जीवन परिचय
सुमित्रानंदन पंत (20 मई 1900 – 28 दिसंबर 1977) हिंदी साहित्य के प्रमुख कवियों में से एक थे | पंत जी छायावादी युग के चार स्तंभों में गिने जाते हैं। उनका जन्म अल्मोड़ा, उत्तराखंड के कौसानी गाँव में हुआ था। बचपन में ही माता के निधन के बाद उनका लालन-पालन दादी ने किया। उन्होंने प्रकृति और सौंदर्य को कविताओं में खूबसूरती से उतारा, जिसके कारण उन्हें “प्रकृति का सुकुमार कवि” कहा जाता है। उनकी प्रमुख रचनाओं में वीणा, ग्रंथि, पल्लव और युगांत शामिल हैं। 1968 में चिदंबरा काव्य संग्रह पर उन्हें भारत के सर्वोच्च साहित्यिक सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार से नवाजा गया। वे जीवन भर साहित्य-साधना में रत रहे | 28 दिसंबर 1977 को इलाहाबाद में उनका निधन हो गया।
प्रमुख रचनाएँ
सुमित्रानंदन पंत की प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं:
(1) वीणा (1927) – उनका पहला काव्य संग्रह।
(2) ग्रंथि (1928) – छायावादी शैली की कविताएँ।
(3) पल्लव (1928) – प्रकृति और सौंदर्य पर आधारित कविताएँ।
(4) युगांत (1937) – सामाजिक चेतना से युक्त रचनाएँ।
(5) ग्राम्या (1940) – ग्रामीण जीवन पर केंद्रित काव्य।
(6) स्वर्णकिरण (1947) – आशावाद और प्रकाश के भाव।
(7) स्वर्णधूलि (1947) – प्रगतिशील विचारधारा से प्रभावित।
(8) युगपथ (1948) – नवीन भावबोध की कविताएँ।
(9) उत्तरा (1949) – दार्शनिक और आध्यात्मिक चिंतन।
(10) चिदंबरा (1958) – इसके लिए उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार (1968) मिला।
(11) कला और बूढ़ा चाँद (1960) – गद्य और पद्य मिश्रित रचना। इसके लिये पंत जी को 1960 में साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला |
(12) लोकायतन (1964) – महाकाव्यात्मक शैली में रचना।
साहित्यिक विशेषताएँ
सुमित्रानंदन पंत हिंदी साहित्य के छायावादी युग के प्रमुख कवि हैं, जिनकी रचनाएँ प्रकृति, प्रेम, आध्यात्मिकता और मानवीय संवेदनाओं को गहराई से व्यक्त करती हैं। उनकी काव्य शैली में लालित्य, भावनाओं की सूक्ष्म अभिव्यंजना और चित्रात्मकता की विशेषता है। उनके साहित्य की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं :
(1) प्रकृति वर्णन — सुमित्रानंदन पंत की कविताएँ प्रकृति के सौंदर्य और उसकी सूक्ष्मता को चित्रित करती हैं। वे प्रकृति को केवल दृश्य नहीं, बल्कि भावनाओं और आध्यात्मिकता का स्रोत मानते थे। उनकी रचनाओं में पहाड़, नदियाँ, वन और आकाश जीवंत रूप में उभरते हैं। पंत ने प्रकृति को मानव जीवन के सुख-दुःख से जोड़ा, जिससे उनकी कविताएँ गहरी संवेदना से भरी हैं। उनकी भाषा में चित्रात्मकता और लयबद्धता प्रकृति के सौंदर्य को और निखारती है। उनकी कविता “पर्वत प्रदेश में पावस” इसका उत्कृष्ट उदाहरण है।
“नील गगन पर मेघ ठहरते,
जैसे पर्वत पर शिखर धरे।
वन में झरने झर-झर बहते,
जैसे सितारों के स्वर झरे।”
