भारत में वन, राष्ट्रीय उद्यान व जीव अभयारण्य क्षेत्र देश के सभी भागों में मिलते हैं लेकिन भारत में वन क्षेत्रों का वितरण बड़ा असमान है। ये उन प्रदेशों में बहुत कम पाए जाते हैं, जहां इनकी बहुत अधिक आवश्यकता है। उदाहरणत: गंगा के अधिक जनसंख्या तथा कृषि वाले मैदान के केवल 5% भाग पर ही वन पाए जाते हैं। उत्तर-पश्चिमी भारत में केवल 11% भाग वनों से ढका हुआ है।
हिमालय तथा तराई प्रदेश में 20% क्षेत्र पर वन उगे हुए हैं। देश के ग्यारह राज्यों में वनाच्छादित क्षेत्र का प्रतिशत भारत के औसत प्रतिशत से अधिक है।
भारत के शेष भागों में वनों के क्षेत्रफल का प्रतिशत बहुत ही कम है। पंजाब तथा हरियाणा में तो वन केवल नाममात्र के लिए ही हैं।
वनों के कुल क्षेत्रफल की दृष्टि से मध्य प्रदेश अग्रणी है। इस राज्य में लगभग 76,013 वर्ग किमी. क्षेत्र पर वन उगे हुए हैं। उसके पश्चात अरुणाचल प्रदेश तथा छत्तीसगढ़ के स्थान हैं।
कुल क्षेत्र के अनुपात में वन क्षेत्र की दृष्टि से मिजोरम सबसे आगे है, जहां पर 90.38% भूमि क्षेत्र पर वन उगे हुए हैं। इसके बाद लक्षद्वीप (84.56%), अंडमान-निकोबार (81.36%), अरुणाचल प्रदेश (80.39%) तथा नागालैण्ड (78.68%) के स्थान हैं।
वन कई प्रकार के भौगोलिक तत्वों पर निर्भर करते हैं, जिनमें वर्षा, तापमान, आर्द्रता, मिट्टी, समुद्र तल से ऊंचाई तथा भूगार्भिक संरचना महत्वपूर्ण हैं। इन तत्वों के प्रभावधीन देश के विभिन्न भागों में भिन्न-भिन्न प्रकार के वन उगते हैं |
इस आधार पर वनों का वर्गीकरण इस प्रकार से किया जा सकता है —
(1) उष्णकटिबंधीय सदाबहार वन ( Tropical Evergreen Forests )
(2) उष्णकटिबंधीय पर्णपाती वन ( Tropical Deciduous Forests )
(3) उष्णकटिबंधीय शुष्क वन ( Tropical Dry Forests )
(4) मरुस्थलीय वन ( Arid Forests )
(5) डेल्टाई वन ( Deltai Forests )
(6) पर्वतीय वन ( Mountainous Forests )
(1) उष्ण कटिबन्धीय सदाबहार वन (Tropical Evergreen Forest)
ये वन भारत के अत्यधिक आर्द्र तथा उष्ण भागों में मिलते हैं। इन क्षेत्रों में औसत वार्षिक वर्षा 200 सेमी. से अधिक तथा सापेक्ष आर्द्रता 70% से अधिक होती है। औसत तापमान 24° से. के आस-पास रहता है।
उच्च आर्द्रता तथा तापमान के कारण ये वन बड़े सघन तथा ऊंचे होते हैं। इन वनों में विभिन्न जाति के वृक्षों के पत्तों के गिरने का समय भिन्न-भिन्न होता है, जिस कारण ये वन सदाबहार रहते हैं। इन वनों के वृक्ष 30 से 60 मीटर ऊंचे होते हैं। उनके तने लम्बे तथा शाखाएं छोटी होती हैं।
विषुवत रेखीय वनों की भांति इनमें भी सूर्य का प्रकाश भूमि तक कठिनाई से पहुंच पाता है। अतः इन वृक्षों में सूर्य का प्रकाश प्राप्त करने की होड़-सी लगी रहती है।
