दिल्ली सल्तनत की स्थापना कुतुबुद्दीन ऐबक ने की थी, परन्तु परन्तु दिल्ली सल्तनत का वास्तविक संस्थापक इल्तुतमिश को माना जाता है। ऐबक अपने अल्पकाल में कोई विशेष उपलब्धि प्राप्त नहीं कर पाया था। इल्तुतमिश इल्बारी तुर्क था। उसका पिता ईलम खाँ इस कबीले का मुखिया था। अपनी उत्तम सोच व कुशाग्र बुद्धि के कारण वह अपने पिता का प्रिय था। इसी कारण उसके भाई भी उससे ईर्ष्या करने लगे। इन्हीं भाइयों ने उसे बुखारा में बेच दिया। बुखारा से वह गजनी तथा उससे बाद बगदाद में बिका। यहाँ वह सूफियों के सम्पर्क में आया, लेकिन उसे फिर गजनी जाना पड़ा। बाद में इसे ऐबक के द्वारा अन्तिम तौर पर खरीद लिया गया। ऐबक की तरह वह भी अपने स्वामी का विश्वास पात्र बना जिसके कारण ऐबक ने उसे सरजान दार (शाही अंगरक्षकों का मुखिया) बनाया। इसके बाद वह उन्नति करता हुआ अमीर-ए-शिकार तथा ग्वालियर के गवर्नर के पद तक पहुँचा। 1205 ई० में ऐबक ने उसे दासता से मुक्त किया व उससे अपनी पुत्री का विवाह भी किया। ऐबक के शासनकाल में वह उसका प्रमुख सलाहकार था। बाद में उसने आरामशाह से सत्ता हथिया ली।
(i) इल्तुतमिश की समस्याएं (Problems of IItutmish)
जिस समय इल्तुतमिश ने सत्ता प्राप्त की उस समय वह चारों ओर से शत्रुओं व समस्याओं से घिरा हुआ था। गजनी का यल्दौज, सिन्ध का कुवाचा व बंगाल का अलीमर्दान उसे सुलतान मानने के लिए तैयार नहीं थे, क्योंकि ये सभी गौरी के दास थे एवं ऐबक के सहयोगी थे। राजपूतों ने दिल्ली की सत्ता को चुनौती देते हुए कालिन्जर व ग्वालियर पर कब्जा कर लिया था। मंगोलों के आक्रमण का भय भी इस नव-स्थापित राज्य के अस्तित्व के लिए एक खतरे के रूप में था। आन्तरिक तौर पर इस राज्य में न तो शान्ति थी और न ही आर्थिक स्थिति अच्छी थी। इसके साथ-साथ तुर्की सरदारों का एक समूह भी उसका विरोधी था। इस प्रकार इल्तुतमिश के लिए सत्ता को सुरक्षित रखना काफी कठिन हो रहा था। उसने इन सभी समस्याओं का समाधान किया तथा दिल्ली सल्तनत को सुदृढ़ भी किया।
(ii) इल्तुतमिश की उपलब्धियाँ (Achievements of Iltutmish)
इल्तुतमिश की समस्याओं व दिल्ली सल्तनत की स्थिति को देखकर यह अनुमान लगाया जा सकता था कि वह किसी भी तरह से कामयाब नहीं हो सकेगा। उसने 1210 ई० से 1236 ई० तक शासन किया। इस दौरान उसने तीन चरणों में अपनी समस्याओं का समाधान किया तथा दिल्ली सल्तनत की जड़ों को भी मजबूत बनाया। इसी कारण उसे दिल्ली सल्तनत का वास्तविक संस्थापक कहा जाता है।
(1) प्रथम चरण (1210-1220 ई०)
इल्तुतमिश ने अपने शासन के पहले चरण में अपने प्रतिद्वन्द्वियों की शक्ति को नष्ट करके शान्ति-व्यवस्था स्थापित की |
(क ) यल्दौज़ की समस्या का समाधान (Solution of Problem of Yeldoz)
यल्दौज़ मुहम्मद गौरी का दास था। ऐबक के शासन-काल में वह गजनी का शासक था। मध्य एशिया में ख्वारिज्मशाह के बढ़ते प्रभाव के कारण गजनी सुरक्षित नहीं था। अतः वह दिल्ली पर कब्जा करना चाहता था। ख्वारिज्म के भय से वह गजनी छोड़कर लाहौर आ गया। उसने पंजाब में थानेश्वर तक के क्षेत्र पर कब्जा कर लिया। इसके बाद जब यल्दीज़ दिल्ली पर अधिकार करने के उद्देश्य से आगे बढ़ रहा था तो उसे इल्तुतमिश ने 1215-16 ई० में तराइन में पराजित कर दिया। उसे बंदी बनाकर उसका वध करवा दिया गया।
