(1) म्हारों प्रणाम बांके बिहारी जी। मोर मुगट माथ्यां तिलक बिराज्यां, कुण्डलअलकां कारी जी। अधर मधुर धर बंसी बजावां, रीझ रिजावां ब्रज नारी जी। या छब देख्यां मोह्यां मीरा, मोह गिरवर धारी जी।।
प्रसंग — प्रस्तुत काव्यांश कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय द्वारा बी ए द्वितीय सेमेस्टर के लिए निर्धारित हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में संकलित मीराबाई के पदों से अवतरित है | इन पंक्तियों में मीराबाई श्री कृष्ण के प्रति अपने अनन्य भक्ति-भाव को प्रकट करती है |
व्याख्या – कवयित्री मीराबाई कहती है कि हे बांके बिहारी श्री कृष्ण ! आप को मेरा प्रणाम | श्री कृष्ण के रूप सौंदर्य और वेशभूषा का वर्णन करते हुए मीराबाई कहते है कि हे बाँके बिहारी! आपके मस्तक पर मोर के पंखों का मुकुट विराजमान है, तिलक सुशोभित है । आपके कानों में कुंडल सुशोभित हो रहे हैं तथा सिर पर काले घुंघराले बाल हैं। आप अपने मधुर होठों पर बांसुरी धारण करके उसकी मधुर ध्वनि से ब्रज की नारियों को मोहित कर लेते हो | हे गोवर्धन पर्वत धारण करने वाले मोहन ! आपकी इस छवि को देखकर मैं भी आपकी ओर आकर्षित हो गई हूँ।
(2) बस्यां म्हारे णेणण मां नन्दलाल। मोर मुगट मकराकृत कुण्डल अरुण तिलक सोहां भाल। मोहन मूरत सांवरा सूरत णेणा बण्या विशाल। अधर सुधारस मुरली राजां, उर बैजतां माल। मीरां प्रभु संतां सुखदाया, भक्त बछल गोपाल।।
प्रसंग — प्रस्तुत काव्यांश कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय द्वारा बी ए द्वितीय सेमेस्टर के लिए निर्धारित हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में संकलित मीराबाई के पदों से अवतरित है | इन पंक्तियों में मीराबाई श्री कृष्ण के प्रति अपने अनन्य भक्ति-भाव को प्रकट करती है |
व्याख्या – मीराबाई कहती है कि नंद के पुत्र कृष्ण उनकी आंखों में बस गए हैं। कृष्ण ने अपने सिर पर मोर पंखों से बना हुआ मुकुट धारण कर रखा है। उनके कानों में मकर की आकृति के कुंडल सुशोभित हो रहे हैं तथा उनके मस्तक पर लाल रंग का तिलक शोभायमान है। उनका रूप मन को मोहने वाला, शरीर सांवला तथा आंखें विशाल हैं। उनके अमृत-रस से सिक्त होठों पर मुरली सुसज्जित है और वक्षस्थल पर वैजयंतीमाला है। मीराबाई कहते हैं कि गोपाल कृष्ण भक्त वत्सल हैं तथा संतों को सुख प्रदान करने वाले हैं।
(3) थारो रूप देख्यां अटकी। कुल कुटम्ब सजण सकल बार बार हटकी | बिसरयां णा लगण लगा मोर मगट नटकी | म्हारो मण मगण स्याम लोक कह्यां भटकी | मीरां प्रभु सरण गह्यां जाणयां घट घट की ||
प्रसंग — प्रस्तुत काव्यांश कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय द्वारा बी ए द्वितीय सेमेस्टर के लिए निर्धारित हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में संकलित मीराबाई के पदों से अवतरित है | इन पंक्तियों में मीराबाई श्री कृष्ण के प्रति अपने अनन्य भक्ति-भाव को प्रकट करती है |
