कुषाणकाल में भी कला का विकास मुख्यत: राज्य के प्रयासों से हुआ परन्तु बहुत-से कला-प्रेमी धनी लोगों ने भी कलाकारों को संरक्षण दिया। इस काल में कला सम्बन्धी गतिविधियाँ मुख्यतः धर्म से जुड़ी हुई थीं। कुषाणकालीन वास्तुकला, मूर्तिकला, साहित्य तथा विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विकास का वर्णन इस प्रकार है —
(1) वास्तु कला (Architecture)
वास्तुकला मुख्यतः दो तरह की थी — (i) धार्मिक निर्माण और (ii) निवास-स्थान ।
(i) धार्मिक निर्माण (Religious Architecture)
धार्मिक निर्माण के अंतर्गत में मुख्यतः बौद्ध विहारों और स्तूपों को लिया जा सकता है |इस काल में कुछ शैव और वैष्णवों के मंदिरों का निर्माण भी हुआ ।
स्तूप (Stupas) — महात्मा बुद्ध की मृत्यु के बाद उनके अवशेषों को किसी सोने या चाँदी के पात्र में सुरक्षित रखकर जमीन में दबाया गया और उन पवित्र स्थानों पर बनी इमारतों को स्तूप कहा गया। बौद्धों के लिए ये पूजनीय स्थल थे। इनका आकार एक अर्द्ध वृत्ताकार गुम्बद जैसा होता था। कुषाणकाल में एक विशेष स्तूप-निर्माण कला शैली विकसित हुई, जिस पर गांधार शैली का प्रभाव झलकता है। इस सन्दर्भ में कनिष्क द्वारा पुरुषपुर ( पेशावर ) में बनवाया गया स्तूप उल्लेखनीय है जिसकी ऊँचाई 638 फुट ऊँचा है | यह एक अद्भुत इमारत है ।
मन्दिर (Temples) — कुषाणकाल में मंदिर बनाने की शैली अभी अपनी प्रारम्भिक अवस्था में ही थी। उत्खनन से भी इनकी वास्तुकला की कोई विस्तृत जानकारी नहीं मिली है। झंडियाल (तक्षशिला) में एक मन्दिर के अवशेष मिले हैं।
(ii) निवास-स्थान अथवा नगरीय वास्तुकला (Home or Town Architecture)
कुषाण काल में उत्तर भारत में नगरीकरण अपने शिखर पर था। शिल्प, व्यापार और मुद्रा प्रणाली के विकास के कारण बहुत-से समृद्ध नगरों का उदय हुआ। हरियाणा, पंजाब, मथुरा के अनेक स्थानों पर कुषाण कालीन नगरों के अच्छे इमारती ढाँचे मिले हैं। मथुरा के पास सोंख की खुदाई से कुषाण अवस्था के सात स्तर मिले हैं। वैशाली, वाराणसी, कौशाम्बी, श्रावस्ती, इन्द्रप्रस्थ (नई दिल्ली ) इत्यादि भी कुषाण काल में समृद्ध नगरों में थे।
(2) मूर्तिकला (Sculpture)
मूर्तिकला के क्षेत्र में कुषाण युग में उल्लेखनीय प्रगति हुई । कुषाण काल में गांधार और मथुरा दो प्रमुख कला केन्द्र विकसित हुए।
(A) गांधार शैली (Gandhar Style) — गांधार कला के विकास में कुषाण शासक कनिष्क का विशेष योगदान रहा। हालांकि इस शैली का जन्म कुषाणों से पहले हो चुका था। यह भारतीय और यूनानी-कला शैली के परस्पर मिलन से पैदा हुई थी। इसकी अग्रलिखित विशेषताएँ थीं —
(i) इसमें विषय वस्तु महात्मा बुद्ध और बौद्ध परम्पराओं से लिए गए हैं। परन्तु मूर्ति बनाने का ढंग यूनानी है।
(ii) गांधार कला में यथार्थवाद अधिक है। मूर्तियों में शरीर और उसके प्रत्येक अंग को यथासम्भव वास्तविक रूप में दिखाया गया है। यहाँ तक कि शरीर की हड्डियाँ तथा नाड़ियाँ भी भली प्रकार से नज़र आती हैं। इस कला का प्रमुख उदाहरण घोर तपस्या में बैठे महात्मा बुद्ध की प्रतिमा है, जिसमें पेट भूख से धँसा हुआ है, पसलियाँ और नाड़ियाँ शरीर में साफ दिखती हैं, परन्तु चेहरा बिल्कुल गम्भीर है।
