जागो फिर एक बार ( निराला ) : सप्रसंग व्याख्या
जागो फिर एक बार !
समर में अमर कर प्राण,
गान गाये महासिंधु-से,
सिंधु-नद तीरवासी !
सेंधव सुरंगों पर
चतुरंग-चमू-संग ;
“सवा-सवा लाख पर
एक को चढाऊंगा,
गोविंद सिंह निज
नाम जब कहाऊंगा |”
किसी ने सुनाया यह
वीर-जनमोहन, अति
दुर्जय संग्राम-राग,
फाग था खेला रण
बारहों महीनों में |
शेरों की मांद में,
आया है आज स्यार
जागो फिर एक बार | (1)
प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश हमारे हिंदी की पाठ्यपुस्तक में संकलित ‘जागो फिर एक बार !’ नामक कविता से लिया गया है | इसके रचयिता श्री सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी हैं | इस कविता में कवि ने भारतीय इतिहास से दशम सिख गुरु गुरु गोविन्द सिंह जी का उदाहरण देकर भारतीय नवयुवकों में देश-प्रेम और वीरता की प्रेरणा का संचार करने का प्रयास किया है |
व्याख्या – भारतीय नवयुवकों को संबोधित करते हुए कविवर निराला जी कहते हैं कि हे भारतीय युवको तुम एक बार फिर से जागृत हो जाओ | याद करो कि सिंधु नदी के तट पर रहने वाले तुम्हारे पूर्वज सिंधु प्रदेश के घोड़ों पर सवार होकर अपनी पैदल, सेना, घुड़सवार सेना, हाथियों की सेना तथा रथों के साथ सुसज्जित होकर युद्ध भूमि में लड़ते-लड़ते अपने प्राण न्योछावर कर अमरता को प्राप्त हुए थे | हे भारतीय युवकों जरा स्मरण करो कि वीरों को मोहित करने वाला वह युद्ध गीत किसने सुनाया था जिसमें कहा गया था – “मैं शत्रुओं के सवा-सवा लाख सैनिकों से अपने एक-एक सिंह को भिड़ाउंगा, तभी मैं अपना नाम गोविंद सिंह कहलाऊंगा अर्थात मेरा एक-एक वीर शत्रु के सवा लाख सैनिकों पर भारी पड़ेगा |” वीरों को मुग्ध करने वाला यह गीत किसी और ने नहीं बल्कि स्वयं गुरु गोविंद सिंह ने सुनाया था | उनके संग्राम-राग में दुर्जेय भावना थी | वर्ष के बारहों महीने वे युद्ध-भूमि में खून का फाग खेलते थे | हे भारतीय युवको ! तुम भी अपने पूर्वजों के अतुलित बलिदान व शौर्य को स्मरण कर अपनी प्रसुप्त वीरता को जगाओ | तुम सिंह हो, तुम्हारी मांद में आज सियार घुस आया है | अपनी अतुलित पराक्रम को स्मरण करो, पुन: जागो तथा इस सियार को अपनी मांद से बाहर निकाल दो | अभिप्राय यह है कि ही भारतीयो तुम अपनी वीरता के भाव को जगा कर स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़ो तथा भारत-भूमि को ब्रिटिश शासन से मुक्ति दिलाओ |
विशेष – (1) यह एक संबोधन गीत है | जिसमें भारतीय नव युवकों को संबोधित करके उनके प्रसुप्त शौर्य व पराक्रम को जगाने का प्रयास किया गया है |
(2) ओजस्वी भाषा शैली का प्रयोग हुआ है |
(3) तत्सम प्रधान शब्दावली की प्रधानता है |
(4) मुक्त छंद है |
(5) ‘खून की होली खेलना’ मुहावरे का सार्थक प्रयोग है |
(6) अनुप्रास, पुनरुक्ति प्रकाश, उपमा, रूपक आदि अलंकारों का सुन्दर व स्वाभाविक प्रयोग है |
सत श्री अकाल,
भाल-अनल धक-धक कर जला,
भस्म हो गया था काल,
तीनों गुण ताप त्रय,
अभय हो गए थे तुम,
मृत्युंजय व्योमकेश के समान,
अमृत-संतान ! तीव्र
भेदकर सप्तावरण-मरणलोक,