व्याख्या — मीराबाई कृष्ण को सम्बोधित करते हुए कहती है कि हे प्रभु! मैं आपके सुन्दर रूप को देखकर मन्त्रमुग्ध हो गई हूँ | यही कारण हैं कि मेरे कुल-कुटुंब के सभी लोग तथा सभी सगे-संबंधी बार-बार मेरी आलोचना करते हैं | लेकिन मुझे मोर मुकुट धारण करने वाले कृष्ण की ऐसी लगन लगी है कि मैं चाह कर भी उन्हें नहीं भुला सकती | मेरा मन प्रतिक्षण श्याम में निमग्न रहता है | मेरी इस अवस्था को देखकर लोग कहते हैं कि मैं भटक गई हूँ | अंत में मीराबाई कहती है कि कोई चाहे कुछ भी कहे मैंने तो प्रभु की शरण को ग्रहण कर लिया है जो प्रत्येक हृदय के भावों को जानते हैं |
(4) आली री म्हारे णेणा बाण पड़ी। चित्त चढ़ी म्हारे माधुरी मूरत, हिवड़ा अणी गड़ी। कब से ठाढ़ी पंथ निहारां, अपणे भवण खड़ी। अटक्यां प्राण सांवरों प्यारी, जीवन मूर जड़ी। मीरा गिरधर हाथ बिकानी, लोक कह्यां बिगड़ी।।
प्रसंग — प्रस्तुत काव्यांश कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय द्वारा बी ए द्वितीय सेमेस्टर के लिए निर्धारित हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में संकलित मीराबाई के पदों से अवतरित है | इन पंक्तियों में मीराबाई श्री कृष्ण के प्रति अपने अनन्य भक्ति-भाव को प्रकट करती है |
व्याख्या – मीराबाई अपनी सखी को संबोधित करते हुए कहती है कि हे सखी! मेरी आंखों को कृष्ण की ओर देखने की आदत हो गई है। कृष्ण की मधुर मूर्ति मेरे हृदय में बस गई है और मेरे हृदय में इस प्रकार गड़ गई है कि निकाले नहीं निकलती | हे सखी ! मैं न जाने कब से अपने महल में खड़ी हुई अपने प्रिय के रास्ते को ताक रही हूँ अर्थात उनके आने की प्रतीक्षा कर रही हूँ। मेरे प्राण सांवले कृष्ण में ही फंसे हुए हैं, वही मेरे जीवन के लिए संजीवनी बूटी के समान हैं।
अंत में मीराबाई कहती हैं कि मैं तो गोवर्धन पर्वत को धारण करने वाले प्रभु कृष्ण के हाथों बिक गई हूँ परंतु लोग मेरे बारे में कहते हैं कि मैं बिगड़ गई हूँ।
(5) णेणा वणज बसावां री, म्हारा सांवरा आवां। णेणा म्हारा सांवरा राज्यां, डरता पलक णा लावां। म्हारा हिरदां बस्यां मुरारी, पलपल दरसाण पावां। स्याम मिलण सिंगार सजावां, सुख री सेज बिछावां। मीरां रे प्रभु गिरधर नागर, बार बार बलि जावां ।।
प्रसंग — प्रस्तुत काव्यांश कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय द्वारा बी ए द्वितीय सेमेस्टर के लिए निर्धारित हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में संकलित मीराबाई के पदों से अवतरित है | इन पंक्तियों में मीराबाई श्री कृष्ण के प्रति अपने अनन्य भक्ति-भाव को प्रकट करती है |
