वे मुस्काते फूल नहीं ( Ve Muskate Fool Nahin ) : महादेवी वर्मा

वे मुस्काते फूल नहीं – जिनको आता है मुरझाना, वे तारों के दीप नहीं – जिनको भाता है बुझ जाना ; (1) वे नीलम के मेघ नहीं – जिनको है घुल जाने की चाह, वह अनंत ऋतुराज, नहीं- जिसने देखी जीने की राह | (2) वे सूने से नयन, नहीं- जिनमें बनाते आँसू-मोती, वह प्राणों … Read more

दुख की बदली ( Dukh Ki Badli ) : महादेवी वर्मा

मैं नीर-भरी दुख की बदली स्पंदन में चिर निस्पंद बसा, क्रंदन में आहत विश्व हंसा, नयनों में दीपक-से जलते, पलकों में निर्झरिणी मचली | (1) मेरा पग-पग संगीत-भरा, श्वासों से स्वप्न-पराग झरा, नभ के नव रंग बुनते दुकूल, छाया में मलय-बयार पली | (2) में क्षितिज-भृकुटि पर घिर धूमिल, चिंता का भार बनी अविरल, रज-कण … Read more

कौन तुम मेरे हृदय में ( Kaun Tum Mere Hriday Mein ) : महादेवी वर्मा

कौन तुम मेरे हृदय में? कौन मेरी कसक में नित मधुरता भरता अलक्षित? कौन प्यासे लोचनों में घुमड़ घिर झरता अपरिचित? स्वर्ण-स्वप्नों का चितेरा नींद के सूने निलय में ! कौन तुम मेरे हृदय में? (1) अनुसरण निश्वास मेरे कर रहे किसका निरंतर? चूमने पदचिन्ह किसके लौटते यह श्वास फिर-फिर? कौन बंदी कर मुझे अब … Read more

कह दे माँ क्या अब देखूँ ! ( Kah De Maan Kya Ab Dekhun ) : महादेवी वर्मा

देखूँ खिलती कलियाँ या प्यासे सूखे अधरों को, तेरी चिर यौवन-सुषमा या जर्जर जीवन देखूँ ! देखूँ हिम-हीरक हँसते हिलते नीले कमलों पर, या मुरझाई पलकों से झरते आँसू-कण देखूँ ! (1) प्रसंग — प्रस्तुत अवतरण महादेवी वर्मा के द्वारा रचित कविता ‘कह दे माँ क्या अब देखूँ’ से अवतरित है जिसमें कवयित्री ने प्रकृति … Read more

फूल के बोल ( Fool Ke Bol ) : भारत भूषण अग्रवाल

हँसते-खिलखिलाते रंग-बिरंगे फूल क्यारी में देख कर जी तृप्त हो गया | नथुनों से प्राणों तक खिंच गयी गंध की लकीर-सी आँखों में हो गई रंगों की बरसात ; अनायास कह उठा : ‘वाह, धन्य है वसंत ऋतु !’ (1) लौटने को पैर जो बढ़ाये तो क्यारी के कोने में दुबका एक नन्हा फूल अचानक … Read more

दूँगा मैं ( Dunga Main ) : भारत भूषण अग्रवाल

दूँगा मैं नहीं, नहीं हिचकूँगा कि मेरी अकिंचनता अनन्य है कि मैं ऐसा हूँ कि मानो हूँ ही नहीं हाँ, नहीं हिचकूँगा कि तुम्हें तृप्त कर पाऊं : मुझ में सामर्थ्य कहाँ कि अपने को नि:स्व करके भी तुम्हें बांध नहीं पाऊंगा और नहीं सोचूंगा यह भी कि आखिर तो तुम मुझे छोड़ चले जाओगे … Read more

आने वालों से एक सवाल ( Aane Valon Se Ek Sawal ) : भारत भूषण अग्रवाल

तुम, जो आज से पूरे सौ वर्ष बाद मेरी कविताएं पढ़ोगे तुम, मेरी धरती की नयी पौध के फूल तुम, जिनके लिए मेरा तन-मन खाद बनेगा तुम, जब मेरी इन रचनाओं को पढ़ोगे तो तुम्हें कैसा लगेगा : इस का मेरे मन में बड़ा कौतूहल है | (1) बचपन में तुम्हें हिटलर और गांधी की … Read more

