भूगर्भिक संरचना पर किसी प्रदेश का उच्चावच अथवा धरातल तथा वहां की मृदा की बनावट निर्भर करती है | भूगार्भिक संरचना के अध्ययन से ही हमें भूगर्भ में छिपे हुए बहुमूल्य खनिजों की जानकारी मिलती है | अतः किसी भी देश का भौगोलिक अध्ययन करने से पूर्व वहां की भौगोलिक संरचना का ज्ञान होना अनिवार्य है | भारत की भूगार्भिक संरचना का वर्णन इस प्रकार है —
भूगार्भिक संरचना
भूगर्भ में चट्टानों की प्रकृति, उनके क्रम तथा व्यवस्था को भूगर्भिक संरचना कहते है। स्थलरूपों के विकास को नियन्त्रित करने वाला मुख्य कारक भूगाभिक संरचना ही है।
भारत की भूगार्भिक संरचना के आधार पर इसे तीन मुख्य भागों में विभाजित किया जा सकता है: —
i हिमालय अथवा नवीन मोड़दार पर्वत श्रेणियां।
ii. सिंधु-गंगा-ब्रह्मपुत्र का मैदान।
iii. प्राचीन प्रायद्वीपीय भारत।
भारत की भूगार्भिक संरचना के इतिहास का अध्ययन करने से पता चलता है कि यहां पर विश्व की प्राचीनतम चट्टानों से लेकर नवीनतम चट्टानें पाई जाती है।
भारतीय भू-वैज्ञानिक विभाग (Geological Survey of India) ने भारत के शैल समूहों को चार वृहत् भागों में बांटा है। इनके नाम हैं: —
(1) आद्य महाकल्प (The Archean Era)
(2) पुराण महाकल्प (The Purana Era)
(3) द्रविड़ियन महाकल्प (The Dravidian Era)
(4) आर्य महाकल्प (The Aryan Era)
(1) आद्य महाकल्प अथवा आर्कियन समूह की चट्टानें (Rocks of Archean Era)
ये चट्टानें निम्नलिखित दो प्रकार की हैं: —
(क) आर्कियन क्रम की चट्टानें (Rocks of Archean System)
ये अति प्राचीन काल की चट्टानें हैं, जिनका निर्माण लगभग 120 करोड़ वर्ष पूर्व ठंडा होने पर सबसे पहले हुआ। पृथ्वी की हलचलों के कारण इनका अत्यधिक रूपांतरण हो चुका है और ये अपना वास्तविक रूप खो चुकी हैं |
नाइस (Cneiss), शिष्ट (Schist) तथा लाटर महत्वपूर्ण सभी स्फटिक अथवा रवेदार (Crys. Tolline) पटाने जिनम जीवावशेषों का अभाव है | इनमें कहीं-कहीं आग्नेय, मैग्मा तथा कायांतरित अवसादी चट्टानें भी मिलती हैं |
इनका विस्तार कर्नाटक, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, आन्धप्रदेश, तमिलनाडु, ओडिशा, झारखंड के छोटा नागपुर पठार तथा राजस्थान के दक्षिणी पूर्वी भाग में है। मुख्य हिमालय में भी इस क्रम की चट्टानें पाई जाती है।
(ख ) धारवाड क्रम की चट्टाने (Rocks of Dharwar System)
आर्कियन क्रम की चट्टानों के बाद धारवाड़ क्रम की चट्टानों का निर्माण हुआ। ये चट्टानें आकियन क्रम की चट्टानों से प्राप्त होने वाले पदार्थ से बनी हैं। इनमें जीवावशेष नहीं पाए जाते हैं।
