किसी भी स्थान की जलवायु का अध्ययन करने के लिए वहाँ के तापमान, वर्षा, वायुदाब, पवनों की गति एवं दिशा का ज्ञान होना अनिवार्य है | जलवायु के इन तत्त्वों पर देश के अक्षांशीय विस्तार, उच्चावच तथा जल व स्थल के वितरण का भी गहरा प्रभाव पड़ता है | कर्क रेखा भारत के लगभग बीच से गुजरती है ; अतः इसका दक्षिणी भाग उष्ण कटिबंध में तथा उत्तरी भाग शीतोष्ण कटिबंध में आता है |
जलवायु को प्रभावित करने वाले कारक
भारत की उत्तरी सीमा पर विशाल हिमालय पर्वत स्थित है। यह भारतीय उपमहाद्वीप को मध्य एशिया से अलग करता है और वहाँ से आने वाली ठण्डी पवनों को रोकता है। इस प्रकार समस्त भारत में उष्ण कटिबंधीय जलवायु पाई जाती है। भारत के दक्षिण में स्थित हिन्द महासागर से आने वाली मानसून पवनों का भारत की जलवायु पर सबसे अधिक प्रभाव पड़ता है। अतः भारत की जलवायु को मानसूनी जलवायु कहा जाता है।
भारतीय जलवायु को अनेक कारक प्रभावित करते हैं, जिनमें प्रमुख निम्नलिखित हैं —
(1) स्थिति एवं अक्षांशीय विस्तार
भारत मोटे तौर पर 8° 4′ उत्तरी अक्षांश से 37°6′ उत्तरी अक्षांशों के मध्य स्थित है। कर्क वृत्त भारत के मध्य से होकर जाता है।
विषुवत वृत्त के पास होने के कारण दक्षिणी भागों में वर्ष भर उच्च तापमान रहता है। दूसरी ओर उत्तरी भाग गर्म शीतोष्ण पेटी में स्थित है। अतः यहाँ शीतकाल में निम्न तापमान रहता है।
(2) समुद्र से दूरी
प्रायद्वीपीय भारत अरब सागर, हिन्द महासागर तथा बंगाल की खाड़ी से घिरा हुआ है। अतः भारत के तटीय प्रदेशों की जलवायु सम हैं। इसके विपरीत जो प्रदेश देश के आंतरिक भागों में स्थित हैं, वे समुद्र के प्रभाव से अछूते हैं। फलस्वरूप उन प्रदेशों की जलवायु अति विषम है।
(3) उत्तरी पर्वती श्रेणियां
हिमालय व उसके साथ की श्रेणियाँ जो उत्तर-पश्चिम में कश्मीर से लेकर उत्तर-पूर्व में अरुणाचल प्रदेश तक फैली हुई हैं, भारत को शेष एशिया से अलग करती है। ये श्रेणियाँ शीतकाल में मध्य एशिया से आने वाली अत्यधिक ठंडी व शुष्क पवनों से भारत की रक्षा करती हैं। साथ ही वर्षादायिनी दक्षिण-पश्चिमी मानसूनी पवनों के सामने एक प्रभावी अवरोध बनाती हैं, ताकि वे भारत की उत्तरी सीमाओं को पार न कर सकें। इस प्रकार, ये श्रेणियाँ उपमहाद्वीप तथा मध्य एशिया के बीच एक जलवायु विभाजक का कार्य करती हैं |
(4) स्थलाकृति
देश के विभिन्न भागों में स्थलाकृतिक लक्षण वहाँ के तापमान, वायुमंडलीय दाब, पवनों की दिशा तथा वर्षा की मात्रा को प्रभावित करते हैं। उत्तर में हिमालय पर्वत नमीयुक्त मानसून पवनों को रोककर समूचे उत्तरी भारत में वर्षा का कारण बनता है। मेघालय पठार में पहाड़ियों की कीपनुमा आकृति से मानसूनी पवनों द्वारा विश्व की सबसे अधिक वर्षा होती है।
अरावली पर्वत मानसून पवनों की दिशा के समानान्तर है। अतः यह मानसून पवनों को रोकने में असफल होता है और लगभग सारा राजस्थान एक विस्तृत मरूस्थल है।
