रघुवीर सहाय का साहित्यिक परिचय

जीवन परिचय

रघुवीर सहाय का जन्म 9 दिसंबर 1929 को लखनऊ, उत्तर प्रदेश में एक मध्यवर्गीय परिवार में हुआ। उनके पिता हरदेव सहाय साहित्य के अध्यापक थे जिससे उन्हें साहित्यिक माहौल प्राप्त हुआ। उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य में एम.ए. किया और 1946 से लेखन शुरू किया। सहाय पत्रकारिता में भी सक्रिय रहे, ‘नवजीवन’, ‘प्रतीक’, ‘आकाशवाणी’, ‘नवभारत टाइम्स’, और ‘दिनमान’ (1969-1982 तक प्रधान संपादक) जैसे प्रतिष्ठित मंचों से जुड़े। ‘दूसरा सप्तक’ (1951) के प्रमुख कवि के रूप में वे प्रयोगवादी कविता के प्रणेता रहे। 1984 में उन्हें काव्य संग्रह ‘लोग भूल गए हैं’ के लिए साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया । 30 दिसंबर 1990 को दिल्ली में उनका निधन हुआ।

प्रमुख रचनाएँ

रघुवीर सहाय ने कविता, कहानी, निबंध, आलोचना और अनुवाद जैसे विविध क्षेत्रों में योगदान दिया। उनकी प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं:

काव्य संग्रह

सीढ़ियों पर धूप में – 1960

आत्महत्या के विरुद्ध – 1967

हँसो हँसो जल्दी हँसो – 1975

लोग भूल गए हैं – 1982

कुछ पते कुछ चिट्ठियाँ – 1989

गद्य रचनाएँ

टोपी शुक्ला (उपन्यास) – 1969

दिल्ली में एक मौत (कहानी संग्रह) – 1974

लिखत पढ़त (निबंध संग्रह) – 1983

अनुवाद

बारह हंगरी कहानियाँ (हंगरी कहानियों का अनुवाद) – 1963

वरनम वन (शेक्सपियर के ‘मैकबेथ’ का अनुवाद) – 1972

राख और हीरे (येर्ज़ी आन्द्र्ज़ेएव्स्की के उपन्यास का अनुवाद) – 1980

साहित्यिक विशेषताएँ

उनके साहित्य की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं :

(1) सामाजिक यथार्थवाद: सहाय का साहित्य सामाजिक यथार्थ को तीक्ष्णता से चित्रित करता है, जिसमें गरीबी, शोषण और सामाजिक असमानता जैसे मुद्दे प्रमुख हैं। उनकी कविताएँ और कहानियाँ समाज के हाशिए पर रहने वाले लोगों की आवाज बनती हैं। वे स्वतंत्रता के बाद के भारत में नव-उपनिवेशवाद और पूँजीवादी व्यवस्था की आलोचना करते हैं। उनकी रचनाएँ समाज की सतह के नीचे छिपी सच्चाइयों को उजागर करती हैं। उदाहरण के लिए, कविता “हँसो हँसो जल्दी हँसो” में वे सामाजिक और राजनीतिक भ्रष्टाचार पर व्यंग्य करते हैं —

“निर्धन जनता का शोषण है कहकर आप हँसे / लोकतंत्र का अंतिम क्षण है कहकर आप हँसे”।

(2 ) राजनीतिक चेतना: सहाय की रचनाओं में राजनीतिक चेतना का गहरा प्रभाव दिखता है, जो सत्ता, भ्रष्टाचार और लोकतंत्र की विफलताओं पर सवाल उठाती है। उनकी कविताएँ और निबंध सत्ता के दुरुपयोग और जनता के साथ होने वाले विश्वासघात को उजागर करते हैं। वे पत्रकारिता की तरह तथ्यों को प्रस्तुत करते हैं, लेकिन काव्य की संवेदनशीलता के साथ। उनकी रचनाएँ पाठकों को राजनीतिक जागरूकता की ओर प्रेरित करती हैं। उदाहरण के लिए कविता “वह कौन था” में वे एक मंत्री और आम आदमी के बीच की दूरी को दर्शाते हैं — “मुझे देखते ही बोला—अच्छे हो! / मैंने कहा—हुजूर ने पहचाना!”