(ख) कुवाचा की समाप्ति (End of Quavacha)
यल्दीज़ की तरह कुवाचा भी उसका प्रबल प्रतिद्वन्द्वी था। वह सिन्ध का शासक था, लेकिन यल्दौज़ की मृत्यु के बाद उसने लाहौर पर कब्जा कर लिया था। इल्तुतमिश ने 1217 ई० में उसे पराजित करके लाहौर पर कब्जा कर लिया, लेकिन वह उसकी शक्ति को नष्ट नहीं कर सका। अपनी आन्तरिक समस्याओं व मंगोलों के आक्रमण के भय के कारण वह इस दिशा में अधिक ध्यान नहीं दे सका। 1226 ई० में एक बार फिर कुवाचा व इल्तुतमिश के मध्य युद्ध हुआ। इस समय कुवाचा युद्ध से भाग गया। मार्ग में नदी में डूब जाने के कारण उसकी मृत्यु हो गई।
(2) द्वितीय चरण (1221-27 ई०)
इस चरण में उसे मंगोलों के खतरे से निपटना पड़ा। इस समय मंगोलों का नेतृत्व चंगेज खाँ के हाथ में था। मध्य एशिया के अधिकतर हिस्से पर उसका अधिकार हो चुका था। उसने ख्वारिज्म पर भी आक्रमण करके उसे बरबाद कर दिया था। इसी कारण यहाँ का शासक राज्य छोड़कर सिन्धु घाटी के क्षेत्र की ओर आ गया। चंगेज खाँ भी उसका पीछा कर रहा था। ख्वारिज्म के शासक मंगबन में इल्तुतमिश से इस समय सहायता का अनुरोध किया, जिसके खतरों से इल्तुतमिश परिचित था। इल्तुतमिश ने सर्वप्रथम उस दूत का वध करवा दिया जो मंगबर्नी की ओर से सहायता का अनुरोध लेकर आया था। इल्तुतमिश ने मंगबर्नी को संदेश भेजा कि वह भारत न आए, क्योंकि यहाँ की जलवायु उसके अनुकूल नहीं है। दूसरी ओर, इल्तुतमिश ने उसके खिलाफ सैनिक तैयारी भी कर ली। ऐसे में मंगबर्नी ईरान की ओर चला गया। चंगेज खाँ ने उसका पीछा किया व ईरान की शक्ति को तहस-नहस कर दिया। इस प्रकार इल्तुतमिश ने मंगोलों के आक्रमण से अपने राज्य की रक्षा की।
(3) तृतीय चरण (1227-36 ई०)
इस चरण में इल्तुतमिश ने अन्य समस्याओं का समाधान किया तथा दिल्ली सल्तनत के विकास के कार्य किए |
(क) बिहार-बंगाल पर अधिकार (Capturing of Bihar and Bengal)
बंगाल – बिहार के क्षेत्र में सत्ता अलीमर्दान के हाथ में थी। उसने ऐबक की सत्ता को भी चुनौती दी। जैसे ही इल्तुतमिश ने उसके खिलाफ सैनिक अभियान चलाया तो हुसामुद्दीन एवज ने अलीमर्दानका वध करके वहाँ अपनी सत्ता स्थापित कर दी। इल्तुतमिश ने हुसामुद्दीन को पराजित करके उसे अधीनता स्वीकार करने के लिए बाध्य किया, परन्तु उसने इल्तुतमिश के वापस जाते ही अपनी स्वतन्त्रता की घोषणा कर दी। इसके लिए उसे एक बार फिर बंगाल पर आक्रमण करना पड़ा और बंगाल को साम्राज्य का हिस्सा बना लिया।
(ख) राजपूताना व दोआब में संघर्ष (Conflict between Rajputana and Doab)
राजपूतों ने चन्देलों व चौहानों के नेतृत्व में एक बार फिर सत्ता को प्राप्त करने का प्रयास किया। इल्तुतमिश ने 1226 ई० में रणथम्भोर, 1227 ई० में भंडोर, 1228-31 ई० तक जालौर, अजमेर, नागोट, 1233 ई० में कालिन्जर को जीता। उसकी ये सफलताएं स्थायी नहीं रह सकीं। इस तरह से उसने दोआब की असन्तोषजनक स्थिति को देखते हुए इस क्षेत्र में सैनिक अभियानों के माध्यम से कर एकत्रित किया।
(ग) सीमान्त प्रदेशों के प्रति नीति (Policy Towards Boundary Areas)