पश्चिमी घाट दक्षिणी-पश्चिमी मानसून पवनों के मार्ग में दीवार की भांति खड़ा है, जिस कारण इस पर्वतमाला के पश्चिमी ढालों तथा पश्चिमी तटीय मैदान में भारी वर्षा होती है।
इसके पूर्व में पवनें नीचे उतरती हैं और गर्म व शुष्क हो जाती हैं। अत: इस क्षेत्र में बहुत कम वर्षा होती है और यह ‘वर्षा छाया क्षेत्र’ कहलाता है।
(5) मानसून पवनें
दक्षिण-पश्चिमी ग्रीष्मकालीन पवनें समुद्र से स्थल की ओर चलती हैं और समस्त देश को प्रचुर वर्षा प्रदान करती हैं।
इसके विपरीत शीतकालीन उत्तर-पूर्वी मानसून पवनें स्थल से समुद्र की ओर चलती हैं और वर्षा करने में असमर्थ होती हैं। बंगाल की खाड़ी से कुछ जलवाष्प प्राप्त करने के पश्चात ये पवनें तमिलनाडु के तट पर थोडी-सी वर्षा करती हैं।
(6) जेट वायुधाराओं का प्रभाव
जेट वायुधारायें भारतीय जलवायु को निम्न प्रकार से प्रभावित करती हैं —
(क) पश्चिमी जेट वायुधारा
शीतकाल में समुद्र तल से लगभग 8 किलोमीटर की ऊँचाई पर पश्चिमी जेट वायुधारा अधिक तीव्र गति से समशीतोष्ण कटिबंध के ऊपर चलती है। यह जेट वायुधारा हिमालय की श्रेणियों द्वारा दो भागों में विभाजित हो जाती हैं।
इस जेट वायुधारा की उत्तरी शाखा इस अवरोध के उत्तरी सिरे के सहारे चलती है। दक्षिणी शाखा हिमालय श्रेणियों के दक्षिण में 25° उत्तरी अक्षांश के ऊपर पूर्व की ओर चलती है। मौसम वैज्ञानिकों का ऐसा विश्वास है कि यह शाखा भारत की शीतकालीन मौसमी दशाओं को प्रभावित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
यह जेट वायुधारा भूमध्य सागरीय प्रदेशों में पश्चिमी विक्षोभों को भारतीय उपमहाद्वीप में लाने के लिए उत्तरदायी है। उत्तर पश्चिमी मैदानों में होने वाली शीतकालीन वर्षा व ओलावृष्टि तथा पहाड़ी प्रदेशों में कभी-कभी होने वाला भारी हिमपात इन्हीं विक्षोभों का परिणाम है। इसके बाद सम्पूर्ण उत्तरी मैदानों में शीत लहर चलती है।
(ख) पूर्वी जेट वायुधारा
ग्रीष्मकाल में, सूर्य के उत्तरी गोलार्द्ध में आभासी गति के कारण ऊपरी वायु परिसंचरण में परिवर्तन हो जाता है।
पश्चिमी जेट वायुधारा के स्थान पर पूर्वी जेट चलने लगती है, जो तिब्बत के पठार के गर्म होने से उत्पन्न होती है।
इसके परिणामस्वरूप पूर्वी जेट वायुधारा विकसित होती है, जो 15° उत्तरी अक्षांश के आसपास प्रायद्वीपीय भारत के ऊपर चलती है। यह दक्षिण पश्चिमी मानसून पवनों को अचानक आने में सहायता देती है।
(7) पश्चिमी विक्षोभ तथा उष्ण कटिबंधीय चक्रवात
विक्षोभ भारतीय उपमहाद्वीप में पश्चिमी जेट प्रवाह के साथ भूमध्य
सागरीय प्रदेश से आते हैं। यह देश के उत्तरी मैदानी भागों व पश्चिमी हिमालय प्रदेश की शीतकालीन मौसमी दशाओं को प्रभावित करते हैं।
उष्ण कटिबंधीय चक्रवात बंगाल की खाड़ी में पैदा होते हैं। इन चक्रवातों की तीव्रता तथा दिशा दक्षिण पश्चिम मानसून काल में भारत के अधिकांश भागों तथा पीछे हटते मानसून की ऋतु अर्थात अक्टूबर व नवम्बर में पूर्वी तटीय भागों की मौसमी दशाओं को प्रभावित करते हैं।