(iii) मूर्तियों के तीखे नैन-नक्श, घुंघराले बाल, झीने और पारदर्शी उत्कीर्ण वस्त्र इस शैली की विशेष पहचान हैं।
(iv) पहली और दूसरी शताब्दी में इस शैली की मूर्तियों का निर्माण नीले-भूरे रंग की परतदार चट्टानों से किया गया है, जबकि बाद के काल में मूर्ति निर्माण के लिए मिट्टी, चूना, प्लस्तर और स्तम्भ की दीवारों का उपयोग किया गया है।
(A) मथुरा शैली (Mathura Style) —भारत में कुषाण काल की मूर्तियों का सबसे बड़ा संग्रह मथुरा संग्रहालय है। यहाँ बौद्ध, जैन और ब्राह्मण धर्म के देवी-देवताओं के अतिरिक्त शासकों की मूर्तियों का निर्माण भी किया जाता था। इन मूर्तियों का निर्माण
लाल बलुआ पत्थर से किया गया है, जो सीकरी के आस-पास
स्थानीय स्तर पर उपलब्ध है।
(3) साहित्य (Literature)
कुषाणों के प्रतापी शासक कनिष्क के काल में साहित्य को विशेष प्रोत्साहन मिला। वह साहित्यकारों का महान संरक्षक था। उसका दरबार विद्वानों और साहित्यकारों से भरा पड़ा था। अश्वघोष, नागार्जुन, वसुमित्र तथा चरक जैसे प्रकाण्ड विद्वान उनके दरबार की शोभा थे। चरक आयुर्वेद का ज्ञाता था, जबकि शेष विद्वान बौद्ध धर्म के अनुयायी व दार्शनिक थे। उनकी रचनाएँ अधिकतर बौद्ध धर्म से सम्बन्धित हैं जो संस्कृत में लिखी गई हैं।
(A) अश्वघोष — अश्वघोष बौद्ध धर्म का महान दार्शनिक था | ऐसा माना जाता है कि इसी विद्वान के प्रभाव में आकर कनिष्क ने बौद्ध धर्म ग्रहण किया था। वह एक बहुमुखी प्रतिभा का धनी था। वह एक कवि, नाटककार, संगीतज्ञ, दार्शनिक तथा उपदेशक था। बुद्धचरित, वज्रसूची, सूत्रालंकार, सारिपुत्र प्रकरण आदि उसकी प्रमुख रचनाएं हैं । सारिपुत्र प्रकरण अश्वघोष का सर्वश्रेष्ठ नाटक माना जाता है। यह संस्कृत साहित्य में उपलब्ध सबसे प्राचीन नाटक है। बुद्धचरित में महात्मा बुद्ध के जीवन तथा उपदेशों का बहुत ही सुन्दर वर्णन किया गया है।
(A) वसुमित्र — वसुमित्र भी बौद्ध धर्म का महान विद्वान था। वसुमित्र कश्मीर में बुलाई गई चौथी बौद्ध सभा का सभापति था। वसुमित्र की देख-रेख में इस सभा में ‘महाविभाष‘ नामक ग्रंथ लिखा गया था।
(C) नागार्जुन — नागार्जुन भी कुषाण काल का प्रसिद्ध विद्वान था | उसने बौद्ध धर्म की महायान शाखा का सैद्धांतिक आधार प्रस्तुत किया | उसने ‘शून्यवाद‘ का प्रतिपादन किया | उसने लगभग 20 ग्रंथों की रचना की | ‘माध्यमिक सूत्र‘ तथा ‘तरज्ञा पारामिता‘ उसकी प्रमुख रचनाएं हैं |
(4) विज्ञान एवं तकनिकी ( Science and Technology )
कुषाणकाल में धातु विज्ञान के क्षेत्र में बहुत उन्नति हुई | यूनानियों से सम्पर्क बढ़ने के कारण प्रत्येक क्षेत्र में नए प्रयोग हुए | कुषाणों द्वारा चलाये गए सोने, चांदी और तांबे के सिक्के रोमन कला से प्रभावित थे | इस काल में काल चमड़े के जूते बनाये जाने लगे | कई प्रतिमाओं में कनिष्क को पतलून और लम्बे जूते पहने हुए दिखाया गया है | खगोल और ज्योतिष शास्त्र के क्षेत्र में भी नई खोजें हुई जिन पर यूनानियों का प्रभाव स्पष्ट रूप से लक्षित होता है |
उपर्युक्त विवेचन के आधार पर स्पष्ट हो जाता है कि कुषाण काल में स्थापत्य कला, साहित्य, विज्ञान और तकनिकी के क्षेत्र में उल्लेखनीय विकास हुआ | इस काल में बनी बुद्ध की मूर्तियाँ और सिक्के अप्रतिम हैं |
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