व्याख्या — मीराबाई कहती है कि मैंने अपनी आँखों में वणज ( अर्थ स्पष्ट नहीं पता चले तो कृपया मार्गदर्शन करें ) बसाया है क्योंकि मेरे सांवरे कृष्ण आने वाले हैं | मेरी आँखों में सांवरे सुशोभित हैं इसलिए मैं डरकर पलक भी नहीं झपकती | मेरे हृदय में मुरारी बसे हैं, फलत: हरपल मैं उनके दर्शन करती हूँ | श्याम-सुंदर से मिलने के लिये मैं साज-सिंगार करती हूँ और उनके लिए सूखदायक शैया बिछाती हूँ | अंत में मीराबाई कहती है कि मेरे प्रभु तो गिरधर नागर श्री कृष्ण हैं, मैं बार-बार उन पर बलिहारी जाती हूँ |
(6) म्हां गिरधर आगां नाच्यारी। नाच नाच म्हं रसिक रिज़ावन प्रीत पुरातन जांच्यां (सांच्यां ) री। स्याम प्रीत रो बांधी घुंघरयां मोहन म्हारो साच्यां री। लोक लाज कुलरा मरजावां जग मां वक(नेक ) न राख्यां री। प्रीतम पल छव णा विसरावां,मीरां हरि रंग राच्यां री ||
प्रसंग — प्रस्तुत काव्यांश कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय द्वारा बी ए द्वितीय सेमेस्टर के लिए निर्धारित हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में संकलित मीराबाई के पदों से अवतरित है | इन पंक्तियों में मीराबाई श्री कृष्ण के प्रति अपने अनन्य भक्ति-भाव को प्रकट करती है |
व्याख्या — मीराबाई कहती है कि मैं गिरिधर श्री कृष्ण के समक्ष नाचती हूँ | नाच-नाच कर मैं रसिक श्री कृष्ण को रिझाने के प्रयत्न करती हूँ और अपने पुरातन प्रेम ( जन्म-जन्मांतर का प्रेम ) की परीक्षा करती हूँ | अथवा मेरा और मेरे प्रभु का प्रेम जन्म-जन्मांतर का है और सच्चा है | श्याम के प्रेम मैं मैंने अपने पाँवों में घुँघरू बाँधे हैं और मेरे मोहन दिल से सच्चे हैं | अपने प्रिय के प्रति प्रेम निभाते हुए मैंने लोक-लाज और कुल की मर्यादा तनिक भी नहीं रखी अर्थात मैंने लोक-लाज और कुल की मर्यादा को पूर्णत: त्याग दिया | प्रियतम की सुंदर छवि को मैं पल भर भी नहीं भूलती वे मेरे स्वामी हैं मैं उनके रंग में रंग गई हूँ |
(7) मैं तो गिरधर के घर जाऊँ। गिरधर म्हारो सांचो प्रीतम, देखत रूप लुभाऊं। रैण पड़े तब ही उठि जाऊँ, भोर गये उठि आऊँ। रैणदिना वाके संग खेलूं, ज्यूं ज्यूं वाहि रिझाऊँ। जो पहिरावै सोई पहिरुं, जो दे सोई खाऊं। मेरी उनकी प्रीत पुराणी, उण बिन पल न रहाऊ। जहां बैठावें तित ही बैठूँ, बेचै तो बिक जाऊं। मीरां के प्रभु गिरधर नागर, बार-बार बलि जाऊँ।।
प्रसंग — प्रस्तुत काव्यांश कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय द्वारा बी ए द्वितीय सेमेस्टर के लिए निर्धारित हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में संकलित मीराबाई के पदों से अवतरित है | इन पंक्तियों में मीराबाई श्री कृष्ण के प्रति अपने अनन्य भक्ति-भाव को प्रकट करती है |