इल्तुतमिश इस बात से परिचित था कि उत्तर-पश्चिमी सीमा क्षेत्र पर शान्ति स्थापित किए बिना राज्य सुरक्षित नहीं रह सकेगा। उसने पहले खोखरों को हराया। इसके बाद, जालन्धर को गतिविधियों का आधार बनाकर स्यालकोट व नंदन क्षेत्र पर अधिकार कर लिया। इसके बाद उसके शासन में इस क्षेत्र में अशान्ति नहीं रही।
(घ) खलीफा से मान्यता प्राप्त करना (Recognisation of Status by Khalifa)
इल्तुतमिश ने बगदाद के खलीफा से दिल्ली सल्तनत को मान्यता लेकर महत्वपूर्ण सफलता हासिल की, क्योंकि इससे सुलतान के पद को धार्मिक वैधानिकता मिल गई। इससे पूर्व खलीफा दिल्ली सल्तनत को गजनी राज्य का ही हिस्सा मानता था। इल्तुतमिश ने अपने कार्यों व उपहारों से खलीफा को खुश कर दिया जिससे बदले में खलीफा ने उसे नासिर-अमीर-उलयोमिनीन (मुस्लिमों का प्रधान व खलीफा का सहायक) की उपाधि देकर स्वतन्त्र सुलतान के रूप में 1229 ई० में मान्यता दे दी। इससे उसकी प्रतिष्ठा बढ़ गई।
(ङ) दिल्ली को राजधानी बनाना (To make Delhi as Capital)
ऐबक ने दिल्ली सल्तनत की स्थापना के समय अपनी राजधानी लाहौर बनाई थी। इल्तुतमिश अपनी राजधानी राज्य के मध्य में चाहता था। पहले उसने दिल्ली को अपनी गतिविधियों का केन्द्र बनाया। उसके बाद इसे राजधानी घोषित किया। इसके बाद दिल्ली ने राजधानी के रूप में भारत के इतिहास में अपनी विशेष पहचान बनाई जिसतरह कन्नौज ने पाटलिपुत्र का महत्व कम किया था उसी प्रकार दिल्ली ने कन्नौज की स्थिति भी वही बना दी। दिल्ली को राजधानी बनाने के कारण कुछ इतिहासकार उसे दिल्ली साम्राज्य का निर्माता भी कहते हैं।
(च) नई मुद्रा का चलन (New Currency )
उसके शासन से पहले भारत में इस क्षेत्र में एक तरह की मुद्रा नहीं थी। इसके भार व बनावट में समानता न होने के कारण इसका मूल्य समान नहीं था। उसने भारत में अरबी पद्धति के सिक्के चलाए। इनके लिए राजकीय टकसाल बनाई। इन सिक्कों पर उसने टकसाल का नाम, खलीफा का नाम व अपना नाम भी खुदवाया। उसके सिक्कों को टका कहा जाता था। ये सोने व चाँदी के थे। इनका भार 175 ग्रेन था। एक अन्य छोटी मुद्रा जीतल (पीतल व ताँबा) का प्रचलन भी उसके द्वारा किया गया। इससे सारे साम्राज्य में एक मुद्रा प्रचलित हुई तथा विनिमय पहले की तुलना में आसान हो गया।
(छ ) प्रशासनिक व्यवस्था में सुधार (Improvement in Administration System)
प्रशासन में सुधार के उद्देश्य से उसने आवश्यक परिवर्तन किए। उसके राज्य का प्रशासनिक स्वरूप सैनिक व्यवस्था पर आधारित था। उसने सेना में योग्य व्यक्तियों को महत्व दिया उसने सेना के रख-रखाव के लिए धन की बेहतर व्यवस्था की तथा अच्छा वेतन भी देना प्रारम्भ किया। अधिकारियों को जागीरें दी गईं। विजित क्षेत्रों पर सैनिक अधिकारियों की नियुक्ति की गई। इससे वह विद्रोह इत्यादि पर नियन्त्रण कर पाया। इसका एक दोष यह रहा कि उसकी जागीर प्रथा के कारण आर्थिक संकट गहरा हुआ तथा वह जनता से प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं जोड़ पाया।
(ज) तुकनि-ए-चहलगानी का गठन (Formation of Turkan-e-Chalghani)
