बलबन का संबंध एक अलवारी कबीले के धनी तुर्क परिवार से था | वह इल्तुतमिश का खरीदा हुआ दास था | उसका कद छोटा और रंग काला था | वह देखने में भद्दा था लेकिन उसकी योग्यता से प्रभावित होकर सुल्तान इल्तुतमिश ने उसे खरीदकर माशकी ( पानी छिड़कने वाला ) का कार्य सौंपा | उसके कार्य से प्रभावित होकर सुल्तान इल्तुतमिश ने उसे जल्दी ही चालीसा के समूह में शामिल कर लिया | यही नहीं प्रसन्न होकर सुल्तान ने अपनी एक बेटी का विवाह बलबन से कर दिया | इस प्रकार वह रजिया के शासनकाल में मंत्री ( अमीर-ए-शिकार’, नसीरुद्दीन के शासनकाल में प्रधानमंत्री और उसके पश्चात दिल्ली सल्तनत का सुल्तान बना | बलबन ने अपनी रक्त और लौह की नीति के बल पर अपने शासनकाल में कठोर अनुशासन स्थापित करके दिल्ली सल्तनत को सुदृढ़ किया | इसलिए कुछ इतिहासकार उसे दिल्ली सल्तनत का दूसरा संस्थापक भी मानते हैं |
सन 1246 ईस्वी में इल्तुतमिश का सबसे छोटा पुत्र नसीरुद्दीन सुल्तान बना | बलबन उसका प्रधानमंत्री बना | बलबन ने 1246 से 1266 ईस्वी तक प्रधानमंत्री के रूप में कार्य किया | उसने अपनी पुत्री का विवाह सुल्तान के साथ कर दिया | सुल्तान शासन में अधिक रुचि नहीं लेता था | इस प्रकार शासन की बागडोर बलबन के हाथों में आ गई |
प्रधानमन्त्री के रूप में बलबन की सफलताएं ( Achievements of Balban as a Prime Minister]
नासिरुद्दीन महमूद के शासनकाल (1246-66 ई०) में बलबन लगभग बीस वर्षों हाथों में थी तथा नासिरुद्दीन केवल नाममात्र का सुलतान था। 1258 ई० में सुलतान ने बलबन प्रधानमन्त्री (वज़ीर) के पद पर रहा। इस समय के दौरान शासन की वास्तविक सत्ता उसके को उसके पद से अपदस्थ करके शासन करने का प्रयत्न किया, परन्तु उसको सफलता प्राप्त न हो सकी। राज्य की तीव्रता से बिगड़ रही स्थिति को नियन्त्रित करने के लिए 1254 ई० में बलबन को पुनः प्रधानमन्त्री के पद पर नियुक्त किया गया। वह इस पद पर 1266 ई० तक रहा। इस पद पर रहते हुए बलबन ने अनेक महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ प्राप्त की। इनका संक्षिप्त परिचय निम्नलिखित है —
(1) सत्ता पर नियंत्रण
नासिरुद्दीन महमूद एक धर्मभीरु सुलतान था। राज्य के प्रति उसकी उपेक्षा के परिणाम-स्वरूप बलबनन ने अपनी स्थिति को सुदृढ़ करने के लिए अनेक पग उठाए। उसने शासन के महत्वपूर्ण पदों पर अपने सगे-सम्बन्धियों तथा विश्वासपात्रों को नियुक्त करना शुरू कर दिया। उसने अपने सगे भाई किशलू खाँ को अमीर-ए-हाजिब तथा अपने चचेरे भाई शेर खाँ को लाहौर तथा भटिण्डा का गवर्नर बना दिया। उसने स्वयं भी 1249 ई० में ‘नाइब ए-मुमालिक’ की उच्च पदवी प्राप्त कर ली। इसके साथ-साथ उसने अपनी एक पुत्री का विवाह सुलतान नासिरुद्दीन महमूद से करके उसे अपना सम्बन्धी बना लिया और अपनी स्थिति को और भी मजबूत बना लिया।
(2) खोखरों का दमन (Suppression of Khokars )
बलबन के प्रधानमन्त्री बनने से पहले खोखरों के विद्रोह के कारण साम्राज्य में अशान्ति एवं अराजकता फैल गई थी। साम्राज्य पतन की ओर अग्रसर था। बलबन ने खोखरों का दमन करके राज्य में शान्ति की स्थापना की और साम्राज्य की रक्षा की।