व्याख्या – मीराबाई कहती है कि मैं तो गिरिधर के घर जाऊंगी क्योंकि वही मेरा सच्चा प्रियतम है। मैं उसके रूप-सौंदर्य को देखकर उस पर आसक्त हो गई हूँ। रात होते ही मैं उसके घर चली जाती हूँ और सवेरा होने पर मैं उसके यहां से वापिस आ जाती हूँ। मैं रात-दिन उसके साथ खेलती हूँ और जैसे-तैसे करके उनको प्रसन्न करने का प्रयास करती हैं। जो कुछ भी वह मुझे पहनने को देते हैं, मैं वही पहनती हूँ और जो कुछ खाने को देते हैं, वही खाती हूँ। मेरा और उनका प्रेम बहुत पुराना है। मैं उनके बिना एक पल भी नहीं रह सकती | मेरे प्रभु कृष्ण जहां मुझे बैठाते हैं, मैं वहीं बैठ जाती हूँ। यदि वह मुझे बेच भी देंगे तो मैं उनके लिए सहर्ष बिक भी जाऊंगी | अंत में मीरा कहती है कि मेरे स्वामी तो भगवान कृष्ण हैं, मैं बार-बार उन पर न्योछावर जाती हूँ।
(8) म्हां गिरधर रंगराती, सैयां म्हां। पचरंग चोला पहरया सखी म्हां, झिरमिट खेलण जाती। वा झिरमिट मां मिल्यो सांवर, देख्यां तण-मण राती। जिणरो पिया परदेस बस्या री, लिख-लिख भेज्या पाती। म्हारा पियां म्हारे हियड़े बसतां आवां णा जाती। मीरां के प्रभु गिरधर नागर मग जोवां दिण रति।
प्रसंग — प्रस्तुत काव्यांश कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय द्वारा बी ए द्वितीय सेमेस्टर के लिए निर्धारित हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में संकलित मीराबाई के पदों से अवतरित है | इन पंक्तियों में मीराबाई श्री कृष्ण के प्रति अपने अनन्य भक्ति-भाव को प्रकट करती है |
व्याख्या — मीराबाई अपनी सखी को सम्बोधित करते हुए कहती है कि हे सखी! मैं गिरिधर के रंग में रंग गई हूँ | मैं पाँच रंग का चोला पहन कर अर्थात मानव शरीर धारण करके झिरमिट खेलने जाते हूँ | झिरमिट ( कुछ स्थानों पर इसका अर्थ लुका-छिपी है तो कुछ स्थान पर हाथ पकड़ कर घूमने का खेल ) खेलते हुए सांवले सलोने कृष्ण से मेरा मिलन हो गया | मैं देखते ही तन-मन से उनके प्रति अनुरक्त हो गई | मीराबाई कहती है कि जिनके प्रिय परदेस चले जाते हैं, वे पत्र लिखकर उनके पास सन्देश भेजते हैं लेकिन मेरा प्रिय मेरे हृदय में ही रहता है, मुझे छोड़ कहीं आता-जाता नहीं | अंत में मीराबाई कहती हैं कि गिरिधर नागर श्री कृष्ण ही मेरे प्रभु हैं, मैं दिन-रात उनका रास्ता देखती हूँ |
(9) आज म्हारो साधु जननो संगरे, राणा म्हारा भाग भल्या। साधु जननो संग जो करिये, चढ़े ते चौगुणो रंग रे। साकट जननो संग न करिये, पड़े भजन में भंग रे। अठसठ तीरथ संतो ने चरणे, कोटि कासी ने कोटि गंग रे। निन्दा करसे नरक कुंड मा जा से धासे आधलां अपंग रे। मीरां के प्रभु गिरधर नागर, संतों नी रज म्हारे अंग रे।।
प्रसंग — प्रस्तुत काव्यांश कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय द्वारा बी ए द्वितीय सेमेस्टर के लिए निर्धारित हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में संकलित मीराबाई के पदों से अवतरित है | इन पंक्तियों में मीराबाई ने सत्संगति के प्रति अपने दृष्टिकोण को प्रकट किया है |
