भारतेन्दु युग : प्रमुख कवि व विशेषताएँ ( Bhartendu Yug : Pramukh Kavi V Visheshtayen )

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ( Bhartendu Harishchandra ) आधुनिक युग के प्रवर्त्तक हैं। उनके आगमन से हिन्दी कविता में एक नया युग आरम्भ होता है। इस युग को साहित्यिक पुनरुथान, राष्ट्रीय चेतनापरक युग, सुधारवादी युग और आदर्शवादी युग कहा गया है। इस युग में रीतिकालीन श्रृंगार-प्रधान काव्य के स्थान पर सामान्य जनजीवन की विषय-वस्तु पर आधारित जनहित प्रधान, समाज-सुधार एवं राष्ट्रीय-चेतना युक्त काव्य का आरम्भ हुआ। इस युग का काव्य विलासिता की अपेक्षा युगीन जीवन से जुड़ा है । इस युग में कवि ने प्राचीनता से नाता तोड़कर नवीन-चेतना को व्यक्त करने का प्रयास किया है। इसलिए भारतेन्दु युग को आधुनिक काल का प्रवेश-द्वार कहते हैं।

भारतेन्दु युग के प्रमुख कवि ( Bhartendu Yug Ke Pramukh Kavi ) — भारतेन्दु हरिश्चन्द्र अम्बिकादत्त व्यास, राधा कृष्णदास, प्रताप नारायण मिश्र, बदरीनारायण ‘प्रेमघन’, ठाकुर जगमोहन सिंह, बालमुकुन्द गुप्त, किशोरी लाल गोस्वामी, बालकृष्ण भट्ट आदि भारतेन्दु युग के प्रमुख कवि हैं ।

भारतेन्दु युग की प्रमुख प्रवृत्तियाँ ( Bhartendu Yug Ki Pramukh Pravrittiyan )

भारतेन्दु युगीन काव्य की प्रमुख प्रवृत्तियाँ अथवा विशेषताएँ निम्नलिखित हैं —

(1) देश-भक्ति की भावना — भारतेन्दु आधुनिक युग के प्रथम राष्ट्रीय कवि कहे जा सकते हैं। उनके काव्य में देश-भक्ति की भावना सशक्त रूप से अभिव्यक्त हुई है। उनकी कविताओं में देश की दुर्दशा का मार्मिक वर्णन किया गया है। भारतेन्दु युग की कविताओं में देश-भक्ति कई रूपों में प्रकट हुई है। इस युग में देश के अधःपतन, रूढ़िवादिता, पाश्चात्य सभ्यता का अन्धानुकरण, ब्रिटिश शासन के अत्याचार, धार्मिक अन्ध-विश्वास, छल-कपट, आपसी वैर-विरोध आदि का यथार्थ चित्रण किया गया है।

(2) प्राचीनता और नवीनता का समन्वय — भाव, भाषा, शैली और उद्देश्य सभी दृष्टियों से इस युग के साहित्य में प्राचीनता और नवीनता के एक-साथ दर्शन होते हैं। इस युग के साथ समाज, राजनीति, धर्म और संस्कृति का एक नया दौर शुरू होता है। इस युग में ब्रज के स्थान पर खड़ी बोली साहित्यिक भाषा के रूप में प्रतिष्ठित होने लगी | काव्य ब्रज भाषा में और गद्य खड़ी बोली में रचा जाने लगा | काव्य के स्थान पर गद्य का प्रसार होने लगा | विषय के दृष्टिकोण से जहाँ भारतीय अतीत के स्वर्णिम पक्ष को उजागर किया गया वहीं रूढ़ियों का विरोध कर उन्हें नवीन जीवन-मूल्यों से प्रतिस्थापित करने का प्रयास किया गया |