कुछ उष्ण कटिबंधीय चक्रवात अरब सागर में भी पैदा होते हैं और भारत के पश्चिमी प्रदेश को प्रभावित करते हैं।
(8) एल नीनो प्रभाव
भारत में मौसमी दशाएँ अल-नीनो से भी प्रभावित होती हैं, जो संसार के उष्ण कटिबंधीय प्रदेशों में विस्तृत बाढ़ और सूखों के लिए उत्तरदायी है। अल नीनो एक सँकरी गर्म समुद्री जलधारा है, जो कभी-कभी दक्षिणी अमेरिका के पेरू तट से कुछ दूरी पर दिसम्बर के महीने में दिखाई देती है।
यह कई बार पेरू की ठण्डी धारा के स्थान पर अस्थायी गर्म धारा के रूप में बहने लगती है।
कभी-कभी अधिक तीव्र होने पर यह समुद्र के ऊपरी जल के तापमान को 10° से. तक बढ़ा देती है। उष्ण कटिबंधीय प्रशांत महासागरीय जल के गर्म होने से भूमण्डलीय दाब व पवन तंत्रों के साथ-साथ हिन्द महासागर में मानसून पवनें भी प्रभावित होती हैं। ऐसा विश्वास किया जाता है कि 1987 में भारत में भयंकर सूखा अल-नीनो का ही परिणाम था।
(9) दक्षिणी दोलन
दक्षिणी दोलन मौसम विज्ञान से संबंधित वायुदाब में होने वाले परिवर्तन का प्रतिरूप हैं, जो हिन्द व प्रशान्त महासागरों के मध्य प्राय: देखा जाता है।
ऐसा देखा गया है कि जब वायुदाब हिन्द महासागर में अधिक होता है, तो प्रशान्त महासागर पर यह कम होता है अथवा इन दोनों महासागरों पर वायुदाब की स्थिति एक-दूसरे के उलट होती है। जब वायुदाब प्रशान्त महासागरीय क्षेत्र पर अधिक होता है तथा हिन्द महासागर पर कम होता है, तो भारत में दक्षिण-पश्चिमी मानसून अधिक शक्तिशाली होता है।
इसके विपरीत परिस्थिति में मानसून के कमजोर होने की सम्भावना अधिक होती है।
मानसून पवनों की परिभाषा एवं उत्पत्ति
मानसून शब्द की उत्पत्ति अरबी भाषा के ‘मौसिम (Mausim) शब्द से हुई है, जिसका अभिप्राय ऋतु से है। अत: ‘मानसून पवनें’ वे पवनें हैं, जिनकी दिशा ऋतु के अनुसार बिल्कुल उलट जाती है।
ये पवनें ग्रीष्म ऋतु के छ: माह समुद्र से स्थल की ओर तथा शीत ऋतु के छ: माह स्थल से समुद्र की ओर चलती हैं । भारतीय जलवायु-विज्ञान मानसून की उत्पत्ति सम्बंधी विचारधाराओं को निम्नलिखित दो वर्गों में बाँटा जाता है —
(क ) चिरसम्मत विचारधारा (The Classical Theory)
(ख ) आधुनिक विचारधारा (Modern Theory)
(क ) चिरसम्मत विचारधारा (The Classical Theory)
विद्वान एडमंड हेली (Edmund Halley) ने बताया कि मानसून पवनों में उत्क्रमण जलीय तथा स्थलीय प्रदेशों के तापमान में अन्तर होने के कारण होता है। यह अन्तर ऋतु परिवर्तन के अनुसार होता है। इसके अनुसार मानसून दो प्रकार का होता है —
(1) ग्रीष्मकालीन मानसून
(2) शीतकालीन मानसून
(1) ग्रीष्मकालीन मानसून
ग्रीष्म ऋतु में सूर्य की किरणें कर्क रेखा पर लम्बवत पड़ती हैं , जिससे उत्तर-पश्चिमी भारत तथा निकटवर्ती क्षत्रों का तापमान बढ़ जाता है और वायुदाब कम हो जाता है। इसके विपरीत, बंगाल की खाड़ी तथा अरब सागर में वायुदाब अधिक होता है। फलस्वरूप पवनें समुद्र से स्थल की ओर चलना शुरू कर देती हैं।