व्याख्या — हे राणा ! मेरा यह सौभाग्य है कि मुझे आज साधुजनों का सत्संग प्राप्त हो गया है। जो व्यक्ति साधुजनों के सत्संग में रहता है उस पर चौगुना रंग चढ़ जाता है अर्थात उसका चहुगुणा विकास होता है। दुष्ट लोगों का संग नहीं करना चाहिए अर्थात उनकी संगति में कभी नहीं रहना चाहिए क्योंकि उन लोगों के साथ रहने से भजन-कीर्तन में भंग पड़ता है अर्थात भक्ति में बाधा आती है | संतों के चरणों की अतुलनीय महिमा है। जितना पुण्य व्यक्ति को अड़सठ तीर्थों के करने से प्राप्त होता है उतना ही साधुजनों के चरणों में रहने से मिल जाता है बल्कि कहना चाहिए कि करोड़ों काशी और गंगा से प्राप्त पुण्य सज्जनों की चरण सेवा से मिल जाता है। जो साधुजनों की निन्दा करेगा वह नरक में जायेगा और अन्धा तथा लूला बन जायेगा अर्थात् अत्यधिक दुःख भोगेगा। मीरा कहती है कि मेरे स्वामी गिरधर नागर हैं और मेरे अंगों पर सन्तों की धूल लगी हुई है अर्थात मैं प्रभु कृष्ण की भक्ति करती हूँ और संतों की सेवा में रत रहती हूँ |
(10) राणा जी म्हाने या बदनामी लगे मीठी। कोई निन्दो कोई बिन्दो, मैं चलूंगी चाल अनूठी। साँकड़ली सेरया सद्गुरु मिलिया, क्यूँ कर फिरूँ अपूठी। संत संगति मा ग्यान सुणै छी, दुरजन लोगां नै दीठी। मीरां रो प्रभु गिरधर नागर दुरजन जलो जा अंगीठी।।
प्रसंग — प्रस्तुत काव्यांश कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय द्वारा बी ए द्वितीय सेमेस्टर के लिए निर्धारित हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में संकलित मीराबाई के पदों से अवतरित है | इन पंक्तियों में मीराबाई ने सद्गुरु और सत्संगति के प्रति अपने दृष्टिकोण को प्रकट किया है |
व्याख्या — मीराबाई कहती है – राणाजी, मुझे यह बदनामी बहुत मीठी लगती है। कोई चाहे मेरी बुराई करे, चाहे भलाई; मैं तो सबसे निराली चाल चलूँगी। पतली गली में सतगुरु मिल गए। फिर मैं क्यों अलग राह पर चलूँ। मैं सत्संगति में परम ज्ञान की बातें सुन रही थी मुझे ऐसा करते हुए बुरे लोगों ने देख लिया और वे मेरे विषय में गलत बातें कहने लगे | अंत में मीरा कहती है कि मीरा के प्रभु तो गिरधर नागर हैं। ये बुरे लोग जाकर अँगीठी में जलें। अर्थात मुझे उनके इस व्यवहार से कुछ लेना-देना नहीं, मैं उनकी परवाह नहीं करती |
(11) राणाजी थे कयाने राखो म्हासूं बैर। थे तो राणा जी म्हाने इसड़ा लागो ज्यो बच्छन में केर। महल अटारी हम सब त्यागो थारो बसनो सहर। काजल टीकी राणा हम सब त्यागा भगवीं चादर पहर। मीरां के प्रभु गिरधर नागर, इमरित कर दियो जहर।।
प्रसंग — प्रस्तुत काव्यांश कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय द्वारा बी ए द्वितीय सेमेस्टर के लिए निर्धारित हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में संकलित मीराबाई के पदों से अवतरित है | इन पंक्तियों में मीराबाई श्री कृष्ण के प्रति अपने अनन्य भक्ति-भाव को प्रकट करती है |
