सखी, वे मुझसे कहकर जाते ( मैथिलीशरण गुप्त )

सखि, वे मुझसे कहकर जाते, 
कह, तो क्या मुझको वे अपनी पथ-बाधा ही पाते ?

मुझको बहुत उन्होंने माना
फिर भी क्या पूरा पहचाना ?

मैंने मुख्य उसी को जाना
जो वे मन में लाते।

सखि, वे मुझसे कहकर जाते।

स्वंय सुसज्जित करके क्षण में,
प्रियतम को, प्राणों के पण में,
हमी भेज देती हैं रण में
क्षात्र-धर्म के नातें

सखि, वे मुझसे कहकर जाते।

हुआ न यह भी भाग्य अभागा,
किस पर विफल गर्व अब जागा?
जिसने अपनाया था, त्यागा,
रहे स्मरण वे आते।
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।

नयन उन्हें हैं निष्ठुर कहते,
पर इनसे जो आँसू बहते,
सदय हृदय वे कैसे सहते?
गये तरस ही खाते।
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।

जायें, सिद्धि पायें वे सुख से,
दुखी न हों इस जन के दुख से,
उपालम्भ दूँ मैं किस मुख से?
आज अधिक वे भाते!
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।

गये, लौट भी वे आवेंगे,
कुछ अपूर्व-अनुपम लावेंगे,
रोते प्राण उन्हें पावेंगे,
पर क्या गाते-गाते?
सखी, वे मुझसे कहकर जाते |

प्रसंग — प्रस्तुत काव्यांश कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय द्वारा निर्धारित बी ए प्रथम सेमेस्टर की हिंदी मेजर की पाठ्य-पुस्तक “हिंदी भाषा एवं आधुनिक कविता” में संकलित मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित कविता ‘सखी वे मुझसे कहकर जाते’ से अवतरित है | इन पंक्तियों में सिद्धार्थ के जाने के बाद उनकी पत्नी यशोधरा के मन की पीड़ा व अंतर्द्वन्द्व को अभिव्यक्त किया गया है |

व्याख्या — अपनी सखी को सम्बोधित करते हुए यशोधरा कहती है कि हे सखी! काश सिद्धार्थ मुझे बताकर इस पुनीत कार्य के लिए जाते | यदि वे ऐसा करते तो मैं कभी भी उनके मार्ग में बाधा न बनती बल्कि उन्हें सहर्ष विदा करती |

हे सखी, मैं यह स्वीकार करती हूँ कि उन्होंने मुझे सदैव मान-सम्मान दिया है, लेकिन वे मुझे पूर्णतः पहचान नहीं पाए | सच तो यह है कि मैंने सदैव उनके मन की बात को महत्त्व दिया है |

हे सखी, हम क्षत्राणियाँ क्षत्रिय धर्म की रक्षा हेतु स्वयं अपने हाथों से सुसज्जित करके अपने प्रियतम को युद्ध-क्षेत्र में प्राणों का दांव लगाने के लिए भेज देती हैं |

लेकिन हे सखी , मुझे इतना भी सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ कि मैं इस बात पर गर्व कर सकूँ कि मैंने स्वयं अपने हाथों से सुसज्जित करके अपने पति को मानव-सेवा हेतु भेज दिया | आज मुझ कोई ऐसी बात दिखाई नहीं देती जिस पर मैं गर्व कर सकूँ | जिसने अपनाया था उसी ने मुझे त्याग दिया | अब तो सखी यही इच्छा है कि वे निरंतर स्मरण आते रहें और अपने कार्य को सफलतापूर्वक सम्पन्न करें |

हे सखी, आज मेरे नयन उन्हें निष्ठुर कहते हैं कि वे बिना बताये मुझे छोड़कर चले गए परन्तु इन आँखों से जो आँसू बहते तो वे भला कैसे सह पाते? पूरी सम्भावना है कि इन आँखों से बहते आंसुओं को देखकर वे प्रस्थान ही न कर पाते | निश्चय ही वे मुझ पर तरस खाकर ही मुझे बिना बताये गए हैं |

हे सखी, अब मैं यही चाहती हूँ कि वे जहाँ भी जाएँ प्रसन्नता से रहें ; मेरे दुःख से व्यथित न हों | अब मैं उन्हें किस मुख से उपालम्भ दूँ | सच तो यह है कि वे अब मुझे पहले की अपेक्षा अधिक भाते हैं क्योंकि वे मानवता के दुखों को दूर करने के लिए गए हैं |

वे यदि गए हैं तो शीघ्र ही वापस भी लौट आएंगे और निश्चय ही कुछ अपूर्व व अनुपम लेकर आएंगे | लेकिन प्रश्न यह है कि उसके प्राण क्या गाते हुए उनका स्वागत कर पाएंगे? क्या मैं प्रसन्नता से उनका स्वागत कर पाउंगी | अब मुझे बस यही मलाल है कि वे मुझे कहकर नहीं गए |

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