अलाउद्दीन खिलजी की सैनिक सफलताएं ( Alauddin Khilji’s Military Achievements )

अलाउद्दीन खिलजी की सैनिक सफलताएं
अलाउद्दीन खिलजी की सैनिक सफलताएं

अलाउद्दीन खिलजी खिलजी वंश का सबसे योग्य शासक था | उसने 1296 ईस्वी से 1316 ईस्वी तक शासन किया | अपने 20 वर्ष के शासनकाल में उसने न केवल साम्राज्य विस्तार की तरफ ध्यान दिया बल्कि अनेक आर्थिक, सैनिक और प्रशासनिक सुधार भी किए | सुल्तान बनते ही उसने सर्वप्रथम साम्राज्य विस्तार की नीति को अपनाया | उसने न केवल उत्तरी भारत बल्कि दक्षिण भारत में भी सैनिक सफलताएं प्राप्त की |

अलाउद्दीन खिलजी एक महत्वाकांक्षी शासक था | वह संपूर्ण विश्व को अपने साम्राज्य में मिलाना चाहता था | लेकिन वह कोरी कल्पना ओं में नहीं खोना चाहता था | यही कारण है कि उसने जल्दी ही विश्व विजय के सपने को छोड़ दिया | अब उसने भारत के विभिन्न क्षेत्रों को जीतने की योजना बनाई। अलाउद्दीन खिलजी की सैनिक सफलताएं निम्नलिखित तीन वर्गों में विभक्त की जा सकती हैं —

(क ) उत्तरी भारत की विजय

(ख ) दक्षिण भारत की विजय

(ग ) मंगोलों के आक्रमणों से सुरक्षा |

(क ) उत्तरी भारत की विजय (Victory of North India)

अलाऊद्दीन खलज़ी ने सर्वप्रथम अपने राजधानी क्षेत्र में अपना आधिपत्य जमाना चाहा। इसके लिए अनिवार्य था कि यदि वह इस क्षेत्र व अपनी राजधानी को सुरक्षित रखना चाहता है तो उत्तरी भारत पर उसका पूर्ण अधिकार हो। इसी उद्देश्य से उसने अपना विजय अभियान प्रारम्भ किया।

(1) गुजरात विजय (1297 ई०) [Victory of Gujarat (1297A.D.)]

गुजरात में वघेला राजपूत रायकर्ण देव का शासन था। अलाऊद्दीन खलज़ी के इस क्षेत्र पर आक्रमण के दो उद्देश्य थे। पहला खम्भात जैसी बन्दरगाह पर अधिकार करना तथा दूसरा रायकर्ण देव की लड़की देवल देवी को अपने हरम में शामिल करना। इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए उसने उलुगखां व नुसरतखां को भेजा। रायकर्ण की हार हुई, लेकिन वह देवल देवी के साथ यहाँ से भागने में सफल हुआ, परन्तु उसकी पत्नी कमला देवी को दिल्ली लाया गया, जिससे अलाऊद्दीन ने शादी की। खम्भात पर अधिकार का उसका उद्देश्य पूरा हुआ। यहाँ पर उसे सबसे उत्तम हीरा मिला। यह हीरा मलिक काफूर था, जिसे एक हजार दिनार में खरीदने के कारण ‘हजार दिनारी’ कहा गया। इसी दास ने उसकी दक्षिण की सारी विजयें कीं।

(2) रणथम्भोर विजय (1301 ई०) [Victory of Ranthambore (1301 A.D.)]

दिल्ली से राजपूताना की ओर बढ़ते हुए यह सबसे प्रसिद्ध पहला दुर्ग था। यहाँ का शासक राजा हमीर देव था। इसके विरुद्ध पहले दिल्ली सल्तनत के सुलतानों को सफलता नहीं मिली थी। उसने नुसरतखाँ व उलुगखाँ को भी ग्यारह महीने के संघर्ष में पराजित किया था। स्वयं अलाऊद्दीन को इसमें सफलता नहीं मिली, फिर विश्वासघात का मार्ग अपनाया गया। राजा हमीरदेव के मंत्री रणमल ने लालच में आकर किले के दरवाजे खुलवा दिए। इसके बाद राजपूत विजित से पराजित अवस्था में आ गए। यहाँ पर पहली बार जोहर के प्रमाण मिलते हैं। युद्ध में हमीर देव मारा गया। बाद में अलाऊद्दीन की आज्ञा से रणमल का भी वध करवा दिया गया। इस तरह से अलाऊद्दीन ने इस क्षेत्र पर अधिकार करने में सफलता पाई।

(3) चित्तौड़ विजय (Chitaur Conquest)