(3) जनवादी दृष्टिकोण: सहाय का साहित्य जनवादी चेतना से ओतप्रोत है, जो समाज के दबे-कुचले वर्गों के हितों को प्राथमिकता देता है। उनकी रचनाएँ श्रमिक, किसान और आम जनता के संघर्षों को केंद्र में रखती हैं। वे व्यक्तिगत स्वार्थों से ऊपर उठकर सामूहिक हितों की बात करते हैं। उनकी रचनाएँ सामाजिक बदलाव की आवश्यकता पर बल देती हैं। उदाहरण के लिए उनकी कविता “लोग भूल गए हैं” में वे सामूहिक स्मृति और सामाजिक जिम्मेदारी की बात करते हैं — “लोग भूल गए हैं कि वे लोग हैं”।

(4) व्यंग्य और विडंबना: सहाय की रचनाओं में तीखा व्यंग्य और सामाजिक विडंबनाओं का चित्रण उनकी खास विशेषता है। वे समाज और सत्ता की कमियों को हास्य और कटाक्ष के माध्यम से उजागर करते हैं। उनकी भाषा में पत्रकारीय तेवर होने के कारण व्यंग्य और भी प्रभावी हो जाता है। उनकी कविताएँ और निबंध पाठक को हँसाते हुए गंभीरता से सोचने पर मजबूर करते हैं। उदाहरण के लिए, कविता “हँसो हँसो जल्दी हँसो” में वे सामाजिक पाखंड पर कटाक्ष करते हैं।

(5) मानवीय संवेदनशीलता: सहाय का साहित्य मानवीय संवेदनाओं से भरा है, जो व्यक्तिगत और सामूहिक पीड़ा को गहराई से दर्शाता है। उनकी रचनाएँ मानवता और करुणा के मूल्यों को रेखांकित करती हैं। वे सामाजिक मुद्दों को व्यक्तिगत अनुभवों के साथ जोड़कर पाठक से भावनात्मक जुड़ाव बनाते हैं। उनकी कहानियाँ और कविताएँ मानवीय रिश्तों की जटिलताओं को भी उजागर करती हैं। उदाहरण के लिए उनकी कहानी “तट की खोज” में मानवीय संबंधों और सामाजिक दबावों का संवेदनशील चित्रण है।

(6) स्त्री विमर्श: सहाय ने अपने साहित्य में स्त्री की स्थिति और उनके संघर्षों को भी स्थान दिया, जो उस समय के साहित्य में कम देखने को मिलता था। उनकी रचनाएँ स्त्री शोषण और पितृसत्तात्मक व्यवस्था की आलोचना करती हैं। वे स्त्रियों की सामाजिक और मनोवैज्ञानिक पीड़ा को संवेदनशीलता से प्रस्तुत करते हैं। उनकी रचनाएँ स्त्री मुक्ति के विचार को प्रोत्साहित करती हैं। उदाहरण के लिए, उनकी कुछ कविताएँ और कहानियाँ स्त्री के सामाजिक स्थान को रेखांकित करती हैं, जैसे “दिल्ली में एक मौत” में स्त्री की सामाजिक स्थिति का चित्रण।

(7) आधुनिकता और समकालीनता: सहाय का साहित्य आधुनिक भारत के बदलते परिदृश्य को दर्शाता है, जिसमें शहरीकरण, औद्योगीकरण और तकनीकी प्रगति के प्रभाव शामिल हैं। उनकी रचनाएँ समकालीन मुद्दों को उठाती हैं, जो आज भी प्रासंगिक हैं। वे परंपरा और आधुनिकता के बीच संतुलन बनाते हैं। उनकी रचनाएँ समय के साथ बदलते सामाजिक मूल्यों को भी दर्शाती हैं। उदाहरण के लिए, उनकी कविता “आत्मकथा” में वे आधुनिक जीवन की जटिलताओं को व्यक्त करते हैं।

(8) कला पक्ष : रघुवीर सहाय जी की भाषा सरल, सहज, स्वाभाविक एवं विषयानुकूल है | उनकी भाषा में तत्सम, तद्भव, देशज, विदेशज आदि सभी प्रकार के शब्द मिलते हैं | मुहावरों एवं लोकोक्तियां के प्रयोग से उनकी भाषा सशक्त बन गई है | बिम्ब-योजना एवं प्रतीकों एवं का प्रयोग उनकी भाषा को प्रभावशाली बनाता है | उनके काव्य में शब्दालंकार व अर्थालंकार दोनों प्रकार के अलंकारों का सफल प्रयोग हुआ है | उनकी भाषा का एक उदाहरण देखिये :

हँसो, हँसो जल्दी हँसो
यह जो कुछ है, वह खो जाएगा।
यह जो कुछ है, वह टूटेगा,
और उसका मलबा बह जाएगा।

उनकी भाषा में व्यंग्य, करुणा और यथार्थ का अद्भुत समन्वय दिखाई देता है |

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