(3) दोआब के हिन्दुओं का दमन (Suppression of Hindus of Doab)
इल्तुतमिश की मृत्यु के पश्चात् ही दोआब में कानून और व्यवस्था की स्थिति बिगड़ गई थी। लुटेरों और डाकुओं के उत्पात के कारण दिल्ली और बंगाल के बीच का मार्ग सुरक्षित नहीं रहा था। कुछ राजपूत ज़मींदारों ने इस क्षेत्र में किले बना लिए थे। इसके अतिरिक्त दिल्ली के निकटवर्ती घने वनों में लुटेरों ने अपने आश्रयस्थल बना लिए थे। दोआब के लुटेरों का दमन करने के लिए बलबन स्वयं वहाँ गया। वह कई महीनों तक इस क्षेत्र में रहा। उसने इनके दमन के के लिए ‘रक्त और लौह’ की नीति अपनाई। उसने इन लुटेरों को निर्दयतापूर्वक मरवा दिया। उनके आश्रय स्थलों को नष्ट करने के लिए वन काट दिए गए। बलबन के इस अभियान की चर्चा करते हुए समकालीन इतिहासकार बरनी (Barnee) लिखता है — “बलबन ने दोआब में इतनी मारपीट की कि लुटेरों के खून की नदियाँ बहने लगी |”
(4) राजपूतों के विरुद्ध अभियान
दोआब के हिंदुओं का दमन करने के बाद पर बलबन ने राजपूताना तथा मालवा के राजपूत शासकों की ओर ध्यान दिया | उसने ग्वालियर, चन्देरी, कालिन्जर तथा मालवा के विद्रोही राजपूतो को परास्त करके उनके राज्य अपने शासन में मिला लिए। किन्तु रणथम्भौर के चौहान शासक नाहरदेव ने बलबन को परास्त कर दिया | उसके बाद बलबन ने मध्य भारत और मालवा के क्षेत्रों में भयंकर लूटमार की |
(5) मेवातियों का दमन
मेवातियों के कबीले दिल्ली के निकट प्रायः उत्पात मचाते रहते थे | वे स्त्रियों को उठा ले जाते थे और उनका शारीरिक शोषण करते थे। लोगों का जीवन अस्त-व्यस्त हो गया था। बलबन ने उन्हें कुचलने का दृढ़ निश्चय किया। 1248 ई० में बलबन ने मेवातियों के दमन के लिए एक विशाल सेना तैयार की। इस सेना ने एक-एक मेवाती, उनके मित्रों, समर्थकों और नौकरों तक की हत्या कर दी। लेकिन इसके बाद भी लगभग एक दशक तक वे कोई-न-कोई उपद्रव मचाते रहे |
(6) बलबन का निष्कासन (Dislodgement of Balban)
बलबन की सफलताओं और बढ़ती हुई शक्ति को देखकर चालीसा के अन्य सरदार उससे ईर्ष्या करने लगे। बलबन के विरुद्ध एक दल बन गया, जिसका नेता इमामुद्दीन नामक एक भारतीय मुसलमान था। इमामुद्दीन ने सुलतान की माता और चहल संगठन की सहायता से सुलतान को भड़काया और कहा कि बलबन अपने ही सगे-सम्बन्धियों को उच्च पदों पर इसलिए नियुक्त कर रहा है कि अवसर मिलने पर वह सिंहासन पर अपना अधिकार जमा सके। सीधे-सादे सुलतान ने बिना सोचे-समझे उनकी बातों में आकर बलबन समर्थकों को मार्च, 1253 में उनके पदों से हटा दिया और बलबन को मन्त्री पद से हटाकर झाँसी भेज दिया। सुलतान ने इमामुद्दीन को मन्त्री बनाया और उसके समर्थकों को ही उच्च पदों पर नियुक्त किया।
(7) बलबन की पुनः नियुक्ति (Reappointment of Balban)
