दिल्ली सल्तनत की स्थापना कुतुबुद्दीन ऐबक ने 1206 ईस्वी में की थी यह शासन 1526 ईस्वी तक चला | 1526 ईस्वी में पानीपत की पहली लड़ाई में बाबर ने इब्राहिम लोदी को पराजित करके सल्तनत वंश का अंत कर दिया और मुगल वंश की नींव रखी | सल्तनत काल में कृषि, व्यापार, उद्योग, वाणिज्य के क्षेत्र में अनेक महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए | सल्तनत कालीन अर्थव्यवस्था की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं —
(क ) सल्तनत काल में कृषि
दिल्ली सल्तनत के कुछ सुल्तानों ने जहां कृषि विकास के लिए महत्वपूर्ण कदम उठाए तो वहीं कुछ सुल्तानों ने इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया | दास वंश और खिलजी वंश के शासकों का कृषि के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण रहा | अलाउद्दीन खिलजी ने कुछ अच्छे कदम अवश्य उठाये लेकिन वह केवल राजस्व वृद्धि के लिए उठाए गए कदम थे कृषकों के भले के लिए नहीं | गयासुद्दीन तुगलक ने जहां किसानों को कुछ सुविधाएं प्रदान की वहीं मोहम्मद तुगलक की योजनाओं ने किसानों की कमर तोड़ दी |
कृषि के क्षेत्र में तुगलक वंश के फिरोज तुगलक का योगदान सर्वाधिक एवं प्रशंसनीय है | उसने सत्ता संभालते ही अनेक अनुचित करों को समाप्त किया तथा निर्धन किसानों को राजकोष से सहायता राशि उपलब्ध कराई | उसने सिंचाई के लिए अनेक नहरों का निर्माण करवाया | पश्चिमी यमुना नहर उसके काल की सबसे प्रसिद्ध नहर थी | पश्चिमी यमुना नहर उसके काल की सबसे प्रसिद्ध नहर थी। फलस्वरूप कृषि क्षेत्र में अभूतपूर्व वृद्धि हुई। नहरों के निर्माण के साथ-साथ उसने बाग भी लगवाए। उसने अपने राज्य के विभिन्न भागों में लगभग 1200 बाग लगवाए। उसके राज्य के बागों की वार्षिक आय 1,20,000 टंका प्रतिवर्ष थी। यही कारण है कि इतिहासकार उसे ‘बाग निर्माता’ कहकर पुकारते हैं। किन्तु सैयद और लोदी शासकों के काल में कृषि की गति पुनः अवरुद्ध हो गई।
(क ) कृषि की स्थिति (Condition of Agriculture)
सल्तनत काल में कृषि की दशा बहुत उन्नत थी। इसका प्रमुख कारण यहाँ की भूमि का उपजाऊ होना है। यहाँ वर्ष में दो फसलें-रबी व खरीफ की फसलें पैदा की जाती थीं। गेहूँ, चावल, गन्ना, कपास तथा तिलहन उस समय की प्रमुख फसलें थीं। जहाँ उत्तरी भारत दालों की उपज के लिए प्रसिद्ध था वहीं दक्षिण में मसाले भारी मात्रा में पैदा होते थे।
अनाज के साथ-साथ उस समय फलों का भी उत्पादन किया जाता था। अमीर लोगों को बागवानी का शौंक था। यहाँ आम, अंगूर, सेब, नारंगी, संतरे, नारियल तथा अनार आदि फलों की पैदावार होती थी। खाद्यान्न की दृष्टि से सल्तनतकालीन समाज आत्मनिर्भर था परन्तु इसका सारा लाभ सरकारी खजाने को मिलता था | किसानों की हालत प्रायः दयनीय थी | केवल फिरोज तुगलक के शासनकाल में किसानों की हालत अपेक्षाकृत बेहतर थी। दैवी प्रकोप, अकाल तथा शासन की उपेक्षा के कारण किसानों को निरन्तर कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था।
