उनका स्वर धीमे से ही बहा, लेकिन भीतर घुला जहर मुझे आपदमस्तक नहलाता चला गया।
“कचहरी करने का इतना शौक था तो बाप से कहकर वकालत पढ़ ली होती! बार-बार मना करने पर भी…!”
मुझसे जवाब नहीं बना उनके कहे वाक्य का।
“यह रोज-रोज की नौटंकी! रात-दिन की नाटकबाजी! बताओ कब
बन्द करोगी?” रनवीर ने घर के शून्य में विस्फोट किया |
डर के कारण घिग्घी बँधने लगी। लगा कि पूरी देह में कम्पन की लहरें उठ रही हैं।
अनायास ही बोल पड़ी, “मैं अपने आप नहीं गई थी, अम्मा और उनकी बेटी बुलाने आई थीं। हरदेई का दुःख कौन नहीं जानता?”
“सबसे ज्यादा तो तुम जानती हो।”
“हरदोई गिड़गिड़ा रही थी, कहती थी कि रनवीर भइया नहीं समझेंगे मेरी पीर। तुम औरत हो भाभी, मेरा दुःख समझो, न्याय करो। पति की लाम की नौकरी है, छुट्टी अब दो साल बाद ही मिल पाएगी, पूरे सात साल निकल गए इसी तरह।”
“हमारे दादा तो सोचते हैं कि मुझे भेज दिया तो दामाद एक पैसे
का मनीआर्डर नहीं करेगा। ताले में बन्द कर देते हैं मुझे। इनसे नहीं मिलने देते। अम्मा किसी तरह खोल दे तो पता चलते ही घर में हड़कम्प। गन्दी-गन्दी गालियाँ।”
“तीन बार शहर जाकर खतम कराया है पेट का बच्चा। तुमने देखे हैं भाभी, ऐसे पिता?”
“यही सोचते रही, काश! तुमने फैसला कर दिया होता।”
वे आँखें गाड़कर बोले, “कैसा फैसला? जैसा तुम करके आई हो?
जंगल में रह रही है हरदेई? बेटी आप घर कि बाप घर।
“वह मलटेरिया कहाँ रखेगा उसे?”
“कहीं भी। दोनों में प्रेम है तो क्या घर और क्या बन।”
वे झटके से उठ पड़े, “तो मैं रोक रहा हूँ उसे?”
सारी थरथराहट के बावजूद न जाने कैसे शब्द होंठों से झड़ पड़े,
“मैंने तो सुना है कि उसे हाकिमों के पास उनकी हवस पूरी करने को”
“अच्छा?” उनकी जीभ लपेटा खाने लगी।
“तुमने यह नहीं सुना कि उसके नालायक भाई की नौकरी कैसे लगी? तुम्हें यह नहीं बताया कि उसका बाप सीमेंट की दलाली निधड़क किसकी कृपा से कर रहा है, कि पक्का मकान कैसे उठा है? किस हितू की हिमायत पर हो रहे हैं सारे काम?
“मेरा तो उसमें कोई लाभ नहीं?”
“तुम तो सारी कथा जानते हो फिर क्यों नहीं छुड़ाते उसे, उसके
बाप के फन्दे से?”
“तुमने छुड़ा तो दी। मेरे खिलाफ फैसला इस तरह छीछालेदर।”
“मेरा ऐसा इरादा कतई नहीं था।”
“फिर उस दिन कैसा इरादा था, जब रामसिंह को पुलिस पकड़ ले जा रही थी? क्यों भागी थीं पुलिस वैन के पीछे पागलों की तरह। होश
खोकर।”
“क्या कहते होंगे दरोगा जी? क्या सोचते होंगे लोग? यही कि प्रमुख की पत्नी का ऐसा कंजर तरीका!”
“शरम से गड़ गया न मैं।”
“आगे ये नाटक रचे तो समझ लेना कि…”
“सुनो, रामसिंह दोषी नहीं था। निर्दोष को सजा?”