व्याख्या — मीराबाई कहती है – राणा जी तुम हमसे इतनी शत्रुता क्यों रखते हो | अपने प्रति तुम्हारे शत्रुतापूर्ण रवैये से तुम हमें ऐसे लगते हो जैसे कांटेदार वृक्ष हो | मैंने तुम्हारे महल, भव्य भवन और यहाँ तक की तुम्हारे शहर में रहना भी छोड़ दिया | काजल लगाना, बिंदी लगाना भी त्याग दिया | अब मैं भगवा चादर वस्त्र के रूप में पहनती हूँ | अर्थात सांसारिक मोहमाया को मैंने पूर्णत: त्याग दिया है | मेरे प्रभु तो गिरधर नागर श्री कृष्ण हैं जो विष को भी अमृत में परिवर्तित कर देते हैं | ( या जिन्होंने विष को भी अमृत में परिवर्तित कर दिया था | )
(12) माई महां गोबिंद गुण गाणाँ | राणा रूठयां नगरी त्यागां, हरि रूठयां कहँ जाणाँ | राणा भेज्या विषरो प्याला, चरणामृत पी जाणाँ | काला नाग पिटारयां भेज्या, सालगराम पीछाणा | मीरां तो अब प्रेम दिवांणी, सांवलिया वर पाणा ||
प्रसंग — प्रस्तुत काव्यांश कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय द्वारा बी ए द्वितीय सेमेस्टर के लिए निर्धारित हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में संकलित मीराबाई के पदों से अवतरित है | इन पंक्तियों में मीराबाई श्री कृष्ण के प्रति अपने अनन्य भक्ति-भाव को प्रकट करती है |
व्याख्या — मीरा अपनी सखी को संबोधित करती हुई कहती है कि हे सखी! मैं तो सदा प्रभु कृष्ण के गुणों का गान करूंगी | यदि राणा मुझसे नाराज हो जाएगा तो मुझे अपने नगर से निकलवा देगा किंतु यदि प्रभु मुझसे रूठ गए तो फिर मैं कहां जाऊंगी । अर्थात प्रभु के रूठने के पश्चात मेरा कोई ठौर- ठिकाना नहीं रहेगा | राणा ने मुझे मारने के लिए विष का प्याला भेजा था जिसे मैं चरणामृत समझ कर पी गई। यही नहीं राणा ने पिटारे में सर्प भी भेजा था ताकि वह मुझे डंस ले और मेरी जीवन-लीला समाप्त कर दे किंतु मुझे उसमें भी सालगराम (कृष्ण) का ही रूप दिखाई दिया | मीरा कहती है कि मैं प्रभु के प्रेम की दीवानी हूँ तथा मैंने सांवले कृष्ण को अपने पति रूप में प्राप्त कर लिया है।
(13) अखयां तरसां दरसण प्यासी। मग जोवां दिण बीतां सजणी, रैण पडया दुखरासी। डारा बैठया कोयल बोल्या, बोल सुण्या री गासी | कड़वा बोल लोक जग बोल्या करस्यां म्हारी हांसी | मीरां हरि रे हाथ बिकाणी, जणम जणम री दासी ||
प्रसंग — प्रस्तुत काव्यांश कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय द्वारा बी ए द्वितीय सेमेस्टर के लिए निर्धारित हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में संकलित मीराबाई के पदों से अवतरित है | इन पंक्तियों में मीराबाई श्री कृष्ण के प्रति अपने अनन्य भक्ति-भाव को प्रकट करती है |
व्याख्या — मीराबाई कहती है कि मेरी आँखें कृष्ण के दर्शनों की प्यासी हैं और निरंतर उनके दर्शनों के लिये तरसती रहती हैं | हे सखी ! उनका रास्ता देखते-देखते अर्थात उनकी प्रतीक्षा करते हुए मेरा दिन बीतता है और रात होते ही अत्यधिक दुःख ( दुखरासी – दु:खों का ढेर ) झेलने पड़ते हैं | रात को डाल पर बैठी कोयल जब बोलती है तो उसका बोल मुझे फंदे ( गासी — फंदा या बंधन ) के समान लगता है | इस प्रकार विरह-वेदना में तड़पते हुए देखकर इस संसार के लोग मुझे कड़वे बोल बोलते हैं और मेरी हंसी उड़ाते हैं | मीराबाई कहती है कि मैं तो प्रभु के हाथों बिक गई हूँ और उनकी जन्म-जन्मांतर की दासी हूँ |