(i) पशुपालन (Animal Husbandry) — अधिकांश किसान कृषि के साथ-साथ पशुपालन भी करते थे। गाय, बैल, भैंस, बकरी, भेड़, ऊँट, गधे तथा खच्चर प्रमुख पालतू पशु थे। गाय तथा बैल किसान के सर्वाधिक प्रिय पशु थे क्योंकि किसान का अधिकांश कृषि कार्य बैलों से होता था | भैंस तथा गाय का दूध पीने के काम आता था। ऊँट, घोड़े, गधे तथा खच्चर सामान ढोने के काम आते थे जबकि भेड़, बकरी व ऊँट से माँस, दूध व ऊन की प्राप्ति होती थी। तत्कालीन समाज में घोड़ा रखना सम्मान का प्रतीक समझा जाता था।
(iii) कृषकों की दशा (Condition of Peasantry) — तत्कालीन समाज में किसानों की तीन श्रेणियाँ थीं। इनमें पहली श्रेणी उन किसानों की थी जो स्वयं कृषि करते थे। उन्हें खुदकाश्त कहाँ जाता था। दूसरा वर्ग पाहीकाश्त कहलाता था। यह वर्ग अपने साधनों से निकटवर्ती गाँवों में काश्त करता था। तीसरे वर्ग में मुजारे आते थे। इस वर्ग के पास न तो अपनी जमीन थी और न ही साधन, यह तो केवल अपनी मेहनत के बल पर अपना जीवन-यापन करते थे। इस काल में राजस्व की दर, अपवाद उत्पादन के मुकाबले बहुत अधिक थी। कठोर राजस्व नीति के कारण किसान की जमीन भ्रष्ट सूदखोरों के पास गिरवी रखी होती थी। अकाल, बाढ़ तथा अन्य दैवी प्रकोप किसान की हालत को और भी दयनीय बना देते थे।
(iv) कृषि के क्षेत्र में तकनीकी परिवर्तन (Technological Changes in Agriculture) — सल्तनतकाल में कृषि के क्षेत्र में अनेक तकनीकी परिवर्तन हुए | इनमें सबसे प्रमुख है ‘रहट’ का प्रयोग। इससे सिंचाई का कार्य आसान हो गया। इसी प्रकार चूने का प्रयोग भी इस काल का एक चमत्कारिक प्रयोग था। इससे भवन निर्माण को स्थायित्व मिला। रेशम के कीड़े पालने तथा बागवानी को प्रोत्साहन भी इसी काल में मिला। 15वीं, 16वीं शताब्दी में मक्का , तम्बाकू तथा आलू जैसी नई फसलों का उत्पादन भी आरम्भ हुआ।
कुल मिलाकर हम कह सकते हैं कि मध्य और पश्चिमी एशियाई तुर्कों के साथ सम्पर्क से कृषि व कृषकों को प्रोत्साहन मिला, किन्तु कुल मिलाकर आम किसान की हालत शोचनीय ही थी।
(ख ) सल्तनत कालीन उद्योग (Industry)
सल्तनत काल में उद्योग दूसरा मुख्य व्यवसाय था। इस काल में दो प्रकार के उद्योग प्रचलित थे। प्रथम वे जिन पर सरकार का नियन्त्रण था, इन्ह ‘शाही कारखाने’ कहा जाता था। इन कारखानों में सुलतानों तथा उनके हरमों की आवश्यकताओं की वस्तुएं बनाई जाती थीं। दूसरे वे उद्योग थे जिन पर व्यक्तियों का निजी स्वामित्व था।
इस काल के उद्योगों का विवरण निम्नलिखित है –
