जीवन-परिचय
रसखान भक्तिकालीन कृष्ण काव्यधारा के प्रमुख कवि थे | उनका जन्म सन 1533 ईस्वी में एक पठान परिवार में उत्तर प्रदेश के हरदोई जिला में पिहानी नामक स्थान पर हुआ | इनका मूल नाम सैयद इब्राहिम था लेकिन इनके काव्य में अत्यधिक रसिकता होने के कारण लोग इन्हें रसखान कहने लगे | वल्लभाचार्य के पुत्र विट्ठलनाथ उनके गुरु थे | अपने गुरु से दीक्षा लेने के उपरांत ये ब्रजभूमि में जाकर रहने लगे और काव्य रचना करने लगे | सन 1618 ईस्वी में इनका देहांत हो गया |
प्रमुख रचनाएँ
रसखान की अनेक काव्य रचनाएं प्राप्त हुई हैं परंतु इनमें से केवल चार प्रामाणिक रचनाएं मानी जाती हैं — सुजान रसखान, प्रेम वाटिका, दानलीला तथा अष्टयाम |
साहित्यिक विशेषताएँ
रसखान कृष्ण-भक्त कवि थे | अतः उन्होंने अपने काव्य में कृष्ण-भक्ति से संबंधित विभिन्न रूपों को प्रस्तुत किया है | कृष्ण के प्रति उनका प्रेम इतना अधिक प्रगाढ़ है कि केवल कृष्ण ही नहीं बल्कि कृष्ण से जुड़ी प्रत्येक वस्तु से वे प्रेम करते हैं | वे ब्रज-क्षेत्र, यमुना तट, वहां बाग-बगीचे, लताएं, पशु-पक्षी, नदी, पर्वत आदि से अत्यधिक प्रेम करते हैं | यही कारण है कि भक्ति साहित्य होते हुए भी उनके साहित्य का भाव-पक्ष अत्यंत विस्तृत एवं व्यापक बन पड़ा है |
उनके साहित्य की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं —
(1) निश्छल, नि:स्वार्थ व प्रगाढ़ प्रेम
रसखान जी की काव्य रचनाओं में श्री कृष्ण के प्रति निश्छल प्रेम की अभिव्यक्ति हुई है | उनका प्रेम इतना प्रगाढ़ है कि वे जीवन के एक क्षण को भी श्रीकृष्ण के बिना अस्वीकार करते हैं | इस प्रकार प्रभु भक्ति के माध्यम से वे प्रेम की नई परिभाषा गढ़ते हैं | अपनी रचना प्रेम वाटिका में प्रेम के स्वरूप को प्रकट करते हुए वे कहते हैं —
“प्रेम प्रेम सब कोउ कहत, प्रेम न जानत कोइ |
जो जन जानै प्रेम तौ, मरै जगत क्यों रोइ ||”
उनके अनुसार प्रेम कमलडंडी के रेशे के समान पतला और तलवार की धार के समान तीक्ष्ण होता है | यह अत्यंत सीधा भी होता है और टेढ़ा भी | वह लिखते हैं —
“कमल तंतु सौ छीन अरु, कठिन खड़ग की धार |
अति सूधो अति टेढो बहुरि, प्रेम पंथ अनिवार ||”
रसखान जी नि:स्वार्थ प्रेम पर बल देते हैं | उनका मानना है कि प्रेम करने का कोई कारण या प्रयोजन नहीं होता | जो प्रेम किसी कारण या किसी प्रयोजन से होता है वह वास्तविक प्रेम नहीं होता | भगवत प्राप्ति के लिए भी निष्काम प्रेम की आवश्यकता है |
रसखान जी लिखते हैं —
“बिन गुन जोबन रूप धन, बिन स्वारथ हित जानि |
शुद्ध कामना तैं रहित, प्रेम सकल रसखानि ||”
(2) अनन्य भक्ति भावना
रसखान जी मुसलमान होते हुए भी अनन्य भाव से कृष्ण भक्त रहे | कृष्ण के प्रति सर्वत्र उन्होंने अपनी निश्छल भक्ति भावना का परिचय दिया है | वे अपने मन, वचन और कर्म से निरंतर कृष्ण-भक्ति में लीन रहे | वे कहते हैं —
“बैन वही उनको गुन गाई औ कान वही उन बैन सौं सानी |
हाथ वही उन गात सरै और पाइ वही जु वही अनुजानी ||
जान वही उन प्राण के संग और मान वही जु करै मनमानी |