बलबन को अब रेवाड़ी और झाँसी की जागीरों पर ही गुजर-बसर करनी पड़ी। इमामुद्दीन अयोग्य निकला। उसका शासन-प्रबन्ध ढीला पड़ गया। चारों ओर अशांति फ़ैल गई । इसी बीच बलबन ने भी अपनी कूटनीति से अनेक तुर्क सरदारों को अपनी ओर मिला लिया तथा अपनी स्थिति सुदृढ़ बना ली। इन तुर्क सरदारों ने सुलतान के मन में बलबन के प्रति बैठी दुर्भावनाओं को दूर किया तथा समझाया कि बलबन ही राज्य में शान्ति स्थापित कर सकता है। अन्त में मुसलमान अमीरों ने बलबन को वापस बुलाया। बलबन से सेना लेकर इमामुद्दीन को सुनाम (पंजाब) के पास पराजित किया। बलबन ने नासिरुद्दीन के विरुद्ध युद्ध से इन्कार कर दिया। कुछ अमीरों ने सुलतान और बलबन का समझौता करवा दिया। सुलतान ने शासन फिर से बलबन को ही सौंप दिया। बलबन मार्च, 1253 से फरवरी, 1254 तक लगभग एक वर्ष तक मन्त्री पद से अलग रहा।
(8) विद्रोही सरदारों का दमन
1255 ई० में अवध के सूबेदार कुतलुग खाँ ने बलबन के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। अनेक असन्तुष्ट अधिकारी और कर्मचारी उनके साथ मिल गए। इन सभी ने दिल्ली की ओर बढ़ना शुरू कर दिया। बलबन ने वीरता और साहस का प्रदर्शन कर इन विद्रोहियों को बुरी तरह पराजित किया।
(9) कुतलुग खाँ का का दमन (Suppression of Kutlag Khan)
अवध का गवर्नर कुतलुग खाँ बलबन का कट्टर विरोधी था। उसने सुलतान की विधवा से विवाह कर लिया था। 1255 ई० में रिहान से मिलकर उसने बलबन के विरुद्ध दिल्ली पर आक्रमण करने की योजना बनाई | परंतु बलबन ने उन दोनों पर आक्रमण करके उनकी षड्यंत्र को विफल बना दिया | रिहान मारा गया और कुतलुग खां भाग कर सिरमौर की पहाड़ियों में जा छिपा |
(10) मंगोलों की पराजय (Defeat of the Mongols)
1256 ई० में मंगोलों ने भारत पर आक्रमण कर दिया । बलबन ने पहले से ही सैनिक तैयारी कर रखी थी। अतः उसने मंगोलों के आक्रमण को नाकाम कर दिया। मंगोल बुरी तरह से पराजित हुए और अनेक मंगोलों की निर्दयतापूर्वक हत्या कर दी गई।
(11) किशलू खाँ के विद्रोह का दमन (Suppression of Revolt by Kishhu Khan)
किशलू खाँ बलबन का भाई था। वह मुल्तान का सूबेदार था। उसने मंगोलों की सहायता से 1257 ई० में दिल्ली पर अधिकार करने की योजना बनाई। अवध का सूबेदार कुतलुग खाँ भी उनके साथ मिल गया। दिल्ली के कुछ अमीर भी इन षड्यन्त्रकारियों के साथ मिल गए। उन्होंने इन्हें बताया कि जब वे दिल्ली पर आक्रमण करेंगे तो दिल्ली के दरवाजे खुले होंगे। बलबन को इन देशद्रोहियों के षड्यन्त्र की सूचना पूर्व ही प्राप्त हो गई थी, इसलिए उसने उनके षड्यन्त्र को बड़ी सूझ-बूझ से असफल बना दिया। किशलू खाँ तथा कुतलुग खाँ अपनी जान बचाने के लिए पहले ही मैदान छोड़कर भाग गए।
(12) मेवातियों के दूसरे विद्रोह का दमन (Suppression of Second Revolt by the Mewatis)