(2) शीतकालीन मानसून
शीत ऋतु में सूर्य की किरणें मकर रेखा पर लम्बवत पड़ती हैं , जिससे उत्तर-पश्चिमी भारत तथा निकटवर्ती क्षेत्रों में तापमान कम तथा वायुदाब अधिक हो जाता है। इस ऋतु में अरब सागर तथा बंगाल की खाड़ी में वायुदाब कम होता है। फलस्वरूप पवनें स्थल से समुद्र की ओर चलना शुरू कर देती हैं | ये पवनें बहुत कम वर्षा करती हैं। मानसून पवनों की उत्पत्ति सम्बंधी हैली का विचार तीन शताब्दियों से भी अधिक समय तक प्रचलित रहा है, जिस कारण इसे ‘चिरसम्मत विचारधारा’ कहते हैं।
(ख) आधुनिक विचारधारा (Moderm Theory)
भारतीय जलवायु वैज्ञानिक पी. कोटेश्वरम, कृष्णन, रमन, रामनाथ, कृष्णमूर्ति, रामारला, रामास्वामी, अनन्त कृष्णन आदि ने मानसून पवनों की उत्पत्ति का सही कारण ढूँढ़ने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। इन विद्वानों के विचारों को हम निम्नलिखित दो वर्गों में बाँट सकते हैं —
(1) वायुराशि विचारधारा (Air Mass Theory)
(2) जेट-प्रवाह विचारधारा Jet Stream Theory)
(1) वायुराशि विचारधारा (Air Mass Theory)
वर्षा की मात्रा का घनिष्ठ सम्बंध मानसून पवनों के साथ चलने वाली वायुराशियों से है। इसके अनुसार मानसून की उत्पत्ति का सम्बंध अन्त:उष्ण कटिबंधीय क्षेत्र (Inter-Tropical Convergence Zone-ITCZ) से जोड़ा जाता है।
भूमध्य रेखीय निम्न वायुदाब क्षेत्र पर उत्तरी तथा दक्षिणी व्यापारिक पवनों के मिलन-स्थल को (ITCZ) या (ITC) कहते हैं।
यह ऋतु के अनुसार अपनी स्थिति बदलता है। ग्रीष्म ऋतु में जब सूर्य कर्क रेखा पर लम्बवत चमकता है, तो आईटीसी ( ITC – Inter Tropical Convergence ) उत्तर की ओर खिसक जाता है।
इस प्रकार दक्षिण-पूर्वी व्यापारिक पवनें भूमध्य रेखा को पार करने के बाद उत्तरी गोलार्द्ध में प्रवेश करती हैं और पृथ्वी के घूर्णन बल (Coriolis Force) के प्रभावाधीन अपने दायीं ओर मुड़ जाती है तथा दक्षिण-पश्चिम दिशा से उत्तर-पूर्व दिशा में चलने लगती हैं ।
ग्रीष्म ऋतु में आईटीसी (ITC ) भारत के उत्तरी मैदान में स्थित होता है। इसके परिणामस्वरूप दक्षिण-पश्चिमी मानसून अरब सागर तथा बंगाल की खाड़ी से चलना शुरू कर देती है।
आईटीसी ( ITC ) को कभी-कभी मानसून गर्त (Monsoon Trough) के नाम से भी पुकारा जाता है। फ्लोन महोदय के अनुसार ऋतु परिवर्तन के साथ-साथ इसकी स्थिति में भी परिवर्तन होता रहता है।
जुलाई में यह उत्तर की ओर खिसक जाता है और उत्तरी अन्तः कटिबंधीय अभिसरण (Northern Inter-Tropical Convergence- NITC) कहलाता है।
यह अभिसरण उत्तर की ओर खिसककर महाद्वीप के भीतरी भाग तक पहुँच जाता है। अभिसरण के साथ-साथ भूमध्य रेखीय पश्चिमी पवनें भी उत्तर की ओर खिसक जाती है और सागरीय पवनों के रूप में चलने लगती है। भारत तथा अन्य निकटवर्ती देशों में यही दक्षिण-पश्चिमी मानसून का रूप धारण करती है।
(2) जेट-प्रवाह विचारधारा (Jet Stream Theory)
मानसून की उत्पत्ति के संबंध में जेट-प्रवाह नवीनतम विचारधारा है,
