दिल्ली सल्तनत की स्थापना कुतुबुद्दीन ऐबक ने 1206 ईस्वी में दिल्ली सल्तनत की स्थापना की | यह शासन 1526 ईस्वी तक चलता रहा | 1388 ईस्वी में फिरोजशाह तुगलक की मृत्यु के बाद दिल्ली सल्तनत का धीरे-धीरे पतन होने लगा | जहाँ खिलजी शासकों ने इसे अपनी चरम सीमा तक पहुंचाया वहीं तुगलक शासकों ने इसे पतन के समीप ला दिया | सैयद और लोदी वंश के सुल्तानों ने इसके पतन की गति को और अधिक तीव्र कर दिया | 1398 ईस्वी में तैमूर लंग के आक्रमणों ने दिल्ली सल्तनत की कमर तोड़ दी | उसने दिल्ली में अपार जन-धन की हानि पहुंचाई और दिल्ली सल्तनत को निर्बल बना दिया | सन 1526ईस्वी में बाबर ने इब्राहिम लोदी को पराजित करके दिल्ली सल्तनत का अंत कर दिया और भारत में मुगल वंश की नींव रखी | दिल्ली सल्तनत के पतन के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं —
(1) निरंकुश राजतंत्रीय व्यवस्था ( Autocratic Monarchical System )
दिल्ली के अधिकांश सुल्तान निरंकुश एवं स्वेच्छाचारी थे | उसी के पास सभी शक्तियां होती थी | ऐसी व्यवस्था में एक शक्तिशाली सुलतान ही स्थिर शासन दे सकता था। बलबन और अलाऊद्दीन खलजी जैसे सुलतानों ने अपने आतंक तथा प्रशासनिक कौशल द्वारा साम्राज्य को सम्भाल लिया। परन्तु फ़ीरोज़ तुगलक के बाद कोई शक्तिशाली शासक नहीं हुआ। फलस्वरूप शासन-व्यवस्था बिगड़ने लगी और साम्राज्य डूबने लगा |
राजतन्त्रीय-प्रथा में राजा का पुत्र ही सिंहासन पर बैठता है। यह निश्चित नहीं कि योग्य पिता का पुत्र भी योग्य हो। सौभाग्य से वह योग्य हो भी जाए, तो आगे उसके पुत्र का योग्य होना निश्चित नहीं है। ऐसी प्रणाली में पतन स्वाभाविक हो जाता है। यह नियम दिल्ली सल्तनत पर भी लागू था।
(2) राष्ट्रीयता की भावना का अभाव (Lack of National Feeling)
दिल्ली सल्तनत का आधार राष्ट्रीयता की भावना नहीं थी। इसका आधार धार्मिक पक्षपात और सुलतान की नीति थी। सभी सुलतान कट्टर मुसलमान थे। लगभग सभी शासक हिन्दू जनता के प्रति उदासीन एवं कठोर थे। फ़ीरोज़ तुगलक की तुलना तो औरंगजेब के साथ की जाती है। सल्तनतकाल में हिन्दू बहुत दुखी थे, इसलिए हिन्दुओं ने सुलतानों को सक्रिय समर्थन और सहयोग नहीं दिया। इस बहुमत के समर्थन के बिना, सुलतान सफल नहीं हो सकते थे। परन्तु यह कारण अधिक तर्कसंगत नहीं लगता क्योंकि इसके बाद मुगल वंश के अधिकांश शासकों ने भी धार्मिक पक्षपात की नीति को अपनाया |
(3) विस्तृत साम्राज्य (Vast Empire)
सल्तनतकाल में साम्राज्य काफ़ी विस्तृत हो चुका था। मुहम्मद तुगलक ने दक्षिणी भारत को अपने साम्राज्य में मिला लिया था। वह दक्षिणी भारत की अतुलित धन सम्पदा को प्राप्त करना चाहता था । परन्तु इसका विपरीत प्रभाव पड़ा | इतने बड़े साम्राज्य पर नियन्त्रण रखना असम्भव हो गया था। यातायात और संचार-व्यवस्था के साधनों के अभाव में उत्तरी भारत नियंत्रण से बाहर होने लगा । स्थान-स्थान पर विद्रोह होने लगे। दक्षिण के हिन्दू राज्य भी सल्तनत के शत्रु बन गए। तुर्की सत्ता के विरुद्ध आवाज़ उठने लगी। अनेक सरदारों ने अपने स्वतन्त्र राज्य स्थापित कर लिए। सैय्यद और लोदी शासक इतने योग्य नहीं थे, कि वे सल्तनत की बिगड़ती हुई हालत को सुधार सकते। फलस्वरूप दिल्ली साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो गया।