अरण्यानी से वापसी ( Aranyani Se Vapasi ) : नरेश मेहता

मेरी अरण्यानी ! मुझे यहाँ से वापस अपनी धरती अपनी शाश्वती के पास लौटना ही होगा ! ताकि मैं – मात्र एक व्यक्ति केवल एक कवि ने रहकर अपने समय की सबसे बड़ी घटना बन सकूँ – एक कविता ! कविता – जब केवल विचार होती है तब वह सत्य का साक्षात, तब वह आत्म-उपनिषद … Read more

मंत्र-गंध और भाषा ( Mantra Gandh Aur Bhasha ) : नरेश मेहता

कौन विश्वास करेगा फूल भी मंत्र होता है? मैं अपने चारों ओर एक भाषा का अनुभव करता हूँ जो ग्रंथों में नहीं होती पर जिसमें फूलों की-सी गंध और बिल्वपत्र की-सी पवित्रता है इसीलिए मंत्र केवल ग्रंथों में ही नहीं होते | (1) प्रसंग — प्रस्तुत पंक्तियाँ हिंदी की पाठ्य-पुस्तक ‘समकालीन हिंदी कविता’ में संकलित … Read more

विप्रलब्धा ( Vipralabdha ) : डॉ धर्मवीर भारती

बुझी हुई राख, टूटे हुए गीत, डूबे हुए चांद, रीते हुए पात्र, बीते हुए क्षण-सा – मेरा यह जिस्म कल तक जो जादू था, सूरज था, वेग था तुम्हारे आश्लेष में आज वह जूड़े से गिरे हुए बेले-सा टूटा है, म्लान है | दुगना सुनसान है बीते हुए उत्सव-सा, उठे हुए मेले-सा | (1) मेरा … Read more

थके हुए कलाकार से ( Thake Hue Kalakar Se ) : डॉ धर्मवीर भारती

सृजन की थकन भूल जा देवता ! अभी तो पड़ी है धरा अधबनी अभी तो पलक में नहीं खिल सकी नवल कल्पना की मधुर चाँदनी अभी अधखिली ज्योत्सना की कली नहीं जिंदगी की सुरभि में सनी – अभी तो पड़ी है धरा अधबनी, अधूरी धरा पर नहीं है कहीं अभी स्वर्ग की नींव का भी … Read more

गुलाम बनाने वाले ( Gulam Banane Vale ) : डॉ धर्मवीर भारती

और भी पहले वे कई बार आये हैं एक बार जब उनके हाथों में भाले थे घोड़ों की टापों से खैबर की चट्टानें काँपी थी एक बार जब भालों के बजाय उनके हाथों में तिजारती परवाने थे बगल में संगीने थी | (1) लेकिन इस बार और चुपके से आए हैं | आधे हैं, जिनके … Read more

बोआई का गीत ( Boai Ka Geet ) : डॉ धर्मवीर भारती

गोरी-गोरी सोंधी धरती कारे-कारे बीज बदरा पानी दे ! क्यारी-क्यारी गूंज उठा संगीत बोने वालो ! नई फसल में बोओगे क्या? बदरा पानी दे ! (1) मैं बोऊँगा वीरबहूटी, इंद्रधनुष सतरंग नये सितारे, नयी पीढ़ियाँ, नये धान का रंग हम बोयेंगे हरी चुनरियां , कजरी, मेहंदी – राखी के कुछ सूत और सावन की पहली … Read more

फूल, मोमबत्तियां, सपने ( Fool, Mombattiyan, Sapne ) : डॉ धर्मवीर भारती

यह फूल, मोमबत्तियां और टूटे सपने ये पागल क्षण, यह काम-काज दफ्तर-फाइल, उचाट-सा जी भत्ता वेतन ! ये सब सच है ! इनमें से रत्ती भर न किसी से कोई कम, अंधी गलियों में पथभ्रष्टों के गलत कदम या चंदा की छाया में भर -भर आने वाली आंखें नम, बच्चों की-सी दूधिया हँसी या मन … Read more

फागुन की शाम ( Fagun Ki Sham ) : डॉ धर्मवीर भारती

घाट के रस्ते उस बँसवट से इक पीली सी चिड़िया उसका कुछ अच्छा-सा नाम है ! मुझे पुकारे ! ताना मारे, भर आयें आँखड़ियाँ ! उन्मन, ये फागुन की शाम है ! (1) घाट की सीढ़ी तोड़-फोड़ कर बन-तुलसा उग आयीं झुरमुट से छन जल पर पड़ती सूरज की परछाईं तोतापंखी किरनों में हिलती बांसों … Read more