(14) जोगी मतजा मतजा मतजा, पाइ पंरू मैं तेरी चेरी हौं | प्रेम भगति को पैड़ों न्यारा, हमकूँ गैल बता जा। अगर चंदन की चिता बणाऊं, अपने हाथ जला जा। जल बल भई भस्म की ढेरी, अपने अंग लगा जा। मीरां कहे प्रभु गिरधर नागर, जोत में जोत मिला जा ||
प्रसंग — प्रस्तुत काव्यांश कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय द्वारा बी ए द्वितीय सेमेस्टर के लिए निर्धारित हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में संकलित मीराबाई के पदों से अवतरित है | इन पंक्तियों में मीराबाई श्री कृष्ण के प्रति अपने अनन्य भक्ति-भाव को प्रकट करती है |
व्याख्या — मीरा श्री कृष्ण से प्रार्थना करते हुए कहती है कि हे योगीराज ! तुम मुझे छोड़कर मत जाओ । हे योगीराज ! मैं तुम्हारे पांव पड़ती हूँ, मैं तुम्हारी दासी हूँ। आप मुझे मत त्यागो | प्रेम-भक्ति का तो मार्ग ही अलग है, उसे समझना सरल नहीं है। हे कृष्ण मुझे वह प्रेम-मार्ग दिखला जा | मैं तुम्हारे विरह में जीना नहीं चाहती। मैं चंदन की लकड़ियों से अपनी चिता बना रही हूँ। तुम आकर अपने हाथों से उसे जला जाओ | जब मैं जलकर राख की ढेरी बन जाऊं तो तुम उस राख को अपने अंग से लगा लेना । मीराबाई कहती है कि हे गिरिधर नागर श्री कृष्ण! मेरी ज्योति को अपनी ज्योति में मिला ले।
(15) जावादे जावादे जोगी किसका मीत। सदा उदासी रहें मोरि सजनी, निपट अटपटी रीत। बोलत वचन मधुर से मानूं/ मीठे , जोरत नाहीं प्रीत। मैं जाणूं या पार निभैगी, छांड़ि चले अधबीच। मीरां रे प्रभु स्याम मनोहर प्रेम पियारा मीत।।
प्रसंग — प्रस्तुत काव्यांश कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय द्वारा बी ए द्वितीय सेमेस्टर के लिए निर्धारित हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में संकलित मीराबाई के पदों से अवतरित है | इन पंक्तियों में मीराबाई श्री कृष्ण के प्रति अपने अनन्य भक्ति-भाव को प्रकट करती है |
व्याख्या — मीराबाई कहती है कि हे सखी! जाने दो जोगी किसी के मीत नहीं होते | सखी ! वे सदा उदासीन रहते हैं अर्थात किसी के प्रेम बंधन में नहीं बंधते | उनकी रीति बड़ी अटपटी है यद्यपि वे सभी से मधुर वचन बोलते हैं, फिर भी किसी से प्रेम-संबंध स्थापित नहीं करते | मैं समझती थी कि मेरा उनका संबंध चिरस्थायी होगा परन्तु वे मुझे भवसागर के बीच में ही छोड़ कर चले गए | परन्तु फिर भी मीराबाई कहती है कि मनोहर श्याम अर्थात कृष्ण ही मेरे प्रभु हैं, वही मेरे प्रियतम हैं, वही मेरे मीत हैं |
(16) पतिया मैं कैसे लिखू, लिख्योरी न जाए। कलम धरत मेरो कर कंपत हैं नैन रहे झड़ लाय। बात कहूं तो कहत न आवै, जीव रह्यौ डरवाय। बिपत हमारी देख तुम चाले, कहिया हरिजी सूं जाय |मीरां के प्रभु गिरधर नागर, चरण ही कंवल रखाय ।।