वे क्रोध से काँपने लगे।
“सुन ले! और समझ ले अपनी औकात! मजबूरी में खड़ी करनी पड़ी। मैं दो-दो पदवी नहीं रख सकता था एक साथ। सोचा था पत्नी से अधिक भरोसेमन्द कौन…”
उनके चेहरे पर ‘भरोसेमन्द’ शब्द कहते हुए जहरीली हँसी उतर
आई जो मेरे कलेजे में धार करती चली गई।
वह पूस की ठंडी रात थी। शिला की तरह जमा देने वाला शीत। मैं बाहर ही बैठी रही। ठिठुरन से मुख घुटनों में गाड़ लिया। हाथ-पाँव
सुन्न होने लगे थे। मन बड़ा अस्थिर था। लगा कि इस समय यह घर, यह गाँव, यह धरती-आसमान त्याग जाऊँ, कहीं चली जाऊँ।”
आधी रात निकल गई होगी। उसी धुंध में लगा कि परछाई निकट को सरकती चली आ रही है। पैछर पर चेहरा उठाकर देखा, रनवीर थे। वे समीप आ बैठे।
सिर पर हाथ फेरते हुए मनुहार करने लगे, “चलो भीतर। सोओ चलकर। ठंड बहुत है। कहा मानो।”
धोती झाड़ती हुई मैं बुत की तरह उठ बैठी, अकड़ी हुई-सी।
अरागात्मक भावना के चलते अपने आप को ढकेलती रही कमरे के भीतर | न विरोध करने की इच्छा हुई, न उलाहना देने की आत्मीयता जागी।
वे समझाते रहे, पति-पत्नी में कोई अन्तर होता है? पगली, एक-दूसरे के लिए ही जीते-मरते हैं। गाँव वालों को लेकर विरथा अपने हमसे जलते हैं सब। देखा नहीं जाता कि पति प्रमुख और पत्नी प्रधान। चाहते हैं कि तुम द्वार-द्वार डोलो। लोंडे-लपाड़े हँसी-ठट्ठा करें। लोगों को कहने का मौका मिले कि रनवीर की घरवाली पराए मदों के बीच…. “
मन में क्लेश पाल बैठी।
आपको याद होगा मास्साब, जिस दिन मैं प्रधान बनी थी, उस दिन आपने एक छोटी-सी चिट्ठी लिखी थी मेरे नाम। उसमें मेरे सुखद भविष्य की, मेरे पति-परायण होने की कामना की थी आपने। साथ ही नया सूरज ढूँढ़ने की आस जगाई थी। संबंधों को जीतने की चुनौती भेजी थी। लिखा था, बसुमती, अपने आँगन में सत्य के खम्भे गाड़कर ईमानदारी की छाल डालो कि दीन, दलित, त्रस्त, अभिशप्त छाँह पा सकें। यह कहाँ तक सम्भव हो पाता है, आप भी जानते होंगे।”
लेकिन आपकी उस लिखावट ने मुझे विचलित अवश्य कर दिया।
मैं भूल गई मास्साब कि पदवी प्राप्त आदमी छल-बल और आतंक से जिस प्रजा का दमन करता है, उससे मैं अलग नहीं हूँ।
काश, मैं ईसुरिया होती! आढ़-मर्यादा की दीवारों के बाहर मुक्त आकाश तले। कुलीन कही जाने वाली थोथी परम्पराओं के भरम से परे।
काश! रनवीर के पास अभिजात्य की तुरप चाल न होती तो परों को
बींधता हुआ यह पिंजड़ा मैं साथ ही उड़ा ले जाती।
भोर होने लगी थी शायद। पंछियों की चिचियाहट सुनकर मैं बैठी। यद्यपि देह में निद्रा और सुस्ती के लक्षण न थे, फिर मन मार निरस्तता के चलते रोम-रोम अनमना था।
चौका-चूल्हा लीप-पोत दिया। कंडे सुलगा दिए। रनवीर को कुल्ला-दातुन से पहले चाय पीने की आदत बन गई है। चाय डालकर कप-प्लेट भीतर ले जा रही थी कि दरवाजे की ओर से आती चीख-चिंघाड़ आँगन में मँडराने लगी।
“ओ रन्ना की दुल्हन! ओ बसुमतियाऽऽ…”
“अरी बाहिर तो आऊऊ…”
“विरथा है तेरी विद्या! खाक है तेरी पढ़ाई! और राख हो गई तेरी पिरधानी!”
यह कातर करुण स्वर! यह रोदन की लय में छटपटाती ईसुरिया!