1259 ई० में मेवातियों ने एक बार पुनः रणथम्भौर के चौहानों तथा अन्य राजपूतों को एकत्रित करके तुर्की शासन के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। इस समय सुलतान मंगोलों के आक्रमण तथा कुतलुग खाँ के विद्रोह को कुचलने में लगा हुआ था। इस मौके का फायदा उठाकर मेवातियों ने हाँसी तथा शिवालिक की पहाड़ियों में खूब लूटपाट मचाई। बलबन ने एक भारी सेना के साथ इन विद्रोहियों पर आक्रमण किया तथा बड़ी निर्ममता के साथ इस विद्रोह को कुचल दिया। लगभग 12,000 मेवाती मौत के घाट उतार दिए गए और उनके 250 के लगभग नेता बन्दी बना लिए गए। इस अभियान से बलबन को प्रतिष्ठा के साथ-साथ अपार धन-सम्पत्ति भी मिली।
(13) रुहेलों के विद्रोह का दमन (Suppression of Revolt by theRohail)
मेवातियों के विद्रोह से प्रोत्साहित होकर अवध तथा कटेहर (रुहेलखण्ड) के हिन्दू सरदारों ने भी विद्रोह कर दिया। उन्होंने बड़ी तेजी से आगे बढ़ते हुए कन्नौज तक के क्षेत्र को जीत लिया। बलबन ने इन विद्रोहियों को कुचल दिया तथा उन्हें भारी जन और धन की हानि पहुँचाई।
(14) मंगोल नेता का स्वागत (Welcome of Mongol Leader)
1260 ई० में प्रसिद्ध मंगोल नेता हलाकू के एक राजदूत का दिल्ली में आगमन हुआ। बलबन ने इस अवसर का लाभ उठाते हुए उस दूत का बड़ी ही गर्म-जोशी तथा धन-दौलत से स्वागत किया। इस अवसर पर सैन्य-प्रदर्शन भी किया गया। इससे मंगोलों पर बलबन की शक्ति और प्रतिष्ठा की धाक जम गई।
इस प्रकार प्रधानमन्त्री के रूप में बलबन ने अपनी बहादुरी तथा शक्ति से दिल्ली सल्तनत की अनन्य सेवा की। यह उसकी सूझबूझ विशेषत: रक्त और लौह की नीति का ही फल था कि उसने दिल्ली सल्तनत की डाँवाडोल स्थिति को सम्भाला। डॉ० ईश्वरी प्रसाद (Dr. Ishwari Prashad) के अनुसार — “अगर बलबन अपनी बहादुरी तथा शक्ति से काम न लेता तो दिल्ली के राज्य को आन्तरिक विद्रोहों तथा बाह्य आक्रमणों से सुरक्षित रखना असम्भव था।”
सुलतान के रूप में बलबन के कार्य ( Works of Balban as a सुल्तान )
1266 ईस्वी में सुलतान नासिरुद्दीन का मृत्यु के पश्चात बलबन सिंहासन पर बैठा और उसने 1286 ई० तक शासन किया। अतः उसने 20 वर्ष तक प्रधानमन्त्री के रूप में तथा 20 वर्ष एक शासक के रूप में कार्य किया। परन्तु सुलतान बनने पर भी भी बलबन के सामने अनेक कठिनाइयाँ थीं। ‘चालीसा’ के सरदार उसके विरुद्ध हो गए थे। राजा की प्रतिष्ठा बहुत कम थी। राजा को केवल मुखिया ही समझा जाता था। चोरी-डाके काफ़ी होते थे। मंगोलों के आक्रमणों का भी निरन्तर भय था। ऐसे समय में कोई और व्यक्ति अपना धैर्य खो सकता था, परन्तु बलबन ने साहस से काम लिया तथा रक्त और लौह की नीति का अनुसरण करत हुए में राज्य में शान्ति स्थापित की। इस विषय में लेनपूल (Lenpoal) लिखते हैं — “बलबन के पास सचेत और सख्त होने के कारण मौजूद थे और यदि उसने सख्ती की अति कर दी तो सम्भवतः इसलिए कि यह उसके या किसी और के जीवन का प्रश्न था।”
सुलतान के रूप में बलबन ने निम्नलिखित कार्य किए —
(1) मेवातियों का दमन (Suppression of the Mewatis)
यद्यपि प्रधानमन्त्री होते हुए भी उसने 12 हजार मेवातियों को मौत के घाट उतारा था, परन्तु अभी मेवातियों की शक्ति पूरी तरह समाप्त नहीं हुई थी। मेवाती फिर लूटमार करने लगे। वे लड़कियों को उठा ले जाते थे तथा उनका शारीरिक शोषण करते थे। बलबन ऐसा कभी सहन नहीं कर सकता था। उसने सबसे पहले उन जंगलों को साफ करवाया जहाँ डाकू छिप जाते थे। बाद में सभी डाकूओं को निर्दयतापूर्वक मरवा दिया गया। कुछ पुलिस चौकियाँ भी स्थापित की गईं। इस प्रकार बड़ी क्रूरता से मेवातियों का दमन किया गया।