इस क्रम की चट्टानों का जन्म कर्नाटक के धारवाड़ तथा शिमोगा जिलों में हुआ है। धारवाड़ जिले में इनका अधिक विस्तार है, इसलिए इन्हें धारवाड़ क्रम की चट्टानें कहते हैं। इनका विस्तार तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड तथा राजस्थान में अरावली श्रेणी में भी मिलता है।
उत्तरी भारत में ये चट्टानें लद्दाख, जास्कर, गढ़वाल, कुमाऊं, स्फीति घाटी तथा मेघालय पठार में मिलती है। आर्थिक दृष्टि से ये चट्टानें भारत में पाई जाने वाली सभी चट्टानों से अधिक महत्वपूर्ण हैं।
देश के लगभग सभी महत्वपूर्ण खनिज इन्हीं चट्टानों में मिलते हैं। लोहा, मैगनीज, सोना, तांबा, टंगस्टन, क्रोमियम, जस्ता, फ्लूराइट, इल्मेनाइट, सीसा, ग्रेफाइट, अभ्रक, कोबाल्ट, संगमरमर, एस्बेस्टस, काइनाइट, कोरंडम, गार्नेट, चूना-पत्थर आदि प्रमुख खनिज हैं।
(2) पुराण महाकल्प की चट्टानें (Rocks of Purana Era)
पुराण महाकल्प की चट्टानों का निर्माण 55 करोड़ वर्ष पूर्व हुआ और ये चट्टानें आद्य महाकल्प की चट्टानों की तुलना में बहुत कम पुरानी हैं |
इन चट्टानों में भी जीवावशेष नहीं होते। ये चट्टानें मुख्यतः आन्ध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, तमिलनाडु तथा राजस्थान में पाई जाती हैं।
कहीं-कहीं हिमालय क्षेत्र में भी शैल समूह मिलते हैं। पुराण महाकल्प के वे शैल समूहों का उनके क्षेत्र के अनुसार कई उपविभागों में विभक्त किया जाता है।
(क) कुडप्पा क्रम की चट्टानें (Rocks of Cuddapah System)
इन चट्टानों का नामकरण आंध्र प्रदेश के कुडप्पा जिले के नाम पर किया गया है। यहाँ ये चट्टानें विस्तृत क्षेत्र में अर्द्ध-चन्द्रकार रूप में पाई जाती हैं |
मध्य प्रदेश के रीवा एवं ग्वालियर क्षेत्रों तथा छत्तीसगढ़ में भी इन चट्टानों का विस्तार मिलता है। इसके अतिरिक्त ये चट्टानें राजस्थान, महाराष्ट्र, तमिलनाडु में भी मिलती हैं ।
कुछ छितरे रूप में ये चट्टानें उत्तरी कर्नाटक के बेलगाम व गोदावरी की मध्यवर्ती घाटी तथा हिमालय के कश्मीर एवं हिमाचल प्रदेश में भी पाई जाती हैं।
इन चट्टानों का निर्माण धारवाड़ क्रम की चट्टानों से प्राप्त हुए पदार्थों द्वारा हुआ है।
इस निर्माणकारी सामग्री में शैल, स्लेट, क्वार्टजाइट तथा चूना-पत्थर की प्रधानता है।
धारवाड़ युग की चट्टानें जलज क्रियाओं से अपरदित होकर समुद्र व नदियों की निचली घाटियों में निक्षेपित हो गयीं। कालान्तर में इन्होंने परतदार चट्टानों का रूप धारण कर लिया, जिन्हें आज हम कुडप्पी की चट्टानें कहते हैं।
समय के साथ-साथ इन चट्टानों का बड़े पैमाने पर रूपांतरण हुआ है, परन्तु यह रूपांतरण धारवाड़ की चट्टानों के रूपांतरण से कम है। इन चट्टानों में जीवावशेष नहीं मिलते, हालांकि उस समय पृथ्वी पर जीवन का आविर्भाव हो चुका था।
इन चट्टानों का आर्थिक महत्व धारवाड़ चट्टानों की अपेक्षा कुछ कम है; क्योंकि इनमें खनिज अपेक्षाकृत कम मिलते हैं । इनमें यत्र-तत्र बेसिक लावा-भित्तियां मिलती हैं, जिनमें से गोलकुण्डा के प्रसिद्ध हीरे उपलब्ध हुए हैं।