विलापात्मक करुणा सनी प्रकम्पित आवाज…! हाथ में थमा प्याला
थरथराने लगा। न जाने क्या हो पड़ा।
“अरी जल्दी आ जा! बड़े पीपरा तरें कुआँ में कूद के हरदेई ने पिरान तज दिए।” मैं काठ हो गई।
उलटी तरफ भागने लगी-रनवीर के कमरे की ओर। टाँगें काँप रही थीं। साँसों में अवरोध टकरा रहा था। विश्वास नहीं हो रहा था, पर भीतर ही भीतर कोई अदृश्य, अस्पष्ट बसूला आत्मा को छीलने में लगा था।
रनवीर बिस्तर पर नहीं थे। देह शिला से भी भारी होने लगी। पाँव गतिहीन…। निढाल हुई, आँगन में ही बैठ गई।
किसने उलट दिया निर्णय? रात ही रात में सब कुछ विपरीत कैसे हो गया? पंचों का फैसला रद्द किसने किया? किसने रोका उसे पति के संग जाने से?
ईसुरिया ने मुझे कंधों से झकझोर डाला, “अब बैठी ही रहेगी! झंडा उठाके चली थी तेरे नाम का।”
आखिरी समय मुख तो हेर ले! हरदेई तुझे वोट देने गई थी। झल्लूस में
“हाँ, उसकी अनोखी आनबान वाली छवि…आँखों में तिर आई-“बसुमती देवी जिन्दाबाद! बसुमती भाभी अमर रहें!”
पर ईसुरिया का शोकगीत थमा न था, “अच्छा होता बसुमती, हम अपना वोट काठ की लाठिया को दे आते, निरजीव लकड़ी को! उठाए उठती तो। बैरी पर वार तो करती। अतीचालों के विरोध में पड़ती। पर रनवीर की दुलहन, तुम तो बड़े घर की बहू ही रहीं। पिरमुख जी की पतनी। पूँघट में लिपटी पुतरिया-सी चलती रही, आँखें मूंद के।”
पीपल तले पहुँची।
वहाँ भी क्या हुआ? क्या होना था?
दरोगा, सिपाही और रनवीर, गाँव के मुँह देखा लोग, विराजमान थे वहाँ।
हरदेई के पिता के रोदनमय बयानों पर पुलिसिया कलम चल रही थी-“दहेज के लोभी पति से मार-पीट हुई थी, रात के समय। उसकी
बिगड़ी हुई आदतों के चलते हम अपनी बेटी को नहीं भेजते थे उसके साथ। पर होनी को नहीं टाल पाए, दरोगा जी! पिरान खो दिए मेरी हरदेई ने। माँ बेहोस पड़ी है घर में।”
ईसुरिया विक्षिप्तों की तरह आगे को भागी, दहाड़ मारकर कहने लगी, “ओ दरोगा जीऽऽ…असल बात तो…”
रनवीर ने बात बीच में ही रोक ली, “अरे! कहाँ भागे जा रही है तू? न्याय मिलेगा। उस हत्यारे को फाँसी न करवाई तो नाम रनवीर नहीं। जा घर। बसुमती को लिवा जा।”
पंचनामा कराके दरोगा जी की जीप में रनवीर सादर बैठे चले गए। पीछे गर्द-गुबार, धुंध में लिपटे लोग त्राहि-त्राहि करते अपने-अपने घरों को लौट लिए।
लौटकर अपने आँगन में मैं संतप्त औरतों के बीच बैठी रही। लग रहा था जैसे इसी घर से अर्थी उठी हो।
अनेक अनबूझ प्रश्न अटके थे आसपास थकी-पथराई आँखों में।
पति-पत्नी के पुण्य-पावन संबंध के नीचे विचलित खगी और शक्तिमान अहेरी का संगमन…
क्या औरतें पहचानती थीं अहंकारात्मक आत्मीयता को? नहीं तो वे
मूक-बधिर-सी उठकर क्यों चली गईं?
