आने वालों से एक सवाल ( Aane Valon Se Ek Sawal ) : भारत भूषण अग्रवाल

तुम, जो आज से पूरे सौ वर्ष बाद मेरी कविताएं पढ़ोगे तुम, मेरी धरती की नयी पौध के फूल तुम, जिनके लिए मेरा तन-मन खाद बनेगा तुम, जब मेरी इन रचनाओं को पढ़ोगे तो तुम्हें कैसा लगेगा : इस का मेरे मन में बड़ा कौतूहल है | (1) बचपन में तुम्हें हिटलर और गांधी की … Read more

अरण्यानी से वापसी ( Aranyani Se Vapasi ) : नरेश मेहता

मेरी अरण्यानी ! मुझे यहाँ से वापस अपनी धरती अपनी शाश्वती के पास लौटना ही होगा ! ताकि मैं – मात्र एक व्यक्ति केवल एक कवि ने रहकर अपने समय की सबसे बड़ी घटना बन सकूँ – एक कविता ! कविता – जब केवल विचार होती है तब वह सत्य का साक्षात, तब वह आत्म-उपनिषद … Read more

मंत्र-गंध और भाषा ( Mantra Gandh Aur Bhasha ) : नरेश मेहता

कौन विश्वास करेगा फूल भी मंत्र होता है? मैं अपने चारों ओर एक भाषा का अनुभव करता हूँ जो ग्रंथों में नहीं होती पर जिसमें फूलों की-सी गंध और बिल्वपत्र की-सी पवित्रता है इसीलिए मंत्र केवल ग्रंथों में ही नहीं होते | (1) प्रसंग — प्रस्तुत पंक्तियाँ हिंदी की पाठ्य-पुस्तक ‘समकालीन हिंदी कविता’ में संकलित … Read more

विप्रलब्धा ( Vipralabdha ) : डॉ धर्मवीर भारती

बुझी हुई राख, टूटे हुए गीत, डूबे हुए चांद, रीते हुए पात्र, बीते हुए क्षण-सा – मेरा यह जिस्म कल तक जो जादू था, सूरज था, वेग था तुम्हारे आश्लेष में आज वह जूड़े से गिरे हुए बेले-सा टूटा है, म्लान है | दुगना सुनसान है बीते हुए उत्सव-सा, उठे हुए मेले-सा | (1) मेरा … Read more

थके हुए कलाकार से ( Thake Hue Kalakar Se ) : डॉ धर्मवीर भारती

सृजन की थकन भूल जा देवता ! अभी तो पड़ी है धरा अधबनी अभी तो पलक में नहीं खिल सकी नवल कल्पना की मधुर चाँदनी अभी अधखिली ज्योत्सना की कली नहीं जिंदगी की सुरभि में सनी – अभी तो पड़ी है धरा अधबनी, अधूरी धरा पर नहीं है कहीं अभी स्वर्ग की नींव का भी … Read more

गुलाम बनाने वाले ( Gulam Banane Vale ) : डॉ धर्मवीर भारती

और भी पहले वे कई बार आये हैं एक बार जब उनके हाथों में भाले थे घोड़ों की टापों से खैबर की चट्टानें काँपी थी एक बार जब भालों के बजाय उनके हाथों में तिजारती परवाने थे बगल में संगीने थी | (1) लेकिन इस बार और चुपके से आए हैं | आधे हैं, जिनके … Read more

बोआई का गीत ( Boai Ka Geet ) : डॉ धर्मवीर भारती

गोरी-गोरी सोंधी धरती कारे-कारे बीज बदरा पानी दे ! क्यारी-क्यारी गूंज उठा संगीत बोने वालो ! नई फसल में बोओगे क्या? बदरा पानी दे ! (1) मैं बोऊँगा वीरबहूटी, इंद्रधनुष सतरंग नये सितारे, नयी पीढ़ियाँ, नये धान का रंग हम बोयेंगे हरी चुनरियां , कजरी, मेहंदी – राखी के कुछ सूत और सावन की पहली … Read more