(2) दोआब में हिन्दू लुटेरों का दमन (Suppression of Hindu Dacoits in Doab)
दोआब में हिन्दू लुटेरों ने भी आतंक मचा रखा था। ये लोग यात्रियों को लूटते थे। स्थिति का पता लगाने के लिए बलबन स्वयं दोआब पहुँचा। वहाँ उसने डाकुओं के अड्डों की जानकारी प्राप्त की। उसने बाद में सभी डाकुओं को मरवा डाला। जियाउद्दीन बरनी (Jiyaudin Barnee) के अनुसार — “बलबन बाज की भाँति डाकुओं पर टूट पड़ा। उसने वहाँ इतनी मारकाट की, कि उपद्रवियों के खून की नदियाँ बहने लगी। लाशों के ढेर दिखाई देने लगे। लाशों की दुर्गन्ध गंगा नदी तक फैल गई।”
(3) कटेहर के हिन्दुओं का दमन (Suppression of Hindus ofKatehar)
कटेहर के हिन्दुओं ने भी सारे प्रदेश में उपद्रव मचा रखा था। वहाँ का सूबेदार भी उन्हें दबाने में असफल रहा था। बलबन ने उन पर अचानक आक्रमण कर दिया। उनकी बड़े निर्ममता से हत्या की गई। आठ वर्ष से बड़े सभी पुरुषों को मरवा दिया गया। बलबन ने इस क्षेत्र के जंगलों को साफ करवाकर वहाँ सड़कों का निर्माण करवाया।
(4) मंगोल आक्रमण का सामना ( Faced Mongol Invasion)
मंगोलों के आक्रमण भारत की शान्ति और समृद्धि के लिए खतरा थे। उन्होंने खलीफा की हत्या भी कर दी थी। उन्होंने सिन्ध और मुल्तान के क्षेत्र भी नष्ट कर दिए थे। मंगोल नेता हलाकू के साथ किया गया समझौता भी सफल नहीं हो सका। बलबन ने मंगोलों से निपटने के लिए निम्नलिखित कार्य किए : —
(i) मंगोलों से निपटने के लिए उसने दिल्ली में रहने का निश्चय किया और अन्य प्रदेशों को जीतने का विचार छोड़ |
(ii) क्षेत्र में सभी दुर्गों और चौकियों की मुरम्मत करवाई गई। नए किले भी बनवाए गए। इन किलों में स्थायी शक्तिशाली सेना रखी गई। केवल वीर एवं स्वामिभक्त सैनिक ही वहाँ रखे गए।
(iii) सैनिकों को पर्याप्त मात्रा में अस्त्र-शस्त्र दिए गए।
(iv) कुछ क्षेत्रों को सीमान्ती-क्षेत्र घोषित कर दिया गया। इनमें से मुल्तान, समाना और दीपालपुर प्रमुख क्षेत्र थे। वहाँ का शासन विश्वासपात्रों को सौंपा गया। सुलतान का चचेरा भाई शेर खाँ 1270 ई० तक यहाँ का शासक रहा। बाद में सुलतान के पुत्र मुहम्मद खाँ और बुगरा खाँ यहाँ के गवर्नर नियुक्त किए गए।
(v) सभी अयोग्य और बूढ़े अधिकारियों को हटा दिया गया। केवल योग्य व्यक्ति ही नियुक्त किए गए। 1270 ई० में शेर खाँ ने मंगोलों को बुरी तरह पछाड़ा। मंगोल उसके नाम से भी डरने लगे। जब वह सर्वप्रिय होने लगा तो बलबन ने उसे जहर दिलवाकर मरवा दिया। 1285 ई० में मंगोलों ने फिर आक्रमण किया। इस युद्ध में बलबन का योग्य पुत्र मुहम्मद खाँ मारा गया। अगले वर्ष 1286 ई० में बलबन की मृत्यु हो गई।
(5) बंगाल में विद्रोह (Revolt in Bengal)