(A) वस्त्र उद्योग (Cotton Industry) — सल्तनतकाल में चरखे का प्रयोग प्रारम्भ हुआ। इससे पूर्व सूत कातने के लिए तकली का प्रयोग किया जाता था। इसी प्रकार रूई धुनने वाली कमान का प्रयोग भी इसी काल में आरम्भ हुआ। इन सब नए-नए प्रयोगों से वस्त्र-उद्योग सल्तनत काल का प्रमुख उद्योग बन गया। इस उद्योग द्वारा सूती, ऊनी तथा रेशमी तीनों प्रकार के वस्त्र बनाए जाते थे। कपास देश भर में पैदा होती थी, ऊन उपयुक्त पहाड़ी प्रदेशों से आती थी तथा रेशम बंगाल में तैयार किया जाता था। बंगाल की मलमल विश्व प्रसिद्ध थी। अमीर खुसरो ने बंगाल की मलमल की प्रसिद्धि के विषय में लिखा है कि सौ गज की मलमल को अपने सिर पर लपेट लेने के बाद भी उसमें से सिर के बाल देखे जा सकते थे। मलमल के लिए ढाका, रेशम के लिए कैम्बे तथा ऊनी वस्त्रों के लिए कश्मीर सर्वाधिक प्रसिद्ध केन्द्र थे। दिल्ली, गुजरात, आगरा तथा लखनऊ रंगाई, छपाई के प्रसिद्ध केन्द्र थे।
(B) धातु उद्योग (Metal Industry) — धातु उद्योग सल्तनतकाल का दूसरा मुख्य उद्योग था। इस उद्योग में कुशल कारीगर लोहे, पीतल काँसे, सोना, चाँदी तथा मिश्रित वस्तुओं से विभिन्न प्रकार की वस्तुएं तैयार करते थे। उत्तम प्रकार की तलवारें, खंजर, मूर्तियाँ, चाकू, कैंचियाँ तथा सुन्दर आभूषण व बर्तन बनाए जाते थे। लाहौर, मुल्तान, स्यालकोट, गुजरात व कालिंजर में तलवारें ; बनारस, दिल्ली व आगरा में आभूषण ; गुजरात में सोने व चाँदी के बर्तन व दिल्ली तथा लखनऊ में ताँबे की वस्तुएं बनाई जाती थीं।
(C) कागज़ उद्योग (Paper Industry) — सल्तनतकाल में कागज निर्माण उद्योग भी विकसित हुआ | अमीर खुसरो के अनुसार तेरहवीं शताब्दी में कागज का प्रसार हो चुका था। बंगाल में कई स्थानों पर कागज़ बनाया जाता था। कागज़ के प्रचलन से हुंडियों से लेन-देन व राज्य निर्देश भेजने सुगम हो गए। चीनी यात्री महुआन ने बंगाल में वृक्ष की छाल से श्वेत तथा चमकीले कागज के उत्पादन का उल्लेख किया है।
(D) चमड़ा उद्योग (Leather Industry) — सल्तनतकाल में चमड़ा उद्योग भी काफी विकसित हुआ। तलवार की म्यान, घोड़े की जीन, पानी की मश्का आदि की देशभर में मांग थी। चीनी के निर्यात के लिए भी चमड़े के थैले बनाए जाते थे। गुजरात, बंगाल, दिल्ली तथा असम चमड़ा उद्योग के प्रमुख केन्द्र थे।
(E ) चीनी उद्योग (Sugar Industry) — भारत में गन्ने की अधिक पैदावार होने के कारण चीनी उद्योग खूब पनपा | लाहौर, दिल्ली, बंगाल तथा आगरा चीनी उत्पादन के प्रमुख केन्द्र थे। भारत में बनी चीनी का विदेशों को निर्यात किया जाता था।
(F) पत्थर तथा ईंट उद्योग (Stone and Brick Industry) — सल्तनतकाल में भवन निर्माण को खूब बढ़ावा मिला। भारतीय कारीगर स्थापत्य कला में निपुण थे, अतः काबुल. कन्धार, गजनी आदि नगरों में आलीशान भवनों के निर्माण के लिए भारतीय कारीगरों की भारी माँग थी। सुलतान भवनों, दुर्गा, मदरसों, मस्जिदों तथा मकबरों के निर्माण में खूब दिलचस्पी रखते थे। अलाऊद्दीन खलज़ी ने 70,000 मजदूरों को भवनों के निर्माण के लिए नियुक्त किया था। इसी प्रकार फिरोज तुगलक ने 4000 दासों को भवन निर्माण का प्रशिक्षण दिलवाया। परिणामस्वरूप सल्तनत काल में ईंट-पत्थर उद्योग का विकास हुआ |