फूल, मोमबत्तियां, सपने ( Fool, Mombattiyan, Sapne ) : डॉ धर्मवीर भारती

यह फूल, मोमबत्तियां और टूटे सपने ये पागल क्षण, यह काम-काज दफ्तर-फाइल, उचाट-सा जी भत्ता वेतन ! ये सब सच है ! इनमें से रत्ती भर न किसी से कोई कम, अंधी गलियों में पथभ्रष्टों के गलत कदम या चंदा की छाया में भर -भर आने वाली आंखें नम, बच्चों की-सी दूधिया हँसी या मन … Read more

फागुन की शाम ( Fagun Ki Sham ) : डॉ धर्मवीर भारती

घाट के रस्ते उस बँसवट से इक पीली सी चिड़िया उसका कुछ अच्छा-सा नाम है ! मुझे पुकारे ! ताना मारे, भर आयें आँखड़ियाँ ! उन्मन, ये फागुन की शाम है ! (1) घाट की सीढ़ी तोड़-फोड़ कर बन-तुलसा उग आयीं झुरमुट से छन जल पर पड़ती सूरज की परछाईं तोतापंखी किरनों में हिलती बांसों … Read more

रथ का टूटा पहिया ( Rath Ka Tuta Pahiya ) : डॉ धर्मवीर भारती

मैं रथ का टूटा हुआ पहिया हूँ | लेकिन मुझे फेंको मत | क्या जाने कब इस दुरूह चक्रव्यूह में अक्षौहिणी सेनाओं को चुनौती देता हुआ कोई दुस्साहसी अभिमन्यु आकर घिर जाये | अपने पक्ष को असत्य जानते हुए भी बड़े-बड़े महारथी अकेली निहत्थी आवाज को अपने ब्रह्मास्त्रों से कुचल देना चाहे तब मैं रथ … Read more

सूनी सी सांझ एक ( Sooni Si Sanjh Ek ) : अज्ञेय

सूनी सी सांझ एक दबे पांव मेरे कमरे में आई थी | मुझको भी वहां देख थोड़ा सकुचाई थी | तभी मेरे मन में यह बात आई थी कि ठीक है, यह अच्छी है, उदास है, पर सच्ची है : इसी की साँवली छाँव में कुछ देर रहूँगा इसी की साँस की लहर पर बहूँगा … Read more

हमारा देश ( Hamara Desh ) : अज्ञेय

इन्हीं तृण-फूस छप्पर से ढँके ढुलमुल गँवारू झोपड़ों में ही हमारा देश बसता है | इन्हीं के ढोल-मादल बांसुरी के उमगते स्वर में हमारी साधना का रस बरसता है | इन्हीं के मर्म को अनजान शहरों की ढँकी लोलुप विषैली वासना का सांप डँसता है | इन्हीं में लहरती अल्हड़ अयानी संस्कृती की दुर्दशा पर … Read more

नदी के द्वीप ( Nadi Ke Dvip ) : अज्ञेय

हम नदी के द्वीप हैं हम नहीं कहते कि हमको छोड़कर स्रोतस्विनी बह जाय | वह हमें आकार देती है | हमारे कोण, गलियां, अंतरीप, उभार, सैकत कूल, सब गोलाइयाँ उसकी गढ़ी हैं | माँ है वह | है, इसी से हम बने हैं | (1) प्रसंग — प्रस्तुत काव्यांश हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘समकालीन … Read more

कितनी नावों में कितनी बार ( Kitni Navon Mein Kitni Bar ) : अज्ञेय

कितनी दूरियों से कितनी बार कितनी डगमग नावों में बैठकर मैं तुम्हारीओर आया हूँ ओ मेरी छोटी-सी ज्योति ! कभी कुहासे में तुम्हें न देखता भी पर कुहासे की ही छोटी सी रुपहली झलमल में पहचानता हुआ तुम्हारा ही प्रभा-मंडल | कितनी बार मैं, धीर, आश्वस्त अक्लांत ओ मेरे अनबुझे सत्य ! कितनी बार…… (1) … Read more

यह दीप अकेला ( Yah Deep Akela ) : अज्ञेय

यह दीप, अकेला, स्नेह भरा है गर्व-भरा मदमाता, पर इसको भी पंक्ति को दे दो | यह जन है : गाता गीत जिन्हें फिर और कौन गायेगा? पनडुब्बा : यह मोती सच्चे फिर कौन कृती लायेगा? यह समिधा : ऐसी आग हठीली बिरला सुलगायेगा | यह अद्वितीय : यह मेरा, यह मैं स्वयं विसर्जित : … Read more

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