भारतीय कृषि के प्रमुख कारक
भारत एक कृषि प्रधान देश है। यहाँ की लगभग 62% आबादी कृषि व उससे संबद्ध कार्यों में लगी हुई है। कृषि से जहाँ हमारे देश की जनसंख्या को खाद्य सुरक्षा उपलब्ध होती है, वहीं उद्योगों को कच्चा माल भी प्राप्त होता है। भारतीय कृषि देश की अर्थव्यवस्था में सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 18.5 फीसदी योगदान भी करता है।
सामान्य रूप से भारत की कृषि पर चार प्रमुख कारकों का प्रभाव पड़ा है, जो निम्नवत है —
(1) भौतिक कारक
इसके अंतर्गत जलवायु की विभिन्न दशाएँ यथा-वर्षा, तापमान आदि, मिट्टी की उर्वरता, स्थलाकृतिक ढाल शामिल किए जाते हैं।
(2) संस्थागत कारक
इसके अंतर्गत भूमि सुधार अर्थात चकबन्दी, हदबन्दी, काश्तकारी अधिकार, भूमि का पुनर्वितरण आदि आते हैं। भारत में संस्थागत समस्याएँ यहाँ की प्राचीन सामंतवादी व औपनिवेशक पृष्ठभूमि की देन है।
(3) संरचनात्मक कारक
इसके अंतर्गत कृषि की उत्पादकता बढ़ाने वाले तकनीकी व विज्ञान आधारित निवेश आते हैं। इनमें परिष्कृत बीज, रासायनिक जैव उर्वरक, सिंचाई, ऊर्जा, मशीनीकरण व कीटनाशक प्रमुख हैं। इनमें प्रथम चार भारतीय कृषि में हरित क्रांति लाने के लिए प्रमुख रूप से जिम्मेदार रहे हैं ।
(4) राजनीतिक व प्रशासनिक कारक
भारतीय कृषि को गति देने में राजनीतिक-प्रशासनिक प्रतिबद्धता की प्रमुख भूमिका रही है, क्योंकि संस्थागत एवं संरचनात्मक कारकों की सफलता इसी पर निर्भर है। न्यूनतम समर्थन मूल्य, कृषि बीमा, साख
उपलब्धता, विपणन व भंडारण केन्द्रों तथा कृषि की आधारभूत संरचना का विकास आदि राजनीतिक-प्रशासनिक प्रतिबद्धता की माँग करते हैं |
भारत की प्रमुख कृषि ऋतुएँ / फसलें
भारत की भौतिक संरचना, जलवायु एवं मृदा संबंधी विभिन्नताएँ आदि ऐसी हैं, जो यहाँ अनेक प्रकार की फसलों की कृषि को प्रोत्साहित करती है | यहाँ पर मुख्यतः वर्ष में तीन फसलें पैदा की जाती हैं जो निम्नलिखित हैं —
(1) रबी की फसल
यह फसल सामान्यतया अक्टूबर-नवम्बर में बो कर अप्रैल-मई तक काट ली जाती है। सिंचाई की सहायता से तैयार होने वाली इस फसल में मुख्यतः गेहूँ, जौ, चना, मटर, सरसों, राई आदि की कृषि की जाती है।
(2) खरीफ की फसल
यह वर्षाकाल की फसल है, जो जून-जुलाई में बो कर सितम्बर-अक्टूबर तक काट ली जाती है। इसके अंतर्गत चावल, ज्वार, बाजरा, रागी, मक्का, जूट, मूंगफली, कपास, सन, तम्बाकू, मूंग, उड़द, लोबिया आदि की कृषि की जाती है।
(3) जायद की फसल
यह फसल रबी एवं खरीफ के मध्यवर्ती काल में अर्थात मार्च में बोकर जून तक काट ली जाती है। इसमें सिंचाई के सहारे सब्जियों तथा तरबूज, खरबूज, ककड़ी, खीरा, करेला आदि की कृषि की जाती है। मूंग, उड़द व कुल्थी जैसी दलहन फसलें भी इस समय उगायी जाती हैं।
भूमि सुधार के प्रयास
1948 ईस्वी में भूमि सुधार संबंधी कानून बनाया गया। इसके तीन पहलू थे —
(1) हदबंदी के अंतर्गत अधिकतम भूमि की सीमा निर्धारित की गई व अतिरिक्त भूमियों के पुनर्वितरण का लक्ष्य रखा गया।
(2) चकबंदी के द्वारा जोत के आकारों को और छोटा होने से रोकने व भूमि को इकट्ठा कर बड़े जोतों के माध्यम से सहकारी कृषि पर बल दिया गया।