(ग ) वाणिज्य एवं व्यापार (Trade and Commerce)
सल्तनतकाल में आन्तरिक तथा विदेशी व्यापार में उल्लेखनीय प्रगति हुई। यह व्यापार जल तथा स्थल दोनों ही मार्गों से होता था। वाणिज्य तथा व्यापार की समृद्धि के लिए सुलतानों ने राजमार्गों को चोरों, डाकुओं से सुरक्षित रखने का भरपूर प्रयत्न किया। उन्होंने सडकों की सुरक्षा के साथ-साथ यात्रियों को बेहतर सुविधाएं उपलब्ध कराने के उद्देश्य से कुओं तथा सरायों का निर्माण करवाया।
व्यापार की उन्नति राज्य की समृद्धि का एक महत्वपूर्ण आधार होता है। यही कारण है कि दिल्ली के सुलतानों ने व्यापारिक गतिविधियों को प्रोत्साहन दिया। इल्तुतमिश, बलवन तथा अलाऊद्दीन खिलजी ने व्यापारिक मार्गों की ओर विशेष ध्यान दिया। यद्यपि अलाऊद्दीन खलजी की बाजार नियन्त्रण प्रणाली ने व्यापारी वर्ग को जबरदस्त नुकसान पहुँचाया, किन्तु तुगलक शासकों के काल में व्यापारियों ने अपनी खोई प्रतिष्ठा पुनः प्राप्त कर ली थी। दिल्ली, लाहौर, मुलतान, जौनपुर, देवगिरि, कालीकट, कैम्बे एवं विजयनगर उस काल में प्रमुख व्यापारिक केंद्र थे। बनिये, बन्जारे, मुल्तानी, सिन्धी, मारवाड़ी तथा तमिल प्रसिद्ध व्यापारी थे। इनमें हिन्दू व मुसलमान दोनों ही थे। मुलतानी व्यापारियों के बारे में प्रसिद्ध इतिहासकार बर्नी ने लिखा है — “मुलतानी व्यापारी इतने समृद्ध थे कि उनके घर सोने-चाँदी से भरे होते थे।”
लम्बी दूरी का व्यापार करने वाले व्यापारी बड़े-बड़े काफिलों में चलते थे। ये लोग हथियारबन्द रक्षक भी रखते थे। बर्नी के अनुसार, ये अनाज के बड़े व्यापारी थे, जो बड़ी संख्या में एक साथ चलते थे। एक प्रसिद्ध सूफी लेखक नासिरुद्दीन चिराग के अनुसार — “इनके पास अनाज से लदे 10 हजार बैल होते थे और कुछ के पास 20 हजार। ये दूर-दराज के गाँवों से अनाज खरीदकर दिल्ली व अन्य व्यापारिक केन्द्रों पर बेचते थे।”
(i) आन्तरिक व्यापार (Internal Trade) — विलासिता की वस्तुएं दूर-दराज के क्षेत्रों से एक-दूसरे स्थानों पर पहुँचाई जाती थीं। राजधानी दिल्ली में मदिरा अलीगढ़ तथा मेरठ से आती थी जबकि मलमल देवगिरि व अन्य कपड़ा लखनौती (बंगाल) से आता था। इब्नबतूता लिखता है कि दिल्ली में पान मालवा से आते थे जिन्हें यहाँ पहुँचने में 24 दिन लगते थे। गाँवों और शहरों के बीच व्यापार मुख्यतः चना, चावल, गन्ना, दालों, कपास आदि का होता था।
किन्तु यह व्यापार किसान के लिए कम लाभप्रद था, क्योंकि किसान के घर में कोई सामान नहीं आता था, बल्कि कुछ नकद राशि आती थी जो भूमि कर के रूप में चली जाती थी।