(4) अमीरों एवं सरदारों के षड्यन्त्र (Conspiracies of the Amirs and Sardars)
दरबार में आरम्भ से ही षड्यन्त्र होतेरहते थे। इल्तुतमिश के उत्तराधिकारी ‘चालीसा’ के हाथों में कठपुतली थे। बलबन तथा अलाऊद्दीन खलजी ने सरदारों की शक्ति कम कर दी थी, परन्तु षड्यन्त्र चलते रहते थे। असन्तुष्ट और सुल्तान विरोधी तत्त्व सदा अवसर की खोज में रहते थे। सुदूर प्रान्तों के सूबेदार स्वतन्त्र होने का प्रयास करते रहते थे। अमीरों और सरदारों की इन गतिविधियों के कारण दिल्ली साम्राज्य की शक्ति कमजोर होने लगी।
(5) दुर्बल सेना (Weak Army )
सल्तनत की स्थापना सुदृढ़ सेना की सहायता से हुई थी। महमूद गज़नवी और मुहम्मद गौरी के साथ जो परिश्रमी सेना भारत आई थी, अब वह भारत की गर्म जलवायु में रहकर आलसी और विलासी हो गई। बलबन और अलाऊद्दीन खलजी ने सेना को शक्तिशाली बनाए रखा। परन्तु फ़ीरोज़ तुगलक ने सामन्तवादी-प्रणाली लागू करके सेना कमज़ोर बना दी। दुर्बल सेना होने के कारण न तो नए प्रदेश जीते जा सके और न ही विद्रोहों का दमन किया जा सका।
(6) आर्थिक कारण (Economic Causes)
तुगलक शासकों की विवेकहीन नीतियों के कारण आर्थिक संकट उत्पन्न हो गया | मुहम्मद तुगलक की विचित्र योजनाओं ने राजकोष खाली कर दिया | धन के अभाव में आंतरिक विद्रोह को भी नहीं कुचला जा सकता था और बाहरी आक्रमणों का मुकाबला करना तो दूर की बात थी | अतः साम्राज्य धीरे-धीरे पतन की ओर बढ़ने लगा |
(7) तुगलक शासकों की नीतियाँ ( Policies of Thuglaq Rulers)
मुहम्मद तुगलक की हवाई योजनाओं ने सल्तनतकाल के पतन में काफी योगदान दिया। उसकी अनेक योजनाएं असफल हो गई। लाखों रुपया व्यर्थ गया। आर्थिक संकट गहरा हो गया। योजनाओं को कठोरता से लागू किया गया। जनता को अनेक कष्ट सहने पड़े जिससे जनता विद्रोही बन गई। जनता में विद्रोह की भावना उत्पन्न होने से साम्राज्य पतन की ओर अग्रसर होने लगा। मुहम्मद तुगलक के शासनकाल में ही दक्षिणी भारत, बंगाल और राजस्थान स्वतन्त्र हो गए। फीरोज़ तुगलक ने अपने पूर्वजों की कुछ गलतियाँ सुधारने का प्रयत्न किया, परन्तु उसने भी अनेक गलतियाँ की, जिन्होंने साम्राज्य के पतन में योगदान दिया। उसकी दयालुता, दानशीलता, दास-प्रथा,सामन्त-प्रथा, कट्टर धार्मिक नीति और कमज़ोर सैनिक नीति ने सल्तनत को पतन के द्वार पर लाकर खड़ा कर दिया। फलत: साम्राज्य के पतन की क्रिया और तेज़ हो गई।
(8) विदेशी आक्रमण (Foreign Invasion)
सल्तनतकाल में अनेक विदेशी आक्रमण हुए । विशेषत: मांगोलों ने अपने आक्रमणों से दिल्ली सुल्तानों का चैन भंग कर दिया | सन 1220 ई० से लेकर मुहम्मद तुगलक के शासनकाल तक मंगोलों ने निरन्तर आक्रमण किए। उन्होंने बहुत लूटमार की। सुलतानों के लिए वे एक स्थायी समस्या बने रहे। चाहे उन्हें युद्ध में कभी विजय नहीं मिली, फिर भी दिल्ली के सुलतान उनके आक्रमणों के डर के कारण न तो कोई नई विजय कर सके और न ही प्रजा-हितैषी कार्य कर सके। सल्तनत का बहुत-सा धन इन आक्रमणों को रोकने में खर्च हो गया और उनके अनेक सैनिक एवं सेनाधिकारी इन युद्धों में मारे गए।