जिसे बहुत अधिक मान्यता मिली है। ‘कोटेश्वरम के अनुसार’ तिब्बत का पठार तप्त होकर एक प्रकार से हीटर का काम करता है और वायु ऊपर को उठती है।
इसके फलस्वरूप क्षोभमंडल के ऊपरी भाग में घड़ी की सूई के अनुरूप (Clockwise) भारत के दक्षिणी पठार के ऊपर 9 किलोमीटर की ऊँचाई तक पूर्व से पश्चिमी दिशा में तीव्र गति से हवाएँ चलने लगती है।
इसका कारण यह है कि तप्त तिब्बत पठार के ऊपर से विस्थापित गर्म हवाएँ दक्षिण की ओर आकर ठंडी होने से नीचे उतरती है और उत्तरी भारत की ओर दक्षिण-पश्चिम दिशा से प्रवाहित होती है। इसके प्रभाव से दक्षिणी एशिया में व्यापक वर्षा होती है।
मानसून गर्त (Monsoon Trough) से तिब्बत पठार की ओर बढ़ते समय सूर्याताप से पठार पर ताप बढ़ जाता है। इस प्रकार पूर्वी जेट-प्रवाह (Easterly Jet Stream) के साथ पठार के चारों ओर प्रतिचक्रवातीय दशाएँ स्थापित हो जाती हैं और यहाँ से पूर्वी जेट-प्रवाह पठार के उत्तर में तथा दूसरा भूमध्य रेखा की ओर से दक्षिण की ओर चलता है। कोटेश्वरम के विचारों से निम्नलिखित निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं —
(i) तिब्बत के पठार पर होने वाले ग्रीष्मकालीन विकिरण द्वारा पूर्व जेट-प्रवाह को प्रोत्साहन मिलता है।
(ii) तिब्बत के पठार पर अधोमण्डल में एक निश्चित ऊँचाई पर प्रतिचक्रवातीय दशाएँ स्थापित हो जाती हैं, जिस कारण यहाँ से उत्तर की ओर उपोष्ण पश्चिमी जेट-प्रवाह तथा दक्षिण की ओर पूर्वी जेट-प्रवाह स्थापित होता है।
(iii) पूर्वी जेट स्ट्रीम के सहारे प्रवाहित वायु का हिंद महासागर क्षेत्र में अवतलन होता है, जिससे यहाँ उच्च दाब का निर्माण होता है एवं दक्षिण-पश्चिम मानसून की उत्पति होती है।
(iv) भारतीय दक्षिण-पश्चिमी मानसून वास्तव में निम्न धरातल पर चलने वाला एक प्रवाह है, जो अक्षांशीय संचलन के कारण उत्पन्न होता है।
(v) जेट-प्रवाह का प्रभाव क्षेत्र चीन के पूर्वी तट से गिनी के तट तक होता है। इसकी अधिकतम गति दक्षिणी एशिया में होती है और वहाँ यह भारी वर्षा करता है। सामान्यतः अधिकतम गति 15° उत्तरी अक्षांश के साथ-साथ 50° से 80° पूर्वी देशान्तरों के बीच होती है।
(vi) ग्रीष्मकाल में तिब्बत का पठार जितना अधिक तपता है, पूर्वी जेट-प्रवाह उतना ही शक्तिशाली होता है तथा वर्षा भी उतनी ही अधिक होती है |
भारतीय जलवायु की मुख्य विशेषताएं
भारतीय जलवायु की मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित हैं —
(1) मानसून पवनों का प्रभाव
भारतीय जलवायु के संबंध में सबसे मुख्य बात यह है कि यह जलवायु पूर्णत: मानसून पवनों से प्रभावित है। यही कारण है कि भारतीय जलवायु को ‘मानसूनी जलवायु’ कहा जाता है। मानसून पवनों का प्रभाव जितना भारत की जलवायु पर पड़ता है, उतना किसी अन्य देश की जलवायु पर नहीं पड़ता।
(2) वर्षा की मात्रा तथा समय