इन वनों के महत्वपूर्ण वृक्ष रबड़, महोगनी, एबोनी, नारियल, बांस,
सिनकोना, बेंत तथा आइरन वुड हैं। ये वन मुख्यतः अंडमान-निकोबार द्वीप समूह, असम, मेघालय, नागालैंड, मणिपुर मिजोरम, त्रिपुरा एवं पश्चिमी तटीय मैदान पर पाये जाते हैं।
(2) उष्ण कटिबन्धीय पर्णपाती वन (Tropical Deciduous Forest)
ये वन 100 से. मी. से 200 सेमी. वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्रों में पाए जाते हैं। इन वनों का विस्तार गंगा की मध्य एवं निचली घाटी, अर्थात भाबर एवं तराई प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु तथा केरल के कुछ भागों में मिलता है।
इन वनों के प्रमुख पेड़ साल, सागवान, शीशम, चन्दन, आम आदि हैं। ये पेड़ ग्रीष्म ऋतु के आरम्भ में अपनी पत्तियां गिरा देते हैं। इसलिए ये पतझड़ वन या पर्णपाती वन कहलाते हैं। इनकी ऊंचाई 30 मीटर से 45 मीटर होती है।
आर्थिक दृष्टि से सागौन, साल, शीशम, रोजवुड, देवदार, चीड़, पाइन एवं स्पूस अत्यधिक महत्वपूर्ण है। संपूर्ण सागौन क्षेत्र का 50 प्रतिशत हिस्सा मध्य प्रदेश में विस्तारित है। ये वन इमारती लकड़ी प्रदान करते हैं, जिससे इनका आर्थिक महत्व अधिक है। ये वन हमारे 25% वन क्षेत्र पर फैले हुए हैं |
(3) उष्ण कटिबन्धीय शुष्क वन (Tropical Dry Forest)
ये वन उन क्षेत्रों में पाये जाते हैं, जहां वार्षिक वर्षा 50 सेमी. से 100 सेमी. होती है। इसमें महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक तथा तमिलनाडु के अधिकांश भाग, पश्चिमी तथा उत्तरी मध्य प्रदेश, पूर्वी राजस्थान, उत्तर प्रदेश के दक्षिण-पश्चिमी भाग तथा हरियाणा सम्मिलित हैं।
इन वनों के मुख्य वृक्ष शीशम, बबूल, कीकर, चन्दन, सिरस, आम तथा महुआ हैं। ये वृक्ष ग्रीष्म ऋतु के आरम्भ में अपने पत्ते गिरा देते हैं। सिनकोना उष्ण कटिबंधीय सदाबहार पौधा है।
भारत में उष्ण कटिबंधीय सदाबहार वन का क्षेत्र असम, केरल, पश्चिम बंगाल, अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह, मेघालय, मणिपुर, त्रिपुरा, मिजोरम और पश्चिमी तटीय मैदान है | छत्तीसगढ़ राज्य उष्णकटिबंधीय शुष्क वन और मानसूनी वन दोनों के लिए उपयुक्त है |
वर्षा अपेक्षाकृत कम होने के कारण इन वनों के वृक्ष मानसूनी वनों के वृक्षों से छोटे होते हैं | इन वृक्षों की लंबाई केवल 6 मीटर से 9 मीटर होती है | अधिकांश वृक्षों की जड़ें लंबी तथा मोटी होती हैं | जिससे यह भूमिगत जल सुगमता से प्राप्त कर सकते हैं | इनकी खाल मोटी होती है जिससे ये जल को अपने अंदर अधिक समय तक समाये रखते हैं |
इनके लकड़ी आर्थिक दृष्टि से मूल्यवान होती है | इस वर्ग के अधिकांश वनों को काटकर कृषि शुरू कर दी गई है | अब यह वन केवल 52 लाख हेक्टेयर भूमि पर ही रह गए हैं |