छत्तीसगढ़ की रायपुर शैलमाला में लौह अयस्क मिलता है। कुडप्पा तथा करनूल जिलों में टाल्क व एस्बेस्टस प्राप्त होते हैं।
पूर्वी राजस्थान की कुडप्पा चट्टानों से तांबा तथा कोबाल्ट प्राप्त होते हैं। मैंगनीज, संगमरमर, रंगीन पत्थर, बालू का पत्थर, चूने का पत्थर तथा सीसा भी कुडप्पा चट्टानों से प्राप्त किए जाते हैं।
(ख ) विन्ध्यन क्रम की चट्टानें
इनका नाम विंध्याचल पर्वत के नाम पर पड़ा है। इन चट्टानों का निर्माण कुडप्पा क्रम की चट्टानों के अनाच्छादन होने के बाद उनके ऊपर अवसाद का निक्षेप होने से हुआ है।
ये निक्षेप समुद्र व नदी घाटियों में हुए थे। इन चट्टानों से प्राप्त होने वाले बलुआ पत्थर से इस बात का पता चलता है कि इन चट्टानों के निर्माणकारी निक्षेप छिछले सागर में हुए थे |
इनमें क्षैतिज-स्तर मिलते हैं, जिनकी मोटाई 4,000 मीटर तक है।
ये पूर्व में बिहार के सासाराम तथा रोहतास जिलों से लेकर पश्चिम में राजस्थान के चित्तौड़गढ़ तथा उत्तर में आगरा से लेकर दक्षिण में मध्य प्रदेश के होशंगाबाद तक लगभग एक लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल पर फैली हुई हैं ।
विंध्याचल पर्वत-श्रेणी के अतिरिक्त ये चट्टानें छत्तीसगढ़, कर्नाटक की भीम घाटी तथा आन्ध्र प्रदेश के करनूल जिले में भी हैं |
(3) द्राविड़ियन महाकल्प की चट्टानें (Rocks of Dravidian Era)
द्राविड़ियन महाकल्प की चट्टानों का निर्माण 30 से 55 करोड़ वर्ष पूर्व हुआ था। ये चट्टानें बाह्य प्रायद्वीपीय भारत में ही पाई जाती हैं |
प्रायद्वीपीय भारत में विन्धयन क्रम के पश्चात् एक लम्बी अवधि तक की अवसादी चट्टानों का कोई पता नहीं लग पाया। परंतु इसका अर्थ यह नहीं कि प्रायद्वीपीय भारत में इतनी लम्बी अवधि में अवसाद संचित होने की क्रिया हुई ही नहीं |
वास्तव में इस अंतराल में दक्षिणी प्रायद्वीप पर भा अवसादीचट्टानों का निर्माण हुआ, परन्तु साथ ही उनका अनाच्छादन भी उतनी ही तेजी से हुआ और संयोगवश अब उनका कोई चिह्न शेष नहीं रहा।
इन चट्टानों में जीवावशेष बड़ी मात्रा में मिलते हैं; जिससे इनके निर्माण-काल का अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है। इनमें कैम्ब्रियन, आर्डेविसियन, साइल्यूरियन, डेवोनियन तथा कार्बोनीफेरस युग की चट्टानें सम्मिलित हैं।
(4) आर्य महाकल्प की चट्टानें (Rocks of Aryan Era)
इस महाकल्प का विस्तार ऊपरी कार्बोनीफेरस काल से प्लीस्टोसीन काल तक है। इस प्रकार इस महाकल्प की चट्टानों का निर्माण आज से 30 करोड़ वर्ष से 10 लाख वर्ष पूर्व हुआ।
इस महाकल्प से सम्बन्धित चट्टानें भारत के दक्षिणी प्रायद्वीप तथा बाह्य प्रायद्वीप दोनों ही भागों में मिलती हैं |