(3) भक्ति-भावना — भारतेन्दु-युगीन काव्य में नई प्रवृत्तियों के साथ-साथ भक्ति-कालीन -भावना के आदर्श भी दिखाई पड़ते हैं। इस युग के गेय पदों में राधा और श्रीकृष्ण की लीलाओं का सुन्दर चित्रण किया गया है। भारतेन्दु स्वयं एक महान् कृष्ण-भक्त कवि थे। भारतेन्दु ने माधुर्य भाव की भक्ति को ग्रहण किया था। वे कर्मकाण्ड आदि को पसन्द नहीं करते थे। इस युग की भक्ति-भावना में भक्ति-युगीन तन्मयता के दर्शन होते हैं।

(4) श्रृंगार-भावना — भक्ति-भावना की भाँति भारतेन्दु-युगीन काव्य में श्रृंगार-भावना का चित्रण भी हुआ है। किन्तु इसमें रीतिकालीन कवियों की-सी अश्लीलता, नग्नता आदि का चित्रण नहीं हुआ। इस युग के काव्य में उच्च एवं आदर्शमयी प्रेम-भावना के दर्शन होते हैं।

(5) सामाज सुधार — समाज सुधार भारतेन्दु युग की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण प्रवृत्ति कही जा सकती है | साहित्य के माध्यम से भारतीय समाज में प्रचलित कुरीतियों पर जितनी निर्भीकता से इस युग में प्रहार किया गया उतना इससे पूर्व कभी नहीं हुआ | सामाजिक रूढ़ियों के विरोध की इस भावना के कारण ही इस युग को आधुनिक काल का प्रवेश द्वार कहा जाता है | इस युग में कन्या वध, जाति प्रथा, बेमेल विवाह, बाल विवाह, सती प्रथा जैसी बुराइयों के विरोध में काव्य रचा गया तथा नारी शिक्षा का समर्थन किया गया |

(6) प्रकृति चित्रण — भारतेन्दु युग में प्रकृति-चित्रण भी काव्य की विषय-वस्तु बनाया गया | इन कवियों ने मुख्यत: प्रकृति का आलम्बनगत चित्रण किया है परन्तु कहीं-कहीं प्रकृति का उद्दीपनगत चित्रण भी मिलता है | इस युग में प्रकृति चित्रण करने में ठाकुर जगमोहन सिंह को सर्वाधिक सफलता मिली | भारतेन्दु के काव्य में भी प्रकृति चित्रण के उदाहरण मिलते हैं |

(7) इतिवृतात्मकता — इतिवृतात्मकता इस काल की एक अन्य विशेषता है | इस काल के कवि अनुभूति के आधार पर अधिक सफल नहीं हो पाए | इन्होने मूलत: उपदेशात्मक व सुधारात्मक कविताएँ लिखी जिनमें केवल इतिवृतात्मकता है | द्विवेदी युग में यह इतिवृतात्मकता और अधिक विकसित हुई | इस प्रवृत्ति का उन्मूलन छायावाद में जाकर हुआ |

(8) कला पक्ष — भाषा के दृष्टिकोण से यह काल संक्रमण काल कहा जा सकता है | इस काल में जहाँ काव्य के क्षेत्र में ब्रज भाषा का प्रयोग किया गया वहीं गद्य के क्षेत्र में खड़ी बोली का प्रयोग हुआ | इस युग में गद्य का चलन बढ़ने लगा | परिणामस्वरूप खड़ी बोली का महत्व भी बढ़ने लगा | पत्रकारिता के विकास ने खड़ी बोली को और अधिक लोकप्रिय बनाया | खड़ी बोली और ब्रज भाषा का यह झगड़ा द्विवेदी युग में जाकर सुलझा जहाँ खड़ी बोली साहित्यिक भाषा बन बन गई | इस काल में कवियों ने आम बोलचाल की भाषा में काव्य-रचना की | फिर भी इनकी भाषा में विविध छन्द मिलते हैं | दोहा, रोला, सवैया, कवित्त आदि छंद इनके काव्य में मिलते हैं | शब्दालंकार व अर्थालंकार, दोनों प्रकार के अलंकार इनके काव्य में मिलते हैं | निष्कर्षत: भाव व कला पक्ष के दृष्टिकोण से इनका काव्य हिंदी काव्य में अपना एक विशिष्ट स्थान रखता है |

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