अलाऊद्दीन की चित्तौड़ विजय की कहानी भी विवादास्पद है, क्योंकि इसके उद्देश्यों के बारे में अलग-अलग इतिहासकारों के अलग-अलग
मत हैं। सभी राजपूत स्रोत व मलिक मुहम्मद जायसी की ‘पदमावत’ से पता चलता है कि वह चित्तौड़ के शासक राणा रत्नसिंह की पत्नी पदमिनी को अपने हरम में लाना चाहता था। इस उद्देश्य के आधार पर अलाऊद्दीन ने स्वयं इस क्षेत्र पर आक्रमण किया जिसमें रतन सिंह पराजित हुआ तथा उसे बन्दी बना लिया गया। इसके बाद गोरा व बादल राजपूत नायकों ने उसे आजाद करवाया। अलाऊद्दीन ने सन्धि प्रस्ताव में पदमिनी के साथ विवाह करने की बात कही जिसे स्वीकार कर लिया गया |

अलाऊद्दीन ने फिर विश्वासघात किया और चित्तौड़ को अपने साम्राज्य में मिलाना चाहा | राजपूतों ने कुछ समय तक अलाउद्दीन खिलजी के साथ संघर्ष किया परन्तु जब राजपूतों को विजय की कोई आशा न रही तो पदमिनी के नेतृत्व में फिर से जौहर हुआ। चित्तौड़ को अलाऊद्दीन ने अपने पुत्र खिजरखाँ को देकर इस क्षेत्र का नाम खिजराबाद कर दिया।

(4 ) मालवा विजय (1305 ई०) [Victory of Malwa (1305 A.D.)

चित्तोड़ के बाद अलाऊद्दीन ने मालवा को अपना निशाना बनाया। यहाँ का शासक महलकदेव मुकाबला करते हुए युद्ध के मैदान में मारा गया। इस विजय से माण्डु, उज्जैन, चन्देरी व घाट का क्षेत्र अलाऊद्दीन के साम्राज्य का हिस्सा बन गया | खिलज़ी की उत्तरी भारत की विजय के बारे में नीति स्पष्ट थी कि वह जिस भी क्षेत्र को विजित करेगा, उसे प्रत्यक्ष रूप से अपने साम्राज्य में शामिल करेगा। दक्षिण के सन्दर्भ में उसकी यह नीति नहीं थी

(ख) अलाउद्दीन खिलजी द्वारा दक्षिण भारत की विजय (Conquest of South India By Alauddin Khilji )

अलाऊद्दीन खलज़ी पहला मुस्लिम शासक था जिसने दक्षिण भारत को जीतने का प्रयत्न किया। यहाँ यह भी स्पष्ट है कि उसने स्वयं दक्षिण भारत की ओर कदम नहीं रखा, बल्कि यह विजय अभियान उसके एक बार मलिक काफूर ने किया।

(1) देवगिरी की विजय (1306-1307 ई०) [Conquest of Devagiri (1306-1307 A.D.)]

इस काल में देवगिरी उत्तर व दक्षिण का द्वार माना जाता था। मलिक काफूर सर्वप्रथम इसी क्षेत्र को जीतना चाहता था। उसके पास एक बहुत बढ़िया बहाना भी था। गुजरात शासक रायकर्ण देव उसकी पुत्री के साथ यहाँ रह रहा था। ऐसी स्थितियों में मलिक काफूर व देवगिरी के शासक रामचन्द्र के बीच युद्ध हुआ। रामचन्द्र की हार के बाद उसे काफूर से एक सन्धि करनी पड़ी। इसके तहत देवल देवी का विवाह अलाऊद्दीन के पुत्र से किया गया व रामचन्द्र ने पर्याप्त मात्रा में कर देना भी स्वीकार किया। बदले में काफूर ने उसको सम्मान दिया व उसका राज्य लौटा दिया। इस तरह से काफूर ने देवगिरी को दक्षिण का आधार शिविर बना लिया।

(2) वारांगल की विजय (1309 ई०) [Conquest of Waraangal (1309 A.D.)]

वारांगल में काकतिया वंश के शासक प्रताप रुद्र देव का शासन था। काफूर ने धन प्राप्ति की लालसा से इस क्षेत्र पर आक्रमण किया। प्रताप रुद्र देव के विरुद्ध देवगिरी के शासक ने भी सहायता की। इस संघर्ष के उपरान्त प्रताप रुद्र देव की हार हुई। उसके साथ जो सन्धि की गई उसके अनुसार उसे 700 हाथी, 7,000 घोड़े व बहुत-सा सोना, चाँदी व हीरे-जवाहरात देने पड़ते। इस धन को प्राप्त करके अलाऊद्दीन खलज़ी ने काफूर का उत्साह बढ़ाया तथा उसे आगे बढ़ने आदेश भी दिया।

(3) द्वार-समुद्र की विजय (1310 ई०) [Conquest of Dwar-Samudra (1310 A.D.)]