इसी प्रकार 1398 ई० में तैमूर ने समरकन्द से भारत पर आक्रमण किया। दिल्ली का शासक तुगलक शाह भाग गया। उसने लोगों को शस्त्र भी नहीं दिए और उन्हें भी भाग जाने की सलाह दी। दिल्ली को शत्रु की दया पर छोड़ दिया गया। तैमूर ने दिल्ली को खूब जी भरकर लूटा। उसने लाखों निर्दोष लोगों की हत्या कर दी। जन एवं धन की अपार हानि हुई। सुलतान का सम्मान मिट्टी में मिल गया।
(9) सैय्यद और लोदी शासकों की अयोग्यता (Incapability of Sayad and Lodhi Rulers)
तैमूर के आक्रमण के बाद दिल्ली पर सैय्यद वंश का शासन स्थापित हो गया। इस वंश के सभी शासक दुर्बल थे। इनके काल में दिल्ली में राजनीतिक साँठ-गाँठ बढ़ गई । चारों ओर अराजकता और अशान्ति फैल गई । सुलतानों को सिंहासन पर बिठाने और उतारने का कार्य आरम्भ हो गया। सैय्यद वंश के अन्तिम शासक अलाऊद्दीन आलम शाह को बहलोल लोदी ने सिंहासन से उतार दिया और स्वयं सुलतान बन गया। लोदी वंश का शासन आरम्भ हुआ। लोदी वंश के शासक सिकंदर लोदी को छोड़कर अन्य सभी शासक अयोग्य सिद्ध हुए सिकंदर लोदी भी धार्मिक कट्टर शासक था वह हिंदू जनता का समर्थन हासिल नहीं कर सका | उसके पश्चात इब्राहिम लोदी निकम्मा शासक सिद्ध हुआ | उसमें अनेक चारित्रिक कमियाँ तो थी ही वह प्रशासनिक रूप से भी अयोग्य था | उस के शासनकाल में अनेक सूबेदार स्वतंत्र हो गए | सन 1525 ईस्वी में जौनपुर और बिहार दिल्ली सल्तनत से अलग हो गया |
(10) बाबर का आक्रमण ( Invasion of Babar )
सन 1526 ईस्वी में काबुल के शासक बाबर ने भारत पर आक्रमण किया | उस समय दिल्ली का शासक इब्राहिम लोदी था | उसने इब्राहिम लोदी को पानीपत के स्थान पर पराजित कर दिया | इस युद्ध में इब्राहिम लोदी की मृत्यु हुई और दिल्ली सल्तनत के लगभग 30000 सैनिक मारे गए | परिणामस्वरूप भारत में मुगल वंश की स्थापना हुई |
इस युद्ध के विषय में प्रसिद्ध इतिहासकार लेनपूल लिखते हैं — “पानीपत का पहला युद्ध अफ़गानों के लिए कब्र बन गया उनका राज्य नष्ट हो गया और उनकी शक्ति सदा के लिए समाप्त हो गई |”
उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि दिल्ली सल्तनत के पतन के अनेक कारण थे | दिल्ली सल्तनत के अधिकांश शासकों के पास अलाउद्दीन खिलजी और बलबन जैसी प्रशासनिक योग्यता और पराक्रम का अभाव था | तुगलक वंश, सैयद वंश और लोदी वंश के शासकों ने दिल्ली सल्तनत को सुदृढ़ करने का कोई कार्य नहीं किया बल्कि वे अपने पूर्वजों के शासन को बचाए रखने में भी पूर्णतया असफल सिद्ध हुए | ये शासक साम्राज्य विस्तार तो बड़े दूर की बात अपने आंतरिक झगड़ों को भी नियंत्रित न कर सके | उत्तराधिकार का कोई नियम न होने के कारण प्रत्येक सुल्तान की मृत्यु के पश्चात अगर युद्ध होते थे | परिणामस्वरूप प्रशासनिक व्यवस्था पूरी तरह से बिगड़ गई | ऐसी अवस्था में पतन को रोकना लगभग असंभव हो गया |
यह भी देखें
सल्तनतकालीन कला और स्थापत्य कला
सल्तनत कालीन अर्थव्यवस्था की विशेषताएँ
गुप्त काल : भारतीय इतिहास का स्वर्णकाल
भक्ति आंदोलन : उद्भव एवं विकास ( Bhakti Andolan : Udbhav Evam Vikas )
सिंधु घाटी की सभ्यता ( Indus Valley Civilization )
1857 ईo की क्रांति के पश्चात प्रशासनिक व्यवस्था में परिवर्तन
1857 ईo की क्रांति की प्रकृति या स्वरूप ( 1857 Ki Kranti Ki Prakriti Ya Swaroop )
विजयनगर साम्राज्य ( Vijayanagar Empire )
वाकाटक वंश व चालुक्य वंश ( Vakataka And Chalukya Dynasty )