रामधारी सिंह दिनकर का साहित्यिक परिचय

जीवन-परिचय — श्री रामधारी सिंह ‘दिनकर’ हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकार हैं | वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे | उन्होंने गद्य तथा पद्य की विभिन्न विधाओं पर अपनी लेखनी चला कर हिंदी साहित्य को समृद्ध किया |

रामधारी सिंह ‘दिनकर’ का जन्म बिहार के बेगूसराय जिले के सिमरिया घाट गाँव में 23 सितंबर, सन् 1908 को हुआ था। उनके पिता का नाम श्री रवि सिंह तथा माता का नाम श्रीमती मनरूप देवी | पटना विश्वविद्यालय से उन्होंने बी ए ( ऑनर्स ) की परीक्षा उत्तीर्ण की। वे मुजफ्फरपुर कॉलेज में हिंदी विभागाध्यक्ष रहे | सन् 1952-63 ई० तक राज्यसभा के सदस्य रहे। वे सन् 1964 में भागलपुर विश्वविद्यालय के कुलपति भी रहे। उनकी सेवाओं के फलस्वरूप भारत सरकार ने उन्हें सन् 1959 में ‘पद्मभूषण’ से सम्मानित किया। सन् 1973 में उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त हुआ था। वे जीवन भर साहित्य-साधना में रत रहे | 24 अप्रैल, 1974 ई० को इनका देहांत हो गया था।

रचनाएँ — श्री रामधारी सिंह दिनकर की रचनाओं को निम्नलिखित भागों में बाँटा जा सकता है :

(क) काव्य-संग्रह — रेणुका, हुंकार, रसवंती, द्वंद्व गीत, सामधेनी, बापू, इतिहास के आँसू, धूप और धुआँ, दिल्ली, नीम के पत्ते, नील कुसुम, चक्रवाल, सीपी और शंख, नए सुभाषित, मिट्टी को ओर, मृत्ति तिलक, कोयला और कवित्व, धूप-छांह, परशुराम की प्रतीक्षा आदि।

(ख) खंड-काव्य — प्रण-भंग, रश्मिरथी, कुरुक्षेत्र ।

(ग) गीति नाट्य — उर्वशी।

(घ) गद्य साहित्य- रेती के फूल, उजली आग, भूमिका, वट-पीपल, राष्ट्र भाषा और राष्ट्रीय एकता, भारत की सांस्कृतिक एकता, देश-विदेश, संस्कृति के चार अध्याय आदि।

(ङ) बाल साहित्य — मिर्च का मजा, सूरज का ब्याह आदि।

काव्यगत विशेषताएँ

रामधारी सिंह दिनकर की प्रमुख साहित्यिक विशेषताएँ निम्नलिखित हैं :–

(1) राष्ट्रीयता की भावना — राष्ट्रवाद दिनकर के साहित्य के प्रमुख विशेषता है | वे अपनी रचनाओं में जहां भारत के अतीत का गौरवगान करते हैं वहीं वर्तमान दशा पर चिंता भी व्यक्त करते हैं | इसके अतिरिक्त में भारतीय संस्कृति तथा परंपराओं से प्रेम करते हैं लेकिन उनका यह प्रेम अतार्किक नहीं है | मैं भारतीय संस्कृति और परंपरा के उन तत्वों को नष्ट कर देना चाहते हैं जो अब अनुपयुक्त हो चुकी हैं |

(2) मानवतावाद की भावना — दिनकर का दृष्टिकोण मानवतावादी है | लोकमंगल उनकी रचनाओं का प्रमुख तत्व है | ‘रश्मिरथी’ में वे कर्ण के माध्यम से इस विचारधारा को प्रस्तुत करते हैं कि व्यक्ति की पूजा उसके गुणों से होनी चाहिए | इसी प्रकार ‘कुरुक्षेत्र’ खंडकाव्य में वे भीष्म और भगवान् कृष्ण की प्रतिज्ञाओं को भी मानवता के हितों के समक्ष गौण समझते हैं |

(3) क्रांति की भावना — दिनकर जी के काव्य में सामाजिक विषमता के प्रति आक्रोश दिखाई देता है | वे अपनी काव्य में मजदूररों, गरीबों, पीड़ितों और शोषितों के प्रति सहानुभूति प्रकट करते हैं | उनकी वाणी में अत्याचार और शोषण के प्रति क्रांति की भावना दिखाई देती है |

श्वानों को मिलता वस्त्र दूध, भूखे बालक अकुलाते हैं |

माँ की हड्डी से चिपक ठिठुर, जाड़ों की रात बिताते हैं ||

(4) प्रकृति चित्रण — दिनकर के काव्य में प्रकृति का सुंदर चित्रण मिलता है | उन्होंने प्रकृति का आलम्बनगत व उद्दीपनगत दोनों रूपों में चित्रण किया है |

‘रश्मिरथी’ में परशुराम के आश्रम का सुंदर चित्रण करते हुए वे लिखते हैं —

“शीतल विरल एक कानन शोभित अधित्यका के ऊपर,

कहाँ उस प्रस्त्रवण चमकते, झरते कहीं शुभ्र निर्झर ||”

दिनकर के प्रकृति-चित्रण में कहीं-कहीं रहस्यवाद की झलक भी मिलती है |

(5) भारतीय संस्कृति का उद्घाटन — दिनकर जी भारतीय संस्कृति के महान प्रशंसक रहे हैं | उनके काव्य में भारतीय संस्कृति का सजीव चित्रण मिलता है | वे भारत की संस्कृति, परंपराओं व भौगोलिक विशेषताओं को अपने काव्य में प्रमुखता प्रदान करते हैं | उन्होंने भौतिक उपलब्धियों की अपेक्षा आध्यात्मिक उत्थान को सर्वोपरि माना है |

(6) वीरत्व की भावना — दिनकर के काव्य में वीरता का भाव सर्वत्र दिखाई देता है | उनके काव्य में ओजगुण की प्रधानता है | ‘हुंकार’ और ‘सामधेनी’ कुछ गुण संपन्न कविताएं हैं |

(7) भाषा एवं भाषा शैली — दिनकर जी का कला पक्ष भी उनके भाव पक्ष की भांति सशक्त है | उनकी भाषा सरल, सहज एवं स्वाभाविक है | उनकी भाषा में तत्सम, तद्भव देशज, विदेशी ; सभी प्रकार के शब्द मिलते हैं लेकिन संस्कृतनिष्ठ शब्दावली की प्रधानता है | उनकी भाषा माधुर्य और ओज गुण संपन्न है |

उनकी भाषा शैली भी अत्यंत सरल, सुबोध किंतु प्रवाहमय है | अलंकारों, छन्दों तथा बिंबों के प्रयोग से उनकी भाषा अत्यंत आकर्षक बन गई है | संक्षिप्ततः उनकी भाषा हर प्रकार के भाव को अभिव्यक्त करने में सक्षम है |

यह भी देखें

विभिन्न साहित्यकारों का जीवन परिचय

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