(1)
जीवन कितना ? अति लघु क्षण,
ये शलभ पुंज-से-कण-कण,
तृष्णा वह अनलशिखा बन
दिखलाती रक्तिम यौवन ।
जलने की क्यों न उठे उमंग ?
है ऊँचा आज मगध शिर
पदतल में विजित पड़ा,
दूरांगत क्रन्दन ध्वनि फिर,
क्यों गूँज रही हैं अस्थिर
कर विजयी का अभिमान भंग ?
(2)
इन प्यासी तलवारों से,
इन पैनी धारों से,
निर्दयता की मारों से,
उन हिंसक हुंकारों से,
नत मस्तक आज हुआ कलिंग।
यह सुख कैसा शासन का ?
शासन रे मानव मन का !
गिरि भार बना-सा तिनका,
यह घटाटोप दो दिन का
फिर रवि शशि किरणों का प्रसंग !
(3)
यह महादम्भ का दानव
पीकर अनंग का आसव
कर चुका महा भीषण रव,
सुख दे प्राणी को मानव
तज विजय पराजय का कुढंग।
संकेत कौन दिखलाती,
मुकुटों को सहज गिराती,
जयमाला सूखी जाती,
नश्वर गीत सुनाती,
तब नहीं थिरकते हैं तुरंग |
(4)
वैभव की यह मधुशाला,
जग पागल होने वाला,
अब गिरा-उठा मतवाला,
प्याले में फिर भी हाला,
यह क्षणिक चल रहा राग-रंग |
(5)
काली-काली अलकों में,
आलस मद-नत पलकों में,
मणि मुक्ता की झलकों में,
सुख की प्यासी ललकों में,
देखा क्षण भंगूर है तरंग |
(6)
फिर निर्जन उत्सव शाला,
नीरव नुपूर श्लथ माला,
सो जाती है मधुबाला,
सूखा लुढ़का है प्याला,
बजती वीणा न यहाँ मृदंग |
(7)
इस नील विषाद गगन में
सुख चपला-सा दुःख घन में,
चिर विरह नवीन मिलन में,
इस मरू-मरीचिका-वन में
उलझा है चंचल मन कुरंग |
(8)
आँसू कन-कन ले छल-छल
सरिता भर रही दंगचल;
सब अपने में हैं चंचल ;
छूटे जाते सूने पल,
खाली न काल का है निषँग |
(9)
वेदना विकल यह चेतन,
जड़ का पीड़ा से नर्तन,
लय सीमा में यह कंपन,
अभिनयमय है परिवर्तन,
चल रही यही कब से कुढंग |
(10)
करुणा गाथा गाती है,
यह वायु बही जाती है,
ऊषा उदास आती है,
मुख पीला ले जाती है,
वन मधु पिंगल संध्या सुरंग |
(11)
आलोक किरन हैं आती,
रेशमी डोर खिंच जाती,
दुग पतली, कुछ नच पाती,
फिर तम घट में छिप जाती,
कलरव कर सो जाते विहंग |
(12)
जब पल भर का है मिलना,
फिर चिर वियोग में झिलना,
एक ही प्राप्त है खिलना,
फिर सूख धूल में मिलना,
तब क्यों चटकीला सुमन रंग |
(13)
संसृति के विश्व तट पर रे!
यह चलती है डगमग रे!
अनुलेप सदृश तू लग रे!
मृदु दल बिखेर इस मग रे!
कर चुके मधुर मधुपान भृंग |
(14)
भुनती वसुधा, तपते नग,
दुःखिया है सारा अग जग,
कटक मिलते हैं प्रति पग,
जलती सिकता जा यह मग,
बह जा बन करुणा की तरंग,
जलता है यह जीवन-पतंग |