आर्य महाकल्प के आरम्भ में हिमालय के स्थान पर ‘टेथिस’ नामक समुद्र था, जिसके उत्तर तथा दक्षिण में क्रमश: ‘लॉरेशिया’ और ‘गोंडवानालैण्ड’ नामक स्थलीय भाग थे।
इन स्थलीय भागों की नदियों द्वारा बड़े पैमाने पर ‘टेथिस सागर’ में अवसाद का निक्षेप किया गया।
स्थलीय भागों के विस्थापन से इस सागर का विस्तार धीरे-धीरे कम होता गया और इसके नितल पर निक्षेपित अवसाद का बलन होने लगा।
इस प्रकार आर्य महाकल्प शुरू होते ही पर्वत-निर्माणकारी प्रबल हलचलें आरम्भ हो गई और एक हिमयुग आरम्भ हुआ।
आर्य महाकल्प में निर्मित चट्टानों का अध्ययन निम्नलिखित क्रम में किया जाता है —
(क ) गोंडवाना समूह की चट्टानें (Rocks of Gondwana System)
‘गोंडवाना’ शब्द की उत्पत्ति मध्य प्रदेश के ‘गोंड’ क्षेत्र से हुई है, जहां पर इस प्रकार की चट्टानों का सबसे पहले ज्ञान हुआ था। बाद में इस शब्द का प्रयोग उस भूमि के लिए भी होने लगा जहां इस प्रकार की चट्टानें पाई जाती हैं |
प्रायद्वीपीय भारत में गोंडवाना समूह की चट्टानें विस्तृत क्षेत्र में पाई जाती है। इनका विस्तार दामोदर घाटी, महानदी घाटी, गोदावरी घाटी, राजमहल, सतपुड़ा व महादेव पर्वत प्रदेशों में मिलता है।
आर्थिक दृष्टि से ये बड़ी महत्वपूर्ण चट्टानें हैं। भारत का 98% कोयला इन्हीं चट्टानों से प्राप्त होता है। इनसे भवन-निर्माण के लिए बलुआ पत्थर, ईटें व बर्तन बनाने के लिए चीका मिट्टी, सीमेंट व रासायनिक उर्वरक उद्योग के लिए कच्चा माल प्राप्त होता है।
(ख ) दक्कन ट्रैप (The Deccan Trap)
क्रिटेशियस युग के अंतिम चरणों में प्रायद्वीपीय भारत में बड़े पैमाने पर ज्वालामुखी विस्फोट हुए।
दरारों तथा संधियों से ज्वालामुखी उद्गार हुए; जिससे अति गर्म व तरल लावा दरारी उद्भेदन के साथ बाहर निकला।
इसने उस समय की स्थलाकृतियों को ढंक लिया। यह क्रम इयोसीन युग तक चलता रहा। इस प्रकार दक्कन ट्रैप का निर्माण काल अपर-क्रिटेशियस से इयोसीन युग तक माना जाता है |
ज्वालामुखी उद्गार से प्राप्त होने वाले लावे ने लगभग दस लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर हजारों मीटर मोटी परत बिछा दी। इस महान दरार उद्गार को हम दक्कन ट्रैप कहते हैं क्योंकि लावा प्रवाह ने सीढ़ी जैसी भू-आकृति का निर्माण किया |
‘ट्रैप’ (Trap) स्वीडिश भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ सीढ़ी (Steep) होता है। अतः भारतीय प्रायद्वीप का समस्त लावा क्षेत्र दक्कन टैप’ के नाम से विख्यात है।
इससे एक पठार का निर्माण हुआ है। इसलिए इसे बेसाल्ट पठार भी कहते है।
करोड़ों वर्षों के अनाच्छादन से इसमें कई घाटियां तथा गर्त बन गए हैं और अब यह लगभग पांच लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में विस्तृत है।