(3) काश्तकारी सुधार के जरिए यह सुनिश्चित किया गया कि किसानों को जोत का अधिकार बना रहे | इसके अतिरिक्त किसानों को जमींदारों के अन्याय से मुक्ति का प्रावधान किया गया ।
1950-53 ई. के दौरान पूरे देश में जमींदारी उन्मूलन कानून बनाया गया। परन्तु मौखिक व्यवस्था (Oral Settlement) के कारण यह पूरी तरह से लागू नहीं किया जा सका।
1960 के दशक में भू-दान आंदोलन के द्वारा अतिरिक्त भूमि अधिग्रहण करने का प्रयास किया गया। परन्तु भू-दान आंदोलन एवं प्रशासन में तालमेल नहीं होने के कारण दान की गई भूमि भी अभी तक दानकर्ताओं के पास ही है।
हमारे देश में भूमि का अत्यधिक असमान वितरण है। इसीलिए भूमि-सुधार को गरीबी निवारण व 20 सूत्रीय कार्यक्रम का अंग बना लिया गया।
चकबंदी भी मुख्यतः उन्हीं क्षेत्रों में हो सका , जहाँ पर संरचनात्मक सुविधाएँ उपलब्ध थीं। चकबंदी का कुल 80% क्रियान्वयन वास्तव में हरित क्रांति वाले प्रदेशों में ही हो पाया है।
काश्तकारी सुधार के अंतर्गत कार्य भी बहुत कम राज्यों में हो सके। केवल पश्चिमी बंगाल में इसके लिए कानून बनाया गया है, जहाँ काश्तकारों को जोत अधिकार तब तक दिया गया है, जब तक कि भू स्वामी स्वयं खेती न करने लगे। इस कानून में कुल उत्पादन का 10वां भाग काश्तकार को एवं छठा भाग भूस्वामी को मिलने का प्रावधान है।
शुष्क कृषि
110 से.मी. से कम वर्षा वाले क्षेत्रों में की जाने वाली कृषि पद्धति को, शुष्क कृषि कहते हैं। चूंकि इन क्षेत्रों में वर्षा की मात्रा कम होती है, इसलिए मृदा की नमी को बनाये रखा जाता है, ताकि कृषि के लिए आवश्यक आर्द्रता प्राप्त की जा सके।
परंपरागत शुष्क कृषि के अंतर्गत पहली वर्षा के पूर्व खेतों में गहरी व गहन जुताई कर दी जाती थी तथा वर्षा के पश्चात भूमि को समतल कर दिया जाता था, जिससे मिट्टी में नमी बनी रहती थी। इस प्रकार इन क्षेत्रों में 45-60 दिनों में उपज दे सकने वाली मोटे अनाज (मक्का), दलहन वाली फसलें (मसूर, चना, मूंग) आदि की उपज संभव हो पाती थी।
छठी योजना से शुष्क कृषि में आधुनिकीकरण की प्रक्रिया शुरू हुई, जिसका सातवीं योजना तक व्यापक विस्तार हो गया।
वर्तमान समय में शुष्क कृषि क्षेत्र में विश्व बैंक की मदद से दो योजनाएं चलाई जा रही हैं। ये हैं – शुष्क कृषि पर पायलट प्रोजेक्ट एवं वाटर शेड विकास कार्यक्रम। केंद्र सरकार भी ‘राष्ट्रीय वाटरशेड विकास कार्यक्रम’ पर काफी बल दे रही है।
हरित क्रांति ( Green Revolution )
हरित क्रांति एक प्रक्रिया है, जिसके द्वारा भारतीय कृषि में गत्यात्मक परिवर्तन का प्रयास किया गया। 1966 ई. के सूखे के बाद भारत में कृषि विकास की नई पद्धति अनिवार्य हो गई थी।
यद्यपि इस दिशा में थोड़े बहुत प्रयोग पहले से ही किए जा रहे थे, परंतु 1966-67 में पंजाब व हरियाणा में यह पूरी तरह प्रयोग में आ गया एवं कृषि के उत्पादन व प्रति हैक्टेयर उत्पादकता में आश्चर्यजनक वृद्धि हुई।