(2) छायावादी स्वर —पंत छायावाद के प्रमुख कवि हैं, और छायावाद के अनुरूप उनकी कविताओं में भावनाओं की सूक्ष्मता और आत्माभिव्यक्ति की गहराई दिखती है। वे व्यक्तिगत भावनाओं को प्रकृति और ब्रह्मांड से जोड़कर प्रस्तुत करते हैं। उनकी कविताएँ प्रेम, विरह और आत्मिक खोज को संवेदनशीलता से व्यक्त करती हैं। पंत की भाषा में कोमलता और लय है, जो पाठक के मन को छूती है। उनकी कविता “नौका-विहार” में प्रेम और प्रकृति का ऐसा ही मिश्रण देखने को मिलता है।
“नौका चली, चली जल पर,
लहरों के संग-संग थिरक।
मन में उठे तरंग अपार,
प्रेम का वह अनघट चिरक।”
(3) आध्यात्मिकता व दार्शनिकता — पंत की कविताओं में आध्यात्मिकता और दार्शनिकता का गहरा प्रभाव है। उन्होंने प्रकृति और मानव जीवन के माध्यम से ईश्वर और आत्मा की खोज की। उनकी रचनाएँ जीवन के अर्थ और उसकी सार्थकता पर विचार करती हैं। विशेषत: उनकी बाद की रचनाओं में आध्यात्मिकता अधिक स्पष्ट हुई। उनकी कविता “भारती बनो” में मानवता और आध्यात्मिकता का सुंदर चित्रण है।
“भारती बनो, बनो तुम आत्मा,
जो बंधन तोड़े, जो मुक्त करे।
मन के गहन में ज्योति जलाओ,
जो सत्य का पथ उज्ज्वल करे।”
(4) प्रेम निरूपण — पंत की कविताओं में प्रेम को बहुत ही कोमल और सूक्ष्म रूप में प्रस्तुत किया गया है। उनका प्रेम केवल शारीरिक नहीं, बल्कि आत्मिक और आध्यात्मिक स्तर का है। वे प्रेम को प्रकृति के साथ जोड़कर उसकी गहराई को दर्शाते हैं। उनकी कविताएँ प्रेम की उदात्त भावनाओं को व्यक्त करती हैं। कविता “प्रथम रश्मि” में प्रेम का ऐसा ही सूक्ष्म चित्रण है।
“प्रथम रश्मि सी तुम आईं,
मन के तम में ज्योति जली।
प्रेम की लहर हृदय में उठी,
जीवन की सारी थकन गली।”
(5) सामाजिकता व प्रगतिशीलता — पंत की बाद की रचनाओं में सामाजिक चेतना और प्रगतिशीलता का समावेश हुआ। उन्होंने समाज की कुरीतियों, असमानता और मानवता के मुद्दों पर लिखा। उनकी कविताएँ समाज को बेहतर बनाने की प्रेरणा देती हैं। उनकी कविता “ग्राम्या” में ग्रामीण जीवन और उसकी चुनौतियों का चित्रण है। पंत ने अपनी कविताओं के माध्यम से सामाजिक सुधार का संदेश दिया। उनके काव्य की यह विशेषता उन्हें प्रासंगिक बनाती है।
“ग्राम्या, तुम जीवन की साँस,
खेतों में बिखरा तेरा रूप।
मेहनत की रोटी, पसीने का स्वाद,
तुझमें बस्ता है सत्य का कूप।”
(6) भाषा एवं कला पक्ष — सुमित्रानंदन पंत जी की भाषा सरल, सहज, स्वाभाविक एवं विषयानुकूल है | उनकी भाषा में तत्सम, तद्भव, देशज, विदेशज आदि सभी प्रकार के शब्द मिलते हैं | मुहावरों एवं लोकोक्तियां के प्रयोग से उनकी भाषा सशक्त बन गई है | बिम्ब-योजना एवं प्रतीकों का प्रयोग उनकी भाषा को प्रभावशाली बनाता है |
सुमित्रानंदन पंत की कविता “ग्रामश्री” भी उनकी सरल, सजीव और आकर्षक भाषा का सुंदर उदाहरण है। इसमें ग्रामीण जीवन की सुंदरता को सहज भाषा में प्रस्तुत किया गया है। एक उदाहरण देखिये —
“हरियाली खेतों की,
लहराता स्नेहिल धन,
माटी की ममता में
बसा सजीव चंदन।”
यहाँ “हरियाली खेतों की”, “माटी की ममता” जैसे शब्दचित्र बहुत सरल हैं, लेकिन गहराई से भारतीय ग्राम्य जीवन को सजीव कर देते हैं। पंत की यही विशेषता थी कि वे भावों को गूढ़ बनाए बिना भी सुंदरता रच देते थे।
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