त्यौं रसखानि वही रसखानि जु है रसखानि सो है रसखानी ||”
(3) सौंदर्य वर्णन
रसखान का सौंदर्य वर्णन भी भक्ति-भावना के अंतर्गत ही आता है |उन्होंने कृष्ण-भक्ति में लीन होते हुए श्री कृष्ण के नख-शिख सौंदर्य का अद्भुत व अपूर्व वर्णन किया है | वे श्रीकृष्ण को सौंदर्य से तीनों लोकों के सौंदर्य को पराजित करने वाले मानते हैं | एक सवैये में श्री कृष्ण के रूप-सौंदर्य का चित्रण करते हुए वे लिखते हैं —
“कल कानन कुंडल, सिर मोरपखा, उर पै बनमाल विराजित है |
मुरली कर में अधरा मुसकानि, तरंग महाछवि छाजति है |
रसखानि लखे तन पीतपटा, सतदामिनी की दुति लाजति है |
वह बांसुरी की धुनि कान परे, कुलकानि हियो तजि भाजति है ||”
(4) श्रीकृष्ण की बाल-लीला का वर्णन
रसखान ने अपने आराध्य श्री कृष्ण के बाल रूप व बाल-लीला का बड़ा सुंदर वर्णन किया है यद्यपि उनका बाल वर्णन सूरदास जी के बाल-वर्णन से समानता नहीं रखता परंतु पाठक के हृदय में बाल कृष्ण की जो छवि उत्पन्न करता है वह इतनी सजीव है कि बालक कृष्ण उसे अपने समक्ष ही खेलता, खाता हुआ दिखाई देने लगता है |
कृष्ण की बाल-लीला का वर्णन करते हुए एक सवैये में रसखान जी लिखते हैं —
“धूर भरे अति शोभित स्याम जू, तैसे बनी सिर सुंदर चोटी |
खेलत खात फिरैं अंगना, पग पैंजनियाँ कटि पीरी कछोटी |
वा छवि को ‘रसखानि’ बिलोकत, बारत काम कला निज कोटी |
काग के भाग बड़े सजनी, हरि हाथ सौ ले गयौ माखन रोटी ||”
(5) ब्रज के प्रति प्रेम
रसखान जी श्री कृष्ण से इतना प्रेम करते हैं कि कृष्ण से संबंधित प्रत्येक वस्तु उन्हें प्रिय है | वे अपने काव्य में अनेक स्थान पर ब्रज के प्रति अपने प्रेम को अभिव्यक्त करते हैं | वे कभी भी ब्रज से अलग नहीं होना चाहते | वे यहां तक कहते हैं कि उनका अगला जन्म जिस रूप में भी हो वे ब्रजभूमि में ही निवास करें | अपने ब्रज-प्रेम को प्रकट करते हुए वे लिखते हैं —
“मानुष हौँ तो वही ‘रसखानि’ बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन |
जो पशु हौँ तो कहा बस मेरो, चरौँ नित नंद की धेनु मँझारन |
पाहन हौँ तो वही गिरि को जो धरयो कर छत्र पुरंदर धारन |
जो खग हौँ तो बसेरो करो नित कालिंदी कूल कदंब की डारन ||”
(6) भाषा व भाषा-शैली
रसखान ने सरल, सहज व स्वाभाविक साहित्यिक ब्रजभाषा का प्रयोग किया है | उनकी भाषा सरस होने के साथ-साथ भावानुकूल है | मुख्यत: उनकी भाषा मधुरता, सरसता तथा प्रवाहमयता के लिए प्रसिद्ध है | वे शब्दों के सरल रूप का प्रयोग करते हैं | उन्होंने अलंकारों का अनावश्यक प्रयोग तो नहीं किया लेकिन फिर भी उनके काव्य में अलंकारों का स्वाभाविक प्रयोग मिलता है | लोक-प्रचलित मुहावरों एवं लोकोक्तियां का प्रयोग भी उनके काव्य में बड़ी उत्कटता से हुआ है | उन्होंने दोहा, कवित्त और सवैया छंदों का प्रयोग किया है | अपने सवैया के कारण वे उसी प्रकार प्रसिद्ध है जिस प्रकार कबीर अपने दोहों के लिए तथा तुलसी अपनी चौपाइयों के लिए |
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