जहाँ 1956-66 के दशक में कुल उत्पादन वृद्धि बढ़कर 17 मिलियन टन की थी, वहीं 1966-76 के दशक में यह वृद्धि बढ़कर 49 मिलियन टन की रही एवं भारत पहली बार खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भर हो सका।
खाद्यान्न उत्पादन में हुए इस आशातीत उत्पादन वृद्धि को ही हरित क्रांति कहा गया। यह तीन महत्वपूर्ण कारकों पर निर्भर था —
(i) विज्ञान आधारित कृषि तकनीक
(ii) सेवाओं का विशेष पैकेज
(iii) सार्वजनिक नीति का विशेष पैकेज।
प्रथम हरित क्रांति
कृषि की अनिश्चितता में कमी लाना, कृषि उत्पादन व उत्पादकता में वृद्धि करना एवं ग्रामीण विकास को बढ़ावा देना इस हरित क्रांति के उद्देश्य थे और हरित क्रांति काफी हद तक इन उद्देश्यों की पूर्ति में सफल रही ।
हरित क्रांति का द्वितीय चरण
1987 के सूखे के प्रभाव और खाद्य पदार्थों के उत्पादन में कमी जैसे कारकों को ध्यान में रखकर सातवीं योजना का पुनर्मूल्यांकन किया गया और यह निर्णय लिया गया कि हरित क्रांति के दूसरे चरण की आवश्यकता है। इस कार्य के लिए 14 राज्यों के 169 जिलों को चुना गया है। इनमें वे जिले चुने गए जहाँ पहले से ही सिंचाई की सुविधा उपलब्ध थी, लेकिन कृषि विकास का गत्यात्मक प्रयास नहीं हुआ था |
हरित क्रांति का दूसरा चरण भारत के उस प्रदेश में लागू किया गया, जहाँ संस्थागत समस्याएं आज भी मौजूद हैं, जैसे लघु जोत के कृषकों की दयनीय आर्थिक स्थिति तथा सभी भूमि पर समान रूप से संस्थागत सुविधाओं का न होना।
हरित क्रांति के द्वितीय चरण में निम्न चीजों पर बल दिया गया है —
(1) सिंचाई के लिए भूमिगत जल के प्रयोग पर बल।
(2) संकर बीज व उर्वरकों के छोटे पैकेटों की उपलब्धता।
(3) कीटनाशकों पर उत्पाद कर की छूट |
हरित क्रांति के द्वितीय चरण में पहली बार कीटनाशकों के प्रयोग पर बल दिया गया, क्योंकि ये क्षेत्र उष्ण व आर्द्र जलवायु के क्षेत्र हैं एवं यहाँ कीट पतंगों की समस्याएँ ज्यादा हैं ।
प्रथम हरित क्रांति का द्वितीय चरण अधिक वैज्ञानिक व विवेकपूर्ण है क्योंकि इसमें प्रथम हरित क्रांति से उत्पन्न समस्याओं के समाधान के साथ-साथ ऐसी समस्याओं के उत्पन्न न होने देने का भी ध्यान रखा गया है।
द्वितीय हरित क्रांति
द्वितीय हरित क्रांति का लक्ष्य कृषि के पोषणीयता को ध्यान में रखकर निर्धारित किया गया है, ताकि कृषि उत्पादन में लम्बे समय तक निरंतर वृद्धि हो सके।
देश की बढ़ती हुई जनसंख्या के परिप्रेक्ष्य में भूतपर्व राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने द्वितीय हरित क्रांति की तत्काल आवश्यकता बतायी थी, जिसमें मिट्टी से लेकर विपणन तक के सभी पहलुओं का समावेश है।
वर्तमान समय राजनीतिक, प्रशासनिक व तकनीकी तीनों स्तर पर कृषि क्षेत्र में दीर्घकालीन विकास को ध्यान में रखते हुए ‘द्वितीय हरित क्रांति’ की ओर पहल किया जा रहा है, जिसे ‘सदाबहार हरित क्रांति’ (Ever Green Revolution) का नाम दिया जा रहा है | इसमें कृषि जलवायु प्रदेश को ध्यान में रखते हुए विभिन्न क्षेत्रों में कृषि विकास व कृषि विविधीकरण लाने पर बल है ताकि देश की वर्तमान खाद्यान्न आवश्यकताओं की पूर्ति की जा सके |
कृषि के प्रकार