(4) मरुस्थलीय वन (Arid Forest)
ये वन उन क्षेत्रात पाए जाते हैं, जहां वार्षिक वर्षा 50 सेमी. से कम होती है। इनका विस्तार राजस्थान, दक्षिण-पश्चिमी पंजाब तथा दक्षिण-पश्चिमी हरियाणा में है।
इनमें बबूल, कीकर तथा फ्राश जैसे छोटे आकार वाले वृक्ष एवं झाड़ियां होती हैं। शुष्क जलवायु के कारण इनके पत्ते छोटे, खाल मोटी तथा जड़ें गहरी होती हैं। इनसे मुख्यतः ईंधन की लकड़ी प्राप्त की जाती है। कहीं-कहीं मरुद्यान में खजूर के पेड़ मिलते हैं।
सामाजिक वानिकी में प्रयुक्त बहुउद्देश्यीय वृक्ष का उदाहरण खेजरी / खेजड़ी है। खेजरी / खेजड़ी वृक्ष को मरुस्थल का राजा कहा जाता है। खेजरी का उपयोग पशुओं के चारा, ईंधन तथा औषधि के रूप में किया जाता है। इस बहुद्देशीय उपयोग तथा अधिक तापमान सहन करने की
क्षमता तथा कम पानी की आवश्यकता के कारण सामाजिक वानिकी कार्यक्रम में इसे वरीयता दी गई है।
(5) डेल्टाई वन (Deltai Forest)
इन्हें मैंग्रोव (Mangrove), दलदली (Swampy) अथवा ज्वारीय (Tidal) वन भी कहते हैं। इसका प्रमुख उदाहरण गंगा-ब्रह्मपुत्र डेल्टा का सुन्दर वन है। इसमें ‘सुन्दरी’ नामक वृक्ष की बहुलता है, जिस कारण इसे ‘सुन्दर वन’ भी कहते हैं। इसके अतिरिक्त अण्डमान एवं निकोबार द्वीप समूह में भी ये वन प्रचुरता में मिलते हैं।
ये वन बड़े गहन होते हैं तथा ईधन और इमारती लकड़ी प्रदान करते हैं। नवीनतम आंकड़ों के अनुसार हमारे देश में 4445 वर्ग किमी. क्षेत्र पर मैंग्रोव उगे हुए हैं। इसमें से 1147 वर्ग किमी (25.8%) पर अधिक घने, 1629 वर्ग किमी. (26.6%) पर सामान्य घने तथा 1669 वर्ग किमी. (37.6%) पर कम घने मैंग्रोव हैं। देश के कुल क्षेत्रफल के 0.14% भाग पर मैंग्रोव वन हैं |
(6) पर्वतीय वन (Mountain Forest )
ये वन भारत के पर्वतीय प्रदेशों में पाए जाते हैं | भौगोलिक दृष्टि से इन्हें दो भागों में बाँटा जा सकता है — (क ) उत्तरी या हिमालय पर्वतीय वन तथा (ख ) दक्षिणी या प्रायद्वीपीय वन |
(क ) उत्तरी अथवा हिमालय पर्वतीय वन
ये वन हिमालय पर्वत की दक्षिणी ढलानों पर पाए जाते हैं। पूर्वी हिमालय में पश्चिमी हिमालय की अपेक्षा वर्षा अधिक होती है, जिस कारण पूर्वी हिमालय में पश्चिमी हिमालय से अधिक घने वन हैं |
हिमालय क्षेत्रों में ऊंचाई के क्रम के अनुसार उष्ण-कटिबन्धीय से लेकर अल्पाइन वनस्पति प्रदेशों तक के वन मिलते हैं | यह निम्नलिखित विवरण से स्पष्ट है —
(1) हिमालय के गिरिपदों में पर्णपाती प्रकार के वन पाए जाते हैं | उत्तर-पूर्व भारत की ऊंची पहाड़ियों तथा पश्चिम बंगाल के हिमालयी क्षेत्रों में 88° पूर्व देशांतर के पूर्व स्थित प्रदेशों में 1,000 से 2,000 मीटर की ऊंचाई के बीच, नम शीतोष्ण प्रकार के ऊंचे एवं घने वन पाए जाते हैं।