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व्याख्या – मीराबाई कहती है कि मैं अपने प्रिय को पत्र कैसे लिखूं । मेरे द्वारा तो पत्र लिखा ही नहीं जाता | जब कभी मैं पत्र लिखने के लिए अपने हाथ में कलम पकड़ने का प्रयास करती हूँ तो मेरे हाथ कांपने लगते हैं। मेरी आंखों से आँसू झड़ने लगते हैं | जो बात मैं कहना चाहती हूँ, मुझसे कहते नहीं बनती अर्थात मैं अपने मन के भावों को शब्दों में अभिव्यक्त नहीं कर पाती | मेरा हृदय भयभीत हो उठता है। हे सखी / संदेशवाहक तुम मेरी विपत्ति देख ही चुके हो। अतः मेरा संदेश तुम प्रभु से जाकर कह देना | उनको यह संदेश देना कि गिरधर नागर श्री कृष्ण ही मेरे प्रभु हैं और उनके चरण कमलों में ही मेरी रक्षा हो सकती है |
(17) म्हारे घर होता आज्यो महाराज। नेण बिछास्यूं हिबड़ो डास्यूं, सर पर राख्यूं विराज । पांवडां म्हारो भाग संवारण, जगत उधारण काज। संकट मेट्या भगत जणारां, थाप्या पुन्न रा पाज। मीरां रे प्रभु गिरधर नागर, बांह गह्य री लाज ।।
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व्याख्या – मीरा अपने प्रभु कृष्ण से विनम्र प्रार्थना करती हुई कहती है कि हे महाराज ! तुम तनिक मेरे घर से होते हुए जाना | मैं तुम्हारे स्वागत में अपने नयन बिछा दूंगी तथा सदा तुम्हें अपने हृदय में रखूंगी | मैं आपको अपने सिर-माथे पर बिठाकर रखूंगी | हे प्रभु ! तुम तो इस संसार का उद्धार करने वाले हो | अतः तुम मेरे घर अतिथि बनकर आओ और मेरे भी भाग संवार दो अर्थात मेरा भी उद्धार कर दो । तुम तो सदा अपने भक्तों के संकटों को दूर करते हो तथा पुण्य की मर्यादा को स्थापित करते हो। मीरा गिरधर नागर को अपना प्रभु मानते हुए उनसे निवेदन करती है कि वह मेरी बांह पकड़कर मेरी लाज रख लें |
(18) म्हारै आज्यो जी रामां, थारे आवत आस्यां सामां। तुम मिलियां मैं बोही सुख पाऊं, सरे मनोरथ कामा। तुम बिच हम बिच अंतर नाहीं जैसे सूरज घामा | मीरां के मन अवर न माने चाहे सुन्दर स्यामां ।।
प्रसंग — प्रस्तुत काव्यांश कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय द्वारा बी ए द्वितीय सेमेस्टर के लिए निर्धारित हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में संकलित मीराबाई के पदों से अवतरित है | इन पंक्तियों में मीराबाई श्री कृष्ण के प्रति अपने अनन्य भक्ति-भाव को प्रकट करती है |
व्याख्या — मीराबाई कहती है कि हे राम ( प्रभु ) ! तुम हमारे पास आ जाओ क्योंकि तुम्हारे आने से मुझे शांति ( सामां – शांति ) मिलती है | आपके आने से मुझे बहुत सुख मिलता है, मेरे सारे मनोरथ और कामनाएं पूरी हो जाती हैं | हे प्रभु! तुम्हारे और मेरे बीच में कोई अंतर नहीं है अर्थात हम दोनों उसी प्रकार एक दूसरे से जुड़े हैं जैसे सूरज और धूप | मीराबाई कहती है कि मेरा मन और कुछ नहीं मानता, वह केवल श्याम-सुंदर को ही चाहता है |
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