(ii) विदेशी व्यापार (Foreign Trade) — विदेशी व्यापार जल व थल दोनों मार्गों से होता । मुल्तान तथा लाहौर स्थल मार्ग से होने वाले विदेशी व्यापार के प्रमुख केन्द्र थे। जबकि लम्चात तथा भड़ौच जलमार्ग के प्रमुख केन्द्र थे। अनाज, कपड़ा, नील, अफीम तथा हाथी-दाँत का भारत से निर्यात किया जाता था। सोनारगाँव (ढाका) की मलमल की विदेशों में बड़ी माँग थी। फारस की खाड़ी के देशों और चीन में अच्छी किस्म के भारतीय वस्त्र काफी लोकप्रिय थे। अरबी बोटे, चीनी-मिट्टी के बर्तन, कच्चा रेशम आदि का आयात किया जाता था।
(घ ) वस्तुओं का मूल्य
दिल्ली के सुलतानों के समय वस्तुओं के मूल्य घटते-बढ़ते रहते थे। वर्षा के अभाव और अकाल के कारण खाद्य पदार्थों तथा अन्य वस्तुओं के मूल्य बहुत बढ़ जाते थे | अलाउद्दीन खिलजी नहीं अपने राज्य में वस्तुओं के दाम नियंत्रित करने के लिए बाजार नियंत्रण प्रणाली लागू की | उसके समय में गेहूं का भाव साढ़े सात जीतल प्रति मन था जो मोहम्मद तुगलक के समय में बढ़कर 12 जीतल प्रति मन हो गया |
(ङ) लोगों का जीवन स्तर
सल्तनत काल में व्यापारी बहुत धनी और समृद्ध थे | उनके भवन गारे, चूने और बढ़िया किस्म के पत्थरों से बने होते थे | उनकी दीवारों तथा छतों पर सुंदर नक्काशी होती थी | उनकी भावनाओं में सुंदर वाटिकाएँ तथा सरोवर होते थे | उनका खान-पान, रहन-सहन, आभूषण आदि सबकुछ राजसी था | किंतु जनसाधारण की स्थिति अच्छी नहीं थी | छोटे दुकानदार, किसान, मजदूर तथा दास निम्न स्तर का जीवन यापन करते थे |
(च ) शहरी जीवन ( Urban Life )
सल्तनत काल में शहरों का खूब विकास हुआ | औद्योगिक विकास का अधिकांश लाभ शहरों को ही मिला | ग्रामीण जीवन शहरों के औद्योगिक विकास से अछूता रहा | सल्तनत कालीन शहर सैनिक ठिकानों और दुर्गों के इर्द-गिर्द बसे थे | ये शहर सैनिकों के लिए रसद सामग्री तथा जरूरत की अन्य वस्तुओं को उपलब्ध करवाते थे | इन शहरों में बड़े अमीर, छोटे धनिक, सरकारी दफ्तरों में काम करने वाले लोग, दुकानदार और गुलाम आदि रहते थे | इन शहरों में भिखारी भी बड़ी तादाद में होते थे |
उपर्युक्त विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है कि सल्तनत काल में कृषि, व्यापार उद्योग तथा वाणिज्य के क्षेत्र में खूब उन्नति हुई | परंतु उस सम्पूर्ण सल्तनत काल में उन्नति का यह प्रवाह सतत नहीं रहा | जब-जब राजनीतिक अस्थिरता उत्पन्न हुई तब-तब यह विकास बाधित हुआ | परंतु सल्तनत काल ने भारतीय अर्थव्यवस्था की उस नींव को रखा जिसका विकास आगे चलकर मुगल काल में हुआ |
यह भी देखें
सिंधु घाटी की सभ्यता ( Indus Valley Civilization )
गुप्त काल : भारतीय इतिहास का स्वर्णकाल
सल्तनत काल / Saltnat Kaal ( 1206 ईo – 1526 ईo )
धर्म सुधार आंदोलन के कारण / कारक या परिस्थितियां
मुगल वंश / Mughal Vansh ( 1526 ई o से 1857 ईo )
विजयनगर साम्राज्य ( Vijayanagar Empire )
1857 की क्रांति ( The Revolution of 1857 )
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