ये मुख्यतः शंकुल आकार की गहरी हरी भू-दृश्यावली का निर्माण करने वाले वनों की धारियों के रूप में पाए जाते हैं, जो अपने आकार में थोड़ा खुले एवं घने ह्यूमस के आवरण से ढंके होते हैं। यहां सदाबहार ओक एवं चेस्टन के वृक्ष – प्रमुख रूप से मिलते हैं।
ब्यूटिया मोनोपर्मा को ‘जंगल की आग’ (Flame of the forest) कहा जाता है। इसे ढाक अथवा पलाश के नाम से भी जाना जाता है |
फर्न एक संवहनी पौधा है | ये पौधे बीजरहित होते हैं | इन पौधों में फूल नहीं उगते |
(2) हिमालय की दक्षिणी ढालों पर 2,000 मीटर से 3,000 मीटर की ऊंचाई के बीच आर्द्र शीतोष्ण वन मिलते हैं |
इन वनों में चौड़े पत्तों वाले सदापर्णी वृक्ष, जैसे-ओक, लॉरेल तथा चेस्टनट आदि पाए जाते हैं।
इससे भी ऊपर के क्षेत्रों में घुमावदार शकुल वृक्षों का विस्तार मिलता है, जिनमें चीड़, सिल्वर, फर तथा स्प्रूस प्रमुख हैं। भोजपत्र वृक्ष हिमालय क्षेत्र में पाया जाने वाला वृक्ष प्रमुख है। यह अधिक ऊंचाई वाली पर्वतीय वनस्पति के अंतर्गत आता है।
यहां के देवदार निर्माण कार्य की लकड़ियों एवं रेल के स्लीपरों के लिए बहुत ही उपयोगी होते हैं। इसी प्रकार कश्मीर की हस्तकला को आधार देने वाले प्रसिद्ध चिनार एवं अखरोट के वृक्ष इसी क्षेत्र में पाए जाते हैं। यहां कई स्थानों पर स्थलों की अवस्थिति के अनुसार शीतोष्ण घास के मैदानों का विस्तार भी पाया जाता है।
(3) 3000 मीटर से अधिक ऊंचाई पर अल्पाइन वनों या चारागाह भूमियों का संक्रमण पाया जाता है। प्रवास करने वाले समुदाय , जैसे गुज्जर, बकरवाल, गद्दी और भूटिया इन चारागाहों का पशु चारण के लिए प्रयोग करते हैं |
3,000 से 4,000 मीटर की ऊंचाई पर सिल्वर, फर, जूनीपर, चीड़, बर्च एवं रोडोण्ड्रोन आदि के वृक्ष घने वनों के रूप में पाए जाते हैं। लेकिन हिमरेखा के निकट पहुंचने पर इनमें गांठें पड़ने लगती हैं एवं इनका विकास रुक जाता है।
अविकसित शंकुल वृक्षों के साथ अल्पाइन चारागाह 2,250 से 2,750 मीटर की ऊंचाई वाले क्षेत्र में पाए जाते हैं, जो पीरपंजाल जैसी पर्वत-मालाओं में स्थायी हिम आवरण के नीचे उच्च ढालों का निर्माण करते हैं।
उल्लेखनीय है कि वृष्टि की अधिकता के कारण दक्षिणी हिमालयी ढाल पर वनस्पति आवरण, शुष्क उत्तरी ढालों की अपेक्षा ज्यादा बेहतर एवं मोटा है।
(ख ) दक्षिणी अथवा प्रायद्वीपीय पहाड़ियों के वन
प्रायद्वीपीय पहाड़ियों में उर्मिल घास के मैदान मिलते हैं जिनके बीच अविकसित वर्षा वन या झाड़ियां उगी हुई हैं | यहां पर काई तथा फर्न सामान्य रूप से पाए जाते हैं |