भारत की अधिकांश वर्षा दक्षिण-पश्चिमी मानसून पवनों द्वारा होती है। देश की कुल वर्षा का 75% ग्रीष्मकालीन दक्षिण-पश्चिमी मानसून काल में, 13% मानसून के उपरान्त काल में, 10% पूर्व मानसून काल में तथा शेष 2% शीतकाल में होता है।
(3) वर्षा का असमान वितरण
भारत में वर्षा का क्षेत्रीय वितरण समान नहीं है। मौसिनराम में 1,221 सेमी. वार्षिक वर्षा होती है, जबकि जैसलमेर में 10 सेमी. से भी कम वार्षिक वर्षा होती है।
भारत का केवल 11% भाग 200 सेमी. से अधिक वार्षिक वर्षा प्राप्त करता है, जबकि लगभग एक-तिहाई भू-भाग में 75 सेमी. से कम वार्षिक वर्षा होती है।
(4) वर्षा की अनिश्चितता
मानसूनी वर्षा का अधिकांश भाग जुलाई से सितम्बर तक प्राप्त होता है। परंतु मानसून वर्षा प्राय: समय पर नहीं आती और काफी अनिश्चित होती है।
कभी तो यह वर्षा समय से पहले आ जाती है और कभी काफी देर से जाती है। इससे कृषि कार्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि दस वर्षों की अवधि में केवल दो वर्ष ही मानसून की वर्षा समय पर आरम्भ तथा समाप्त होती है। शेष आठ वर्षों में इसके प्रारम्भ तथा समापन में अनिश्चितता पाई जाती है।
(5) वर्षा की अनियमितता
मानसूनी वर्षा अनिश्चित होने के साथ-साथ अनियमित भी होती है। यह अपनी नियमित मात्रा से अधिक अथवा कम हो सकती है, जिसके क्रमश: बाढ़ अथवा सूखे की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।
अनियमितता का प्रभाव विशेष रूप से 50 से 100 सेमी. वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्रों में पड़ता है। ऊपरी व मध्य गंगा का मैदान तथा प्रायद्वीपीय भारत के अधिकांश भागों में इसका प्रभाव पड़ता है। मानसून विभंगता; मानसून की वर्षा निरन्तर नहीं होती, बल्कि कुछ दिनों के अन्तराल पर रूक-रूक कर होती है। कभी कभी वर्षा काल के एक माह तक वर्षा नहीं होती है।
किसी वर्ष वर्षा ऋतु के आरम्भ में खूब वर्षा हो जाती है और इसके बाद एक लम्बा सूखा अन्तराल आ जाता है। इससे कृषि को हानि पहुँचती है।
(7) मूसलाधार वर्षा
देश की कुल वार्षिक वर्षा का 75% भाग मानसून पवनों द्वारा वर्ष के केवल चार महीनों में प्राप्त होता है। इन चार महीनों में भी वास्तविक वर्षा के दिन केवल 40 से 45 ही होते हैं।
इन दिनों वर्षा बूंदा-बांदी के रूप में न होकर मूसलाधार रूप में होती है। चेरापूंजी में 180 दिन में 1080 सेमी. वर्षा हो जाती है।
भारत में होने वाले मूसलाधार वर्षा के विषय में किसी ने कहा है — “भारत में बादल पानी उड़ेलते हैं, बरसाते नहीं |”
यह भी देखें
भारत के प्राकृतिक प्रदेश : हिमालय पर्वत
भारत के प्राकृतिक प्रदेश : विशाल उत्तरी मैदान
भारत के प्राकृतिक प्रदेश : प्रायद्वीपीय पठार
भारत के प्राकृतिक प्रदेश : तटीय मैदान तथा द्वीप समूह
भारत की नदियाँ व उनका अपवहन क्षेत्र
पवन : अर्थ, उत्पत्ति के कारण व प्रकार
जेट वायु धाराएं ( Jet Streams )
भूकंप के कारण, भूकंपीय तरंगें व भूकंप संभावित क्षेत्र
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