बंगाल के शासक तुगरिल खाँ ने विद्रोह कर अपने-आपको स्वतन्त्र घोषित कर दिया। बलबन ने अमीर खाँ के नेतृत्व में सेना भेजी। अमीर खाँ हारकर वापस आ गया। उसे बलबन ने मृत्युदण्ड दे दिया। इसके बाद एक बार फिर सेना बंगाल भेजी गई, परन्तु उसे भी सफलता नहीं मिली। अंतत: बलबन स्वयं सेना लेकर पहुँचा। तुगरिल खाँ भाग गया, परन्तु बलबन के सैनिकों ने उसे पकड़ लिया। बरनी (Barnee) के अनुसार — “जब शाही सेना ने तुगरिल खाँ पर छापा मारा तो वह अपने कुछ साथियों सहित रंगरलियों में मग्न था। शाही सैनिकों को सामने देखकर उसने घोड़े पर सवार होकर भागने का प्रयत्न किया, परन्तु उसी समय एक सैनिक के तीर से घायल होकर पृथ्वी पर आ गिरा। उसके गिरते ही उस पर वार करके उसका सिर धड़ से अलग कर दिया गया। उसका धड़ से तो पास की नदी में फेंक दिया गया, परन्तु सिर सुलतान के सामने प्रस्तुत किया गया।”
तुगरिल खाँ और उसके हजारों साथियों की निर्मम हत्या कर दी गई। कहते हैं — “उसने इस नगर के दो मील लम्बे बाज़ार के दोनों ओर सूलिया गढ़वा दी और तुगरिल खाँ के सभी साथियों और समर्थकों को इन पर चढ़ा दिया गया।”
इतिहासकार बरनी इस विषय में लिखते हैं — “जैसा दण्ड लखनौती में दिया गया था वैसे दण्ड के बारे में कभी किसी ने दिल्ली में नहीं सुना और न ही हिन्दुस्तान में किसी को और कोई ऐसी घटना याद है।”
ऐसे भयानक दण्ड भारत में कभी नहीं देखे गए थे। बलबन की रक्त और लौह की नीति ने विरोधियों के मन में भय बैठा दिया | उसने अपने पुत्र बुगरा खाँ को बंगाल का गवर्नर नियुक्त किया। उसे चेतावनी दी गई कि यदि उसने कभी विद्रोह किया तो उसका भी तुगरिल खाँ जैसा हाल होगा। बाद में बलबन दिल्ली लौट आया।
(6) सेना का पुनर्गठन (Reforming ofArmy)
उसने सेना में निम्नलिखित सुधार किये : —
(i) पैदल तथा घुड़सवार सेना का नए ढंग से संगठन किया गया।
(ii) केवल कट्टर मुसलमान, स्वामिभक्त, वीर और अनुभवी व्यक्तियों को सेना का संचालन सौंपा गया |
(iii) सैनिकों से कर्त्तव्य-पालन का वचन लिया जाने गया।
(iv) साम्राज्य में चौकियों और सड़कों का निर्माण करवाया गया।
(v) सीमान्ती क्षेत्रों में दुर्गों का निर्माण करवाया गया और वहाँ विश्वसनीय सैनिक रखे गए।
(vi) सैनिकों को युद्ध-कला के नए ढंग सिखाए गए। इसके लिए अनेक प्रशिक्षण केन्द्र खोले गए।
(vii) इमादुल मुल्क को सेना-मन्त्री नियुक्त किया गया। वह उस समय का सबसे योग्य सैनिक था।
(viii) सेना में अनुशासन पर बल दिया गया और प्रशिक्षण कठोर कर दिया गया ।
(ix) सैनिकों को भूमि या जागीर के स्थान पर नकद वेतन दिया जाने लगा।
(7) सिंहासन की प्रतिष्ठा बढ़ाना (To Extend the Prestige of Throne)
बलबन से पहले दरबार में अनुशासन नहीं था। दरबार में खुलेआम हंसी-मजाक चलता रहता था। सुल्तान की प्रतिष्ठा नष्ट हो चुकी थी। बलबन ने सुल्तान के पद की प्रतिष्ठा को बढ़ाने के लिए निम्नलिखित कार्य किए —
(i) सुलतान ने अमीरों तथा मन्त्रियों की सारी शक्ति अपने हाथों में ले ली। उसकी आज्ञा के बिना कोई कार्य नहीं हो सकता था। उसकी आज्ञा का पालन कठोरता से होता था।