हाल ही में इन पहाड़ी इलाकों में यूकेलिप्टस के पेड़ लगाए गए हैं। इस प्रकार की वनस्पति पश्चिमी घाट विंध्याचल, नीलगिरि, अन्नामलाई आदि पहाड़ी भागों में मिलती है।
निम्न क्षेत्रों में उष्णकटिबंधीय तथा उच्च क्षेत्रों में शीतोष्ण कटिबंधीय वनस्पति पायी जाती है। नीलगिरी, अन्नामलाई और पालनी पहाड़ियों पर पाए जाने वाले शीतोष्ण कटिबंधीय वनों को ‘शोलास’ के नाम से जाना जाता है।
इन वनों में पाए जाने वाले वृक्षों मगनोलिया, लॉरेल, सिनकोना और वैटल का आर्थिक महत्व है। ये वन सतपुड़ा और मैकाल श्रेणियों में भी पाए जाते हैं।
ऑरिक्स गर्म और शुष्क क्षेत्रों जैसे अरब आदि क्षेत्रों में रहने के लिए अनुकूलित हैं जबकि चीरू ठंडे उच्च पर्वतीय घास के मैदान और अर्द्ध मरुस्थली क्षेत्रों में रहने के लिए अनुकूलित हैं।
राष्ट्रीय उद्यान एवं वन्य जीव अभयारण्य
भारत में वन्य जीवों के कुछ प्रचार दिया संकटग्रस्त हैं तथा कुछ प्रजातियां विलुप्त होने के कगार पर हैं | तेजी से नष्ट होती जा रही वन्यजीवों की प्रजातियों को बचाने तथा सुरक्षा प्रदान करने का भारत सरकार ने निर्णय लिया और 1972 में वन्य जीव सुरक्षा अधिनियम पारित किया | जम्मू-कश्मीर को छोड़कर अन्य सभी राज्यों में इस कानून को लागू किया गया | जम्मू कश्मीर में इसी तरह का अपना कानून पहले से है |
इस अधिनियम के दो मुख्य उद्देश्य हैं — अधिनियम के तहत अनुसूची में सूचीबद्ध संकटग्रस्त प्रजातियों को सुरक्षा प्रदान करना तथा राष्ट्रीय उद्यान, पशु विहार जैसे संरक्षित क्षेत्रों को कानूनी सहायता प्रदान करना |
देश में 104 राष्ट्रीय उद्यान और 492 वन्य जीव अभ्यारण क्षेत्र हैं जो 1.57 करोड हेक्टेयर भूमि पर फैले हैं |
1973 बाघों की सुरक्षा के लिए एक योजना ‘प्रोजेक्ट टाइगर’ शुरू की गई इसका मुख्य उद्देश्य भारत में बाघों को लुप्त होने से बचाना तथा उनकी संख्या में वृद्धि करने का प्रयास करना था | इसी दिशा में 4 सितंबर, 2006 में ‘राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण’ का गठन किया गया |
1975 में मगरमच्छ प्रजनन परियोजना शुरू की गई | इसके अतिरिक्त हंगुल परियोजना और हिमालय कस्तूरी मृग परियोजना भी चलाई जा रही है |
प्रोजेक्ट एलिफेंट को 1992 में लागू किया गया | इसका मुख्य उद्देश्य हाथियों की संख्या को उनके प्राकृतिक पर्यावरण में लंबी अवधि तक सुनिश्चित करना था | इस समय यह प्रोजेक्ट 16 राज्यों में चल रहा है | इन राज्यों के नाम हैं — केरल, तमिलनाडु, महाराष्ट्र , आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, अरुणाचल प्रदेश, असम, मेघालय, नागालैंड, त्रिपुरा, झारखंड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश तथा पश्चिमी बंगाल |
राष्ट्रीय उद्यान एवं वन्य जीव अभयारण्य