द्वार समुद्र क्षेत्र में होयसेल वंश का शासक वीर वल्लभ तृतीय शासन करता था। मलिक काफूर एक योजना व बड़ी लश्कर को लेकर उसके राज्य की ओर बढ़ा। वीर वल्लभ तृतीय ने शत्रु की शक्ति को ध्यान में रखते हुए संन्धि के लिए अनुरोध किया। वीर वल्लभ को दिल्ली भेज दिया गया। उससे सन्धि के उपरान्त जो धन प्राप्त हुआ वह वारांगल कीतुलना में अधिक था। मलिक काफूर ने इस क्षेत्र में लूटमार भी की। उसकी लूटमार का मुख्य केन्द्र मन्दिर बने, क्योंकि वे अथाह सम्पत्ति के केन्द्र थे।

(4) मदुरा या मदुरै की विजय (1311 ई०) [Conquest of Mudari (1311 A.D.)]

मदुरा (मदुरै) भारत के सुदूर दक्षिण क्षेत्र में था। यहाँ पर पाण्डय वंश का राज्य था। जिस समय मलिक काफूर ने इस क्षेत्र पर आक्रमण किया उस समय वहाँ उत्तराधिकार के लिए सुन्दर पाण्डय व वीर पाण्डय के बीच युद्ध चल रहा था। सुन्दर पाण्डय ने अपने पिता का वध भी किया था, परन्तु स्वामी भक्त से वारदारों ने वीर पाण्डय के नेतृत्व में उसका विरोध किया। सुन्दर पाण्डय ने मलिक काफूर से सहायता माँगी। मलिक काफूर ने वीर पाण्डय को पराजित करके बहुत अधिक मात्रा में लूटमार की। इसमें 612 हाथी तथा 20,000 घोड़ों के अतिरिक्त हजारों मण सोना-चाँदी तथा हीरे-जवाहरात थे। यह धन इतना अधिक था कि मुहम्मद गजनवी की लूटमार भी इसके सामने छोटी थी। मलिक काफूर ने यहाँ रामेश्वरम में मन्दिर को तोड़कर मस्जिद का निर्माण भी करवाया।

(5) देवगिरी की पुनः विजय (1312 ई०) [Re-conquest of Devagiri (1312 A.D.)]

देवगिरी के शासक रामचन्द्र ने 1306 ई० में अलाऊद्दीन की अधीनता स्वीकार की थी। 1311 ई० में उसकी मृत्यु के बाद उसका पुत्र शंकरदेव शासक बना। उसने अलाऊद्दीन खलज़ी को कर देना बन्द कर दिया तथा स्वतन्त्र शासक के रूप में व्यवहार करने लगा। दूसरा यह कि मलिक काफूर दक्षिण के दूरतम क्षेत्र तक विजय प्राप्त कर चुका था। अब उसे देवगिरी जैसे आधार शिविर की आवश्यकता थी। अतः दोनों ने एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाने शुरू कर दिए। इससे दोनों में युद्ध होना अनिवार्य हो गया। इस युद्ध में शंकर देव की पराजय हुई। अलाऊद्दीन ने फिर इसे करद राज्य घोषित कर दिया। इस प्रकार से मलिक काफूर के नेतृत्व में अलाऊद्दीन खलज़ी द्वारा जो अभियान चलाया गया उसका उद्देश्य साम्राज्य विस्तार नहीं था, क्योंकि उसने किसी भी क्षेत्र को साम्राज्य में शामिल नहीं किया। वह उस क्षेत्र से मात्र धन हड़पना चाहता था ताकि उसकी आर्थिक स्थिति अच्छी हो सके।

(ग) मंगोलों के आक्रमणों से सुरक्षा ( Protection Against Mangolas’ Invasions )

दिल्ली सल्तनत की स्थापना के समय से ही मंगोलों के भारत पर आक्रमण प्रारम्भ हो गए थे। प्रारम्भ में ये इतने खतरनाक नहीं थे। अलाऊद्दीन खलज़ी के काल में इनके आक्रमण अधिक चुनौतीपूर्ण
थे।

मंगोलों के प्रमुख आक्रमण और अलाउद्दीन खिलजी की प्रतिक्रिया (Main Invasions of Mangols and Alauddin khilji’s Reply )