स्थायी कृषि (Settledek Sedentary Cultivation)
भूमि का लगातार प्रयोग करते रहना, स्थायी खेती कहलाता है। यह देश के सभी भागों में प्रचलित है।
स्थानांतरित खेती (Shifting Cultivation)
कुछ वर्षों तक खेती करने के बाद वहां भूमि की उर्वरा शक्ति नष्ट हो जाती है, तो कृषक उस स्थान को छोड़कर दूसरे स्थान पर चले जाते हैं और पुनः नये सिरे से खेती शुरू करते हैं। ऐसी खेती स्थानांतरित खेती कहलाती है।
इसे असम में झूम, बिहार में टोंग्या, केरल में ओनम, आंध्रप्रदेश एवं उड़ीसा में पोडू तथा मध्य प्रदेश के विभिन्न भागों में माशा, पेण्डा, बेरा, बेवर (Bewar) आदि नामों से पुकारते हैं।
शुष्क खेती (Dry land or Dry Farming Agriculture)
इसे वर्षाधीन (Rainfed) असिंचित (Unirrigated) खेती भी कहते हैं, लेकिन शुष्क खेती एवं वर्षाधीन खेती में अन्तर केवल इतना है कि वह खेत जो पूर्णरूप से वर्षा पर निर्भर हो उसे वर्षाधीन या असिंचित खेती कहते हैं; लेकिन जहां वर्षा के बहने वाले जल को गलाबोर में एकत्रित कर रबी की फसलों में प्रयोग करके भी खेती कर ली जाय, वह शुष्क खेती कही जाती है; अर्थात जहां सिचाई की सुविधा न हो, वहां शुष्क खेती होती है। जैसे- राजस्थान, कर्नाटक, गुजरात आदि क्षेत्र।
सिंचित या नम खेती (Irrigated or Wet farming)
सिंचाई के द्वारा खेती करना सिंचित खेती कहलाती है। जैसे – धान, गन्ना आदि।
चबूतरेनुमा खेती (Terrace Farming)
पहाड़ी क्षेत्रों में ढालू खेतों पर ढाल के अनुसार चबूतरे बनाकर खेती करते हैं। यह भी स्थायी खेती की तरह है, जिसमें खेत छोटे हो जाते हैं।
सघन एवं विस्तृत खेती
सघन खेती
किसी छोटे से खेत को लगातार फसलों के अन्दर रखना जिस पर मजदूर, खाद एवं उर्वरकों, सिंचाई का अधिकतम उपयोग किया जाय, सघन खेती कही जाती है। ऐसी खेती से अधिक से अधिक उपज प्राप्त करना ही लक्ष्य होता है | इन क्षेत्रों में जनसंख्या भी अधिक होती है। पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी बंगाल में धान की खेती इसका उदाहरण है | जिसको आधार मानकर अधिक से अधिक फसलें क्रम में जोड़कर फसल-चक्र बनाते हैं जैसे – दाल, मूंग |
विस्तृत खेती
यह सघन खेती के विपरीत है। बड़े फार्म पर मशीनों द्वारा, कम श्रमिक एवं पशुशक्ति का प्रयोग कर खेती की जाती है। इसमें वर्ष में एक ही फसल प्रायः लेते हैं। जहाँ जनसंख्या कम हो वहां यह खेती अपनाते हैं।
इसमें कम उर्वरक प्रयोग होता है तथा कम प्रति हेक्टेयर उपज का उत्पादन होता है। उत्तरी अमेरिका और आस्ट्रेलिया में गेहूं की खेती इसका उदाहरण है।
यह भी देखें
भारत के प्राकृतिक प्रदेश : हिमालय पर्वत
भारत के प्राकृतिक प्रदेश : विशाल उत्तरी मैदान
भारत के प्राकृतिक प्रदेश : प्रायद्वीपीय पठार
भारत के प्राकृतिक प्रदेश : तटीय मैदान तथा द्वीप समूह
भारत की नदियाँ व उनका अपवहन क्षेत्र
भारत की जलवायु : प्रभावित करने वाले कारक व प्रमुख विशेषभारत ताएं
भारत में बाढ़ और अनावृष्टि के प्रमुख कारण
भारत की मिट्टियां : विभिन्न प्रकार, विशेषताएँ व वितरण
भारतीय वन, राष्ट्रीय उद्यान व जीव अभयारण्य क्षेत्र