समय बीतता गया। प्रमुख का चुनाव आ गया।
रनवीर फिर प्रत्याशी थे।
उन्हें दम लेने की फुरसत नहीं थी इन दिनों। मेरे पास भी घर भीतर का काम बहुत अधिक था। सुबह से जला चूल्हा रात तक बुझ पाता। फिर भोजन के अतिरिक्त खाट-बिस्तरों का प्रबंध। आवाजाही के चलते ब्याह-सा मचा था घर में।
रनवीर कहते हैं, गाँव का आदमी इतना भोला नहीं जितना समझा जाता है। फिर वह, जो राजनीति के चक्रव्यूह भेद चुका हो, वह पारंगत तो शहरी नेताओं को पटखनी खिला दे |
एक-एक प्रधान का नखरा साधना था रनवीर को। मेरे ख्याल से तहसील-भर के प्रधानों ने हमारे घर आकर जुहार किया रनवीर को। चर्चा तो यहाँ तक हुई कि अबकी बार रनवीर, प्रमुख के बाद एम.एल.ए. के लिए खड़े होंगे।
ठीक बात थी। रनवीर बड़े चतुर हैं। बोतल-बीड़ी के निखालिस आधार पर नहीं टिकते। दुआ-सलाम में तो कतई भरोसा नहीं है उनका। आफत-विपद में काम आने वाले आदमी ठहरे।
दरियापुर वाले इसीलिए उनसे बाहिरे नहीं हो सके। हालाँकि विपक्ष में खड़ा प्रत्याशी उनका रिश्तेदार ठहरा। कारण था, उनको ग्राह के फन्दे से भगवान की तरह छुड़ा लाए थे रनवीर। नहीं तो बहू ने तो स्पष्ट बयान दिए थे कि बीस हजार नकद दहेज के कारण जलाया है मुझे। बाप-बेटा फाँसी के फन्दे पर लटक गए होते, या फिर आजन्म कारावास। रनवीर की कृपा से ही तुर्रेदार साफे का गरूर बरकरार है।
हवा इस तरह की चली कि तीन प्रत्याशी चुनाव के पहले ही घुटने टेक गए। मैदान में केवल एक बचा, वह भी लुहार का लड़का। नादान था शायद।
मेरे लिए शाम को जीप भिजवा दी। घर का काम था कि सिमटने में ही न आता था। बस किसी तरह पहुँच गई। वैसे न भी जाती तो भी क्या अन्तर पड़ता! मैंने तो यही कहा था रनवीर से। वे ही नहीं माने। कहने लगे, लोग हँसेंगे कि प्रमुख जी की पत्नी प्रधान हैं और वोट देने नहीं आईं।
वोट डालकर लौट आई। रनवीर रात के समय लौटे थे।
जीप की सर्चलाइट देखते ही गाँव के लोग दरवाजे की ओर जुड़ आए।
रनवीर सीधे बैठक में आ गए। वे बहुत थके हुए थे, माथे पर पसीने की बूंदें चुहचुहा रही थीं। पानी लेकर पास जा पहुंची।
वे चुप थे।
लोग इन्हें अस्वस्थ-से देखकर इधर-उधर हो गए।
एकान्त में माथे पर हाथ फेरा तो वे अधिक गम्भीर हो उठे। चेहरा दयनीय हो आया।
थोड़ी देर में ही वे रेत में पड़ी मछली-से तड़पने लगे। समझने को कुछ शेष नहीं था |
मास्साब, मैं पराजय पर सांत्वना देने लगी, “धीरज रखो। कोशिश करना तुम्हारा काम था, हार-जीत तो लगी रहती है।”
“दिलासा तो दे रही थी लेकिन मेरा मन भी रुंध-खुद गया। कभी उनके हाथ सहलाती, कभी पाँव दबाती। भीतर से कुंडी बन्द कर ली।”
“मास्साब, यह लिखने की बात नहीं है, पति को धीरज देने का सम्भव प्रयत्न किया था मैंने। मन-से-मन और देह-से-देह मिलाकर ताप हरना चाह रही थी उनका।”
वे एकालाप में डूबे थे, “वे कौल, वे करार, वह गंगाजली उठाकर सौगन्ध खाना। सब भ्रम था बसुमती?”
“कि धोखा?”
“उन्हीं अन्तरंग क्षणों में बाहर बतियाता देववीर का स्वर मेरे कानों पर हावी हो गया, “अगर एक बोट और होता तो भइया हारते नहीं। उसके बराबर आ जाते।”
लुहरटा एक बोट!
विश्वास नहीं कर सकी मैं।
सहसा मेरे भीतर सब कुछ डाँवाडोल होने लगा।
“ओ मेरे अग्नि देवता! ओ सप्तपदी दिलाने वाले महापंडित! ओ मेरे जननी-जनक! और मास्सब आप, मेरे गुरुवर…आपने मुझे सुख-दुःख की
सहभागिनी, अर्धांगिनी, सहचरी बनाकर रनवीर की पत्नी के रूप में विदा
किया था। लेकिन मैं क्या करती?”
“अपने भीतर की ईसुरिया को नहीं मार सकी। क्षमा करना।”
आपकी-बसुमती
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