दक्कन ट्रैप के निर्माण काल में जब कभी ज्वालामुखी हलचल बंद हुई या मंद पड़ी, तभी शांत अंतराल काल में लावा प्रवाह के ऊपर अवसादों का निक्षेप हुआ और अवसादी चट्टानों के पतले स्तरों का निर्माण हुआ।
इन अवसादों में इस समूह के जीवों तथा वनस्पति के अवशेष
भी मिलते हैं।
दक्कन ट्रैप की मोटाई भिन्न-भिन्न इलाकों में भिन्न-भिन्न है। यह उत्तर-पश्चिमी भाग में सबसे अधिक मोटा है और वहां इसकी मोटाई लगभग 3,000 मीटर है।
दक्षिणी किनारे पर मोटाई 700-800 मीटर, कच्छ में 800 मीटर तथा अमरकंटक के निकट 160 मीटर है। दक्कन ट्रैप में बेसाल्ट मुख्य चट्टान है।
इसके अतिरिक्त डोलोराइट, गेब्रो, राबलाइट आदि चट्टानें पाई जाती हैं। ये काफी कठोर चट्टानें हैं; परंतु करोड़ों वर्षों के अनाच्छादन ने कई स्थानों पर इसका चूर्ण बना दिया है |
इससे यहां विशेष प्रकार की काली मिट्टी का निर्माण हुआ है, जिसे रेगर मिट्टी कहते हैं।
यह मिट्टी कपास की कृषि के लिए बहुत ही उपयोगी है। कहीं कहीं पर लेटराइट मिट्टी भी पाई जाती है, जो यहां पर मानसून जलवायु के कारण बनी है।
दक्कन ट्रैप का विस्तार महाराष्ट्र के अधिकांश भाग, गुजरात तथा मध्य प्रदेश में है। इसके अतिरिक्त झारखंड तथा तमिलनाडु के कुछ भागों में भी दक्कन ट्रैप के लावा निक्षेप मिलते हैं।
भौगालिक दृष्टि से इस ट्रैप का विस्तार 15°35′ उत्तरी अक्षांश से 25° उत्तरी अक्षांश तक तथा 72° 15′ पूर्वी देशांतर से 82° पूर्वी देशांतर तक है।
(ग ) टर्शियरी क्रम की चट्टानें (Rocks of Tertiary System)
टर्शियरी क्रम की चट्टानों का निर्माण इयोसीन युग से लेकर प्लायोसीन युग तक आज से लगभग 6 करोड़ वर्ष से 70 लाख वर्ष पूर्व हुआ था।
भारत के भूगार्भिक इतिहास में जितना इस युग का महत्व है, उतना अन्य किसी युग का नहीं है। इसका कारण यह है कि भारत ने अपना वर्तमान स्वरूप इसी युग में धारण किया था।
टर्शियरी कल्प को कालक्रम के अनुसार चार भागों में बांटा जा सकता है — (a) इओसीन, (b) ओलिगोसीन, (c ) मायोसीन, (d) प्लायोसीन |
इन चट्टानों का निर्माण इओसीन से लेकर प्लायोसीन काल के दौरान हुआ था। इस काल के दौरान हिमालय का निर्माण निम्रलिखित क्रम से हुआ है —
(A ) वृहत हिमालय का निर्माण ओलिगोसीन काल के दौरान
हुआ ।
( B ) लघु या मध्य हिमालय का निर्माण मायोसीन काल के दौरान
हुआ ।
( C ) शिवालिक हिमालय का निर्माण प्लायोसीन काल के दौरान
हुआ ।
असम, गुजरात व राजस्थान से मिलने वाला खनिज तेल इओसीन और ओलिगोसीन काल की चट्टानों से ही प्राप्त होता है।
यह भी देखें
मृदा का वर्गीकरण और मृदा अपरदन
महासागरीय धाराएं : उत्पत्ति के कारक व प्रकार
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