(ii) दरबार में कड़ा अनुशासन रखा गया। दरबार में हँसी-मजाक बन्द कर दिया गया। सभी अधिकारियों के लिए विशेष वर्दी निश्चित की गई। समय की पाबन्दी का विशेष ध्यान रखा गया।
(iii) सभी मन्त्री और अधिकारी सुलतान को ‘सिजदा’ करते थे। (झुक कर पैरों पर सिर रखना)।
(iv) एक शानदार दरबार की स्थापना की गई, जो हर समय चकाचौंध रहता था। दरबार के बाहर भयंकर आकृति वाले रक्षक नियुक्त किए गए। जनता को भयभीत कर दिया गया।
(v) बलबन ने साधारण लोगों से मेल-जोल रखना बन्द कर दिया। वह स्वयं सदा गम्भीर मुद्रा में रहता था। कोई भी व्यक्ति उसकी आज्ञा के बिना दरबार में बात नहीं कर सकता था। केवल प्रधानमन्त्री ही सुलतान से बात कर सकता था।
(vi) सुलतान ने अपने रहन-सहन में परिवर्तन किया। उसने शराब पीना और रंगरलियाँ मनाना छोड़ दिया।
(vii) सुलतान ने कठोर दण्ड-विधान की व्यवस्था की। गलती करने वाले को प्रायः मृत्युदण्ड ही दिया जाता था।
(8) गुप्तचर विभाग की स्थापना
बलबन ने शासन को सुचारू रूप से चलाने के लिए गुप्तचरों की नियुक्ति की। उन्हें मण्डियों, चौराहों, मेलों और मन्त्रियों तथा गवर्नरों के महलों में रखा गया। सुलतान को हर सूचना समय पर मिल जाती थी। गुप्तचरों को अच्छा वेतन दिया जाता था | सुल्तान इन गुप्तचरों के माध्यम से अपने सभी बड़े अधिकारियों यहां तक कि अपने पुत्रों पर भी निगरानी रखवाता था |
(9) चालीसा का अंत
चालीसा 40 प्रभावशाली सरदारों की सभा होती थी | इस संस्था का गठन इल्तुतमिश ने किया था | यह संस्था प्रशासन में सहयोग करती थी परंतु धीरे-धीरे यह लोग षड्यंत्र रचने लगे थे और साम्राज्य के लिए सबसे बड़ा खतरा बन गए थे | इसलिए सुल्तान बलबन ने चालीसा नामक इस संस्था को समाप्त कर दिया | जिन लोगों ने विरोध किया उनको मृत्युदंड दे दिया गया |
उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि बलबन ने अपनी रक्त और लौह की नीति की सहायता से साम्राज्य सुदृढ़ बनाया तथा अधिकारियों व सैनिकों में अनुशासन स्थापित किया | उसने दरबार की प्रतिष्ठा को बढ़ाया, निष्पक्ष न्याय व्यवस्था स्थापित की तथा अराजकता को दूर करके राज्य में शांति व्यवस्था की स्थापना की | यह सही है कि मंगोलों के निरंतर आक्रमणों के कारण वह अपने साम्राज्य का विस्तार नहीं कर पाया और न ही प्रजा-हितैषी कार्य कर पाया लेकिन उसने साम्राज्य को एक सुदृढ़ आधार अवश्य प्रदान किया इसीलिए अनेक इतिहासकार उसे मुस्लिम साम्राज्य का दूसरा संस्थापक मानते हैं |
यह भी पढ़ें
सल्तनतकालीन कला और स्थापत्य कला
सल्तनत काल / Saltnat Kaal ( 1206 ईo – 1526 ईo )
अलाउद्दीन खिलजी की सैनिक सफलताएं ( Alauddin Khilji’s Military Achievements )
भक्ति आंदोलन : उद्भव एवं विकास ( Bhakti Andolan : Udbhav Evam Vikas )
गुप्त काल : भारतीय इतिहास का स्वर्णकाल
सिंधु घाटी की सभ्यता ( Indus Valley Civilization )
महात्मा बुद्ध एवं बौद्ध धर्म ( Mahatma Buddha Evam Bauddh Dharma )
7 thoughts on “बलबन की रक्त और लौह की नीति”