बाँधवगढ़ राष्ट्रीय उद्यान | बांधवगढ़ ( मध्य प्रदेश ) |
कान्हा राष्ट्रीय उद्यान | मंडला एवं बालाघाट |
पन्ना राष्ट्रीय उद्यान | पन्ना ( मध्य प्रदेश ) |
सतपुड़ा राष्ट्रीय उद्यान | होशंगाबाद ( मध्य प्रदेश ) |
कासिम राष्ट्रीय उद्यान | भोपाल ( मध्य प्रदेश ) |
इंद्रावती राष्ट्रीय उद्यान | बस्तर ( छत्तीसगढ़ ) |
सिंचौल वन्य जीव अभ्यारण | रायसेन ( मध्य प्रदेश ) |
रातापानी वन्य जीव अभ्यारण | रायसेन ( मध्य प्रदेश ) |
संजय राष्ट्रीय उद्यान | सीधी एवं सर गुजर ( मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ ) |
जिम कार्बेट राष्ट्रीय उद्यान | नैनीताल ( उत्तराखंड ) |
दुधवा राष्ट्रीय उद्यान | लटवीसपुर खीरी ( उत्तर प्रदेश ) |
चंद्रप्रभा वन्यजीव अभयारण्य | वाराणसी ( उत्तर प्रदेश ) |
नंदा देवी जीव आरक्षित क्षेत्र | चमोली ( उत्तराखंड ) |
राजाजी राष्ट्रीय उद्यान | उत्तराखंड |
गोविंद पशु विहार | उत्तरकाशी ( उत्तराखंड ) |
केवलादेव घाना पक्षी विहार | भरतपुर ( राजस्थान ) |
रणथंभौर वन्य जीव अभ्यारण | सवाई माधोपुर ( राजस्थान ) |
सरिस्का वन्य जीव अभ्यारण्य | अलवर ( राजस्थान ) |
दाचीग्राम वन्यजीव अभयारण्य | श्रीनगर ( जम्मू कश्मीर ) |
गिर राष्ट्रीय उद्यान | जूनागढ़ ( गुजरात ) |
बांदीपुर राष्ट्रीय उद्यान | बांदीपुर ( कर्नाटक ) |
वेणुगोपाल राष्ट्रीय उद्यान | मैसूर ( कर्नाटक ) |
तुंगभद्रा वन्यजीव अभयारण्य | बेल्लारी ( कर्नाटक ) |
सोमेश्वर वन्यजीव अभयारण्य | कनारा ( कर्नाटक ) |
शरावती वन्यजीव अभयारण्य | शिमोगा ( कर्नाटक ) |
पेरियार वन्यजीव अभयारण्य | इडुक्की ( केरल ) |
साइलेंट वैली राष्ट्रीय उद्यान | केरल |
रास द्वीप राष्ट्रीय उद्यान | रास द्वीप ( अंडमान-निकोबार ) |
बेतला राष्ट्रीय उद्यान | पलामू ( झारखंड ) |
डालमा वन्यजीव अभयारण्य | सिंहभूम ( झारखंड ) |
हजारीबाग राष्ट्रीय पार्क | हजारीबाग ( झारखंड ) |
जलदपारा वन्यजीव अभयारण्य | जलपाईगुड़ी ( पश्चिम बंगाल ) |
वाल्मीकि राष्ट्रीय उद्यान | पटना ( बिहार ) |
गौतम बुद्ध वन्य जीव अभयारण्य | गया ( बिहार ) |
भीम बांध वन्यजीव अभयारण्य | मुंगेर ( बिहार ) |
भीतर कणिका राष्ट्रीय उद्यान | उड़ीसा |
सोनाई रूपा वन्यजीव अभयारण्य | तेजपुर ( असम ) |
गरम पानी वन्यजीव अभयारण्य | दिकू ( असम ) |
यह भी देखें
भारत के प्राकृतिक प्रदेश : हिमालय पर्वत
भारत के प्राकृतिक प्रदेश : विशाल उत्तरी मैदान
भारत के प्राकृतिक प्रदेश : प्रायद्वीपीय पठार
भारत के प्राकृतिक प्रदेश : तटीय मैदान तथा द्वीप समूह
भारत की जलवायु : प्रभावित करने वाले कारक व प्रमुख विशेषताएं
भारत में बाढ़ और अनावृष्टि के प्रमुख कारण
भारत की मिट्टियां : विभिन्न प्रकार, विशेषताएँ व वितरण