‘नाख़ून क्यों बढ़ते हैं’ हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा रचित एक प्रसिद्ध ललित निबंध है | यह निबंध उनके निबंध संग्रह ‘कल्पलता’ में संकलित है जो 1951 में प्रकशित हुआ था |
‘नाखून क्यों बढ़ते हैं’ निबंध मनुष्य की मनुष्यता व उसमें निहित पशुता पर विचार करता है। लेखक के अनुसार नाखुनों का बढ़ना मनुष्य की पाशविक वृति का प्रतिक है और उन्हें काटना या न बढ़ने देना उसमें निहित मानवता का। आज से कुछ ही लाख वर्ष पहले मनुष्य जब वनमानुष की तरह जंगली था, उस समय नाखून ही उसके अस्त्र थे। आधुनिक मनुष्य ने अनेक विनाशकारी अस्त्र-शस्त्रों का निमार्ण कर लिया है। अतः नाखून बढ़ते हैं तो कोई बात नहीं, पर उन्हें काटना मनुष्यता की निशानी है। हमें चाहिए कि हम अपने भीतर रह गए पशुता के चिन्हों को त्याग दें और उसके स्थान पर मनुष्यता को अपनाएँ।
निबंध का सारांश व उद्देश्य
प्रस्तुत निबंध ‘नाखून क्यों बढ़ते हैं‘ में हजारी प्रसाद द्विवेदी ने नाखूनों के माध्यम से मनुष्य की आदिम बर्बर प्रवृति का वर्णन करते हुए उसे बर्बरता त्यागकर मानवीय गुणों को अपनाने का संदेश दिया है।
निबंध का आरम्भ छोटी बच्ची के एक प्रश्न से होता है | एक दिन लेखक की पुत्री ने प्रश्न पूछा कि नाखून क्यों बढ़ते हैं ? बालिका के इस प्रश्न से लेखक हतप्रभ हो गया । लेखक ने बताया कि आज से लाखों वर्ष पूर्व जब मनुष्य जंगलों में रहता था, तब उसे अपनी रक्षा के लिए हथियारों की आवश्यकता थी। इसके लिए मनुष्य ने अपनी नाखूनों को हथियार स्वरूप प्रयोग करने के लिए बढ़ाना शुरू किया, क्योंकि अपने प्रतिद्वन्द्वियों से जूझने के लिए नाखून ही उसके अस्त्र थे। इसके बाद पत्थर, पेड़ की डाल आदि का प्रयोग हथियारों के रूप में होने लगा। इस प्रकार जैसे-जैसे मानव सभ्यता का विकास होता गया, मनुष्य अपने हथियारों में भी विकास करने लगा।
उसे इस बात पर हैरानी होती है कि आज मनुष्य नाखून न काटने पर अपने बच्चों को डाँटता है, शायद लाखों साल पहले वह अपने बच्चों को नाख़ून काटने पर डांटता होगा |
प्रकृति फिर नाख़ून बढ़ा देती है लेकिन मनुष्य को अब इससे कई गुना शक्तिशाली अस्त्र-शस्त्र मिल चूके हैं, इसी कारण मनुष्य अब नाखून नहीं चाहता है। वह उन्हें बार-बार काटता है |
लेखक सोचता है कि मनुष्य किस ओर बढ़ रहा है ? एक और तो वह नाखून काटता है जिससे लगता है कि वह पशुता को नष्ट करना चाहता है और मानवता को अपनाना चाहता है लेकिन दूसरी तरफ वह खतरनाक अस्त्र-शस्त्र इकट्ठे कर रहा है जिससे लगता है कि आज भी उसके अंदर का पशु जिंदा है और पहले से कहीं अधिक भयानक होता जा रहा है |
लेखक कई उदाहरण देता है | लेखक इंडिपेंडेंस शब्द का उदाहरण देते हुए कहता है कि हिंदी में इसका अर्थ है – स्वाधीनता | जबकि इंडिपेंडेंस शब्द का अर्थ होना चाहिए – अनधीनता अर्थात अधीनता से मुक्ति | लेकिन भारत में इंडिपेंडेंस के लिए स्वाधीनता, स्वतंत्रता जैसे शब्दों का प्रयोग किया जाता है जिनका अर्थ होता है – अपने अधीन रहना | इस प्रकार भारतीय संस्कृति में आरंभ से यह तत्व रहा है कि हम अधीनता से मुक्त होते हुए भी अपनी अंतरात्मा के नियंत्रण में रहें जो हमारे अंदर की पशुता को नियंत्रित करे |
यह सच है कि आज परिस्थितियाँ बदल गई हैं। उपकरण नए हो गए हैं, उलझनों की मात्रा भी बढ़ गई । इसलिए हमें भी नएपन को अपनाना चाहिए। लेकिन इसके साथ हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि नये की खोज में हम अपना सर्वस्व न खो दें। क्योंकि कालिदास ने कहा है कि ‘सब पुराने अच्छे नहीं होते और सब नए खराब नहीं होते।‘ अतएव दोनों को जाँचकर जो हितकर हो उसे ही स्वीकार करना चाहिए।
मनुष्य किस बात में पशु से भिन्न है और किस बात में एक ? आहार-निद्रा आदि की दृष्टि से मनुष्य तथा पशु में समानता है, फिर भी मनुष्य पशु से भिन्न है। मनुष्य में संयम, श्रद्धा, त्याग, तपस्या तथा दूसरे के सुख-दुःख के प्रति संवेदना का भाव है जो पशु में नहीं है। मनुष्य लड़ाई-झगड़े को अपना आर्दश नहीं मानता है। वह क्रोधी एवं अविवेकी को बुरा समझता है।
लेखक कहता है कि समय-समय पर भारत में विभिन्न जातियों व विभिन्न धर्मो के लोग आए जिनकी सोच पूरी तरह से एक दूसरे से अलग थी | अभी आपस में लंबे समय तक लड़के झगड़ते रहे लेकिन अंत में आपस में मिलजुल का रहने लगे | क्योंकि सभी धर्म से अलग एक सामान्य धर्म होता है जिसे स्वधर्म या मानव धर्म कहा जा सकता है जो सभी को एकता के सूत्र में बाँधता है |
लेखक महात्मा गांधी का उदाहरण देते हुए कहता है कि गांधी जी ने सत्य और अहिंसा की बात की | उन्होंने कहा कि सभी को अपने द्वेष त्याग कर एक दूसरे से मिलकर रहना चाहिए | लाखों लोगों ने उसे वृद्ध की बात को अपनाया क्योंकि उन लाखों लोगों के सीने में नाखून को नए बढ़ने देने वाले मानव का निवास था वहीं ऐसे लोग भी थे जो आज भी नाखूनों को बढ़ने देना चाहते थे उनमें से ही एक ने उस वृद्ध की हत्या कर दी |
अस्त्र-शास्त्र के दम पर एक महाशक्ति के रूप में उभरना सफलता तो हो सकती है लेकिन चरितार्थता नहीं | मानव की चरितार्थता नाखूनों को काटने अर्थात अपनी सारी विध्वंसक प्रवृत्तियों को छोड़ देने में है |
निबंध के अंत में लेखक एक आशा व्यक्त करता है | लेखक कहता है कि प्राणी विज्ञान के अनुसार जिस अंग का प्रयोग कम किया जाता है वह अंग धीरे-धीरे लुप्त हो जाता है | जैसे मानव की पूँछ गायब हो गई ठीक वैसे ही एक दिन उसके नाखून भी गायब हो जाएंगे |