इल्तुतमिश की सुलतान के रूप में शक्ति बढ़ाने में इस संगठन की महत्वपूर्ण भूमिका थी | तुकनि-ए-चहलगानी में उसके 40 विश्वास-पात्र दास एवं सहयोगी थे जो प्रशासन के सभी महत्वपूर्ण पदों पर काम करते थे। इनकी संख्या 40 होने के कारण कुछ इतिहासकार इसे 40 की शक्ति या चालीसा भी कहते हैं। ये सभी तुर्क थे। अपनी योग्यता के अनुसार, इन्होंने साम्राज्य में शान्ति स्थापित करके विद्रोह की स्थिति पैदा न होने दी। हकीक व निजामी इस संगठन की प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि यह उसका बुद्धिमत्तापूर्ण कार्य था। उसने एक ऐसे राज्य की स्थापना की जो पूर्ण रूप से भारतीय था।
(झ) अक्तादारी या इक्तादारी व्यवस्था की शुरुआत (Starting of Ektadari )
इल्तुतमिश का साम्राज्य विस्तृत था। उसने इसे प्रान्तों जैसी इकाइयों में विभक्त किया; जिन्हें अक्ता (इक्ता) कहा जाता था। इसका मुखिया अक्तेदार कहलाता था। इनकी कई श्रेणियाँ थीं। परन्तु ये प्रान्तीय गवर्नर की तरह काम करते थे। ये अक्तेदार सुलतान के लिए जिम्मेदार होते थे। इनका समय-समय पर तबादला भी किया जाता था। यह प्रणाली कम खर्चीली तो थी ही, साथ में परम्परागत सामन्तवादी व्यवस्था से अलग भी थी | इससे क्षेत्रीय शक्ति कमज़ोर पड़ी तथा शक्तिशाली केन्द्र का निर्माण हुआ। इसका आरम्भ एक प्रयोग के रूप में हुआ था। धीरे-धीरे इसकी दुर्बलताओं पर नियन्त्रण पा लिया गया।
(iii) इल्तुतमिश की अन्य उपलब्धियाँ (Other Achievements of Iltutmish )
इल्तुतमिश ने जहाँ राज्य में शान्ति दी, अच्छा प्रशासन दिया तथा अपने विद्रोहियों की शक्ति को नष्ट किया वहीं उसने उचित न्याय की व्यवस्था करने का भी प्रयास किया। उसने दिल्ली तथा अन्य नगरों में काजी व अमीरदाद नामक अधिकारियों की नियुक्ति की। ये तत्काल फैसले दिया करते थे। इनके फैसलों के विरुद्ध प्रधान काज़ी तथा सुलतान के पास अपील की जा सकती थी।
इल्तुतमिश ने कुतुबमीनार को पूरा करवाया। इस मीनार का निर्माण का प्रारम्भ ऐबक द्वारा अपने शुरू में कुतुबुद्दीन वख्तियारकाकी की यादगार में किया गया था। उसने विद्वानों व कलाकारों को भी सरंक्षण दिया जिसके कारण दिल्ली सांस्कृतिक गतिविधियों का केन्द्र बन गई।
(iv) निष्कर्ष ( Conclusion )
इल्तुतमिश ने अपनी योग्यता व प्रतिभा के आधार पर दिल्ली सल्तनत की हर तरह से सेवा की। उसकी कार्यप्रणाली व सफलताओं के आधार पर उसे दिल्ली साम्राज्य व सल्तनत का वास्तविक संस्थापक कहा जा सकता है। उसने नव स्थापित मुस्लिम साम्राज्य की रक्षा की तथा अपने शत्रुओं की शक्ति को क्षीण करके उन पर आधिपत्य जमाया। मंगोलों के भारत पर आक्रमण को उसने सूझ-बूझ के आधार पर नियन्त्रित किया। नवीन शासन-प्रणाली देकर जहाँ उसने राज्य में शान्ति दी वहीं दरबार की प्रतिष्ठा भी लोगों के मन में स्थापित हुई। अपनी कुटनीतिक योग्यता के आधार पर उसने विभिन्न अमीरों पर नियन्त्रण रखा व 40 अमीरों का संगठन बनाया। उसने कला व साहित्य के संरक्षक के रूप में भी अपनी पहचान बनाई। सही अर्थों में वह ऐबक का सही उत्तराधिकारी था। उसने ऐबक के द्वारा शुरू किए गए सारे कार्य पूरे किए। उसने शिशु के रूप में प्राप्त राज्य को शक्तिशाली राज्य बनाया। अतः वह दिल्ली सल्तनत का वास्तविक संस्थापक कहलाने का हकदार है।
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