1297 ई० से 1307 ई० तक मंगोलों ने भारत पर पाँच आक्रमण किए पहला आक्रमण 1297 ई० में अमीर दाऊद के नेतृत्व में हुआ जब वे मुलतान, पंजाब व सिन्ध पर कब्जा कर चुके थे। सुलतान के दामाद उलुग खाँ ने इन्हें पराजित करके लौटा दिया। दूसरा आक्रमण 1298 ई० में साल्दी के नेतृत्व में हुआ। इस बार अलाऊद्दीन के सबसे योग्य सेनानायक ने उन्हें पराजित किया। हजारों मंगोल बन्दी के रूप में दिल्ली भेज दिए गए। तीसरा व सबसे शक्तिशाली आक्रमण 1299 ई० में कुतुलुग ख्वाजा के नेतृत्व में हुआ। इस समय उनकी संख्या 2,00,000 थी। सुलतान के सलाहकारों ने उसे सन्धि करने की सलाह दी, परन्तु शासक जफर खाँ व उलुग खों के साथ स्वयं आगे बढ़ा। दिल्ली के पास निर्णायक युद्ध में मंगोलों की हार हुई, परन्तु अलाऊद्दीन का योग्य सेनापति जफर खाँ भी युद्ध में काम ‘आया। बरनी लिखता है कि मंगोल जफर खाँ से इतने डर गए थे कि काबुल जाकर भी यदि उनके घोड़े पानी नहीं पीते थे तो वे कहते कि क्या उन्होंने जफर खाँ को देखा है।

मंगोलों ने चौथा आक्रमण 1304 ईस्वी में अली बेग और ख्वाजा ताश के नेतृत्व में किया | परंतु सीमा प्रांत के प्रमुख गाजी तुगलक ने उन्हें हरा दिया |

सन 1307 में मंगोलों ने पांचवां व अंतिम आक्रमण किया | मंगोलों का नेतृत्व इक़बाल नंदा ने किया | परंतु गाजी तुगलक ने उनके इस आक्रमण को भी विफल कर दिया | मंगोल पराजित हुए | हजारों मंगोलों को बंदी बना लिया गया | मंगोल सेनानायकों को हाथी के पांव तले कुचलवा दिया गया | इसके पश्चात मंगोल काफी समय तक भारत पर आक्रमण करने का साहस न कर पाए |

मंगोलों के आक्रमणों को विफल करने में अलाउद्दीन खिलजी की दूरदर्शिता काम आई | उसे पहले से पता था कि मंगोल भारत पर आक्रमण कर सकते हैं | इसलिए उसने मंगोलों से निपटने के लिए पहले से पुख्ता योजना बनाई | सीमावर्ती क्षेत्रों में सैनिक टुकड़ियों की संख्या बढ़ा दी गई | पुराने किलों की मरम्मत की गई | नए किलों का निर्माण किया गया | सैनिक प्रशिक्षण को कड़ा किया गया तथा सैनिकों को नए हथियार उपलब्ध कराये गए |

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि अलाउद्दीन खिलजी की सैनिक सफलताएं अनायास नहीं थी बल्कि उसकी सोची समझी रणनीति का हिस्सा थी | अपने सैनिक अभियानों में अलाउद्दीन खिलजी को इसलिए भी सफलता मिली कि उसने दक्षिण भारत पर प्रत्यक्ष नियंत्रण नहीं किया | यदि वह प्रत्यक्ष रूप से दक्षिण भारत को भी अपने साम्राज्य में मिला लेता तो संभवत: इतने विशाल साम्राज्य को उसके लिए संभाल पाना दुष्कर हो जाता | तब विदेशी मंगोलों के आक्रमणों को संभालना तो बड़ी दूर की बात संभवत: वह आंतरिक विद्रोहों को भी दबा न पाता | निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि अलाउद्दीन खिलजी एक कुशल प्रशासक, महान अर्थशास्त्री और एक साहसी योद्धा था |

यह भी देखें

दिल्ली सल्तनत के पतन के कारण

सल्तनत कालीन अर्थव्यवस्था की विशेषताएँ

सल्तनतकालीन कला और स्थापत्य कला

सल्तनत काल / Saltnat Kaal ( 1206 ईo – 1526 ईo )

अलाउद्दीन खिलजी के सुधार

मुहम्मद तुगलक की हवाई योजनाएं

फिरोज तुगलक के सुधार

सूफी आंदोलन ( Sufi Movement )

विजयनगर साम्राज्य ( Vijayanagar Empire )

भक्ति आंदोलन : उद्भव एवं विकास ( Bhakti Andolan : Udbhav Evam Vikas )

गुप्त काल : भारतीय इतिहास का स्वर्णकाल

गुप्त वंश ( Gupta Dynasty )

चोल वंश ( Chola Dynasty )

मौर्य वंश ( Mauryan Dynasty )

महात्मा बुद्ध एवं बौद्ध धर्म ( Mahatma Buddha Evam Bauddh Dharma )

सिंधु घाटी की सभ्यता ( Indus Valley Civilization )

1857 ईo की क्रांति के परिणाम ( 1857 Ki Kranti Ke Parinam )

1857 की क्रांति ( The Revolution of 1857 )

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