शोकहारी पहुंचे थे वहां,
जहां आसन है सहस्रार
जागो फिर एक बार ! (2)
प्रसंग – पूर्ववत |
व्याख्या – भारतीय नव युवकों को संबोधित करते हुए कविवर निराला जी कहते हैं कि हे युवकों तुम याद करो युद्ध का वह दृश्य जब गुरु गोविंद सिंह जी सत श्री अकाल का उद्घोष करते हुये युद्ध भूमि में कूद पड़े थे | उस समय उनके मस्तक पर वीरता का तेज अग्नि की भांति धधक रहा था | उनके तेज की आग में स्वयं काल भी भस्म हो गया था | उस समय तीनों प्रकार के गुण ( सत, रज और तम ) तथा तीनों प्रकार के दुख ( दैहिक, भौतिक और आत्मिक ) जलकर नष्ट हो गए थे | कहने का तात्पर्य यह है कि उस समय गुरु गोविंद सिंह जी मृत्यु के भय से निर्भय होकर युद्ध में लड़ने गए थे | उस समय वे सभी प्रकार के कष्टों से ऊपर उठकर मृत्युंजय शिव के समान निर्भय हो गाये थे |
विशेष – (1) यह एक संबोधन गीत है | जिसमें भारतीय नव युवकों को संबोधित करके उनके प्रसुप्त शौर्य व पराक्रम को जगाने का प्रयास किया गया है |
(2) भाषा और ओज गुण संपन्न है |
(3) तत्सम प्रधान शब्दावली है |
(4) मुक्त छंद है |
(5) वीर रस का सुन्दर परिपाक है |
(6) अनुप्रास व उपमा अलंकार है |
सिहीं की गोद से छीनता है शिशु कौन?
मौन भी क्या रहती वह रहते प्राण?
रे अजान,
एक मेषमाता ही
रहती है निर्निमेष
दुर्बल वह
छिनती संतान जब
जन्म पर अपने अभिशप्त
तप्त आंसू बहाती है |
किंतु क्या?
योग्यजन जीता है,
पश्चिम की उक्ति नहीं,
गीता है गीता है,
स्मरण करो बार-बार
जागो फिर एक बार ! (3)
पशु नहीं वीर तुम ;
समर-शूर, क्रूर नहीं ;
कालचक्र में हो दबे,
आज तुम राजकुंवर,
समर सरताज !
मुक्त हो सदा ही तुम,
बाधा-विहीन-बन्ध छंद ज्यों,
डूबे आनंद में सच्चिदानंद-रूप |
महामंत्र ऋषियों का
अणुओं-परमाणुओं में फूंका हुआ,
“तुम हो महान
तुम सदा हो महान,
है नश्वर यह दीनभाव,
कायरता, कामपरता,
ब्रह्म हो तुम,
पद रज भर भी है नहीं,
पूरा यह विश्व-भार “
जागो फिर एक बार | (4)
प्रसंग – पूर्ववत |
व्याख्या – कविवर निराला भारत के नव युवकों को संबोधित करते हुए कहते हैं कि हे युवको ! तुम स्वयं ही सोचो कि क्या एक सिंहनी की गोद से उसके शिशु को कोई छीन सकता है? क्या वह अपने प्राण शेष रहते चुप रहती है? अर्थात कदापि नहीं | वह अपने शिशु की रक्षा के लिए अपनी अंतिम सांस तक प्रयास करती है | हे अबोध ! वास्तव में केवल एक मेषमाता ही ऐसा अत्याचार होने पर चुप रहती है | वह अपने अभिशप्त जीवन पर तप्त आंसू बहाती है | लेकिन हे नवयुवको ! क्या एक योग्य व्यक्ति भी इस प्रकार से असहाय जीवन जीता है? अर्थात कदापि नहीं वह अपने ऊपर होने वाले प्रत्येक अत्याचार का प्रतिकार करता है | कविवर निराला जी कहते हैं कि यह पश्चिम की उक्ति नहीं है बल्कि श्रीमद्भागवत गीता का उपदेश है | (3)
हे भारतीय युवको ! तुम पशु के समान निरीह नहीं बल्कि वीर हो | तुम युद्ध में वीरता व पराक्रम दिखाने वाले हो परन्तु क्रूर नहीं हो | परंतु इस समय तुम कालचक्र में फंसे हुए हो | हे राजकुमारो ! तुम शासन के अधिकारी हो, सर्वश्रेष्ठ योद्धा हो, तुम युद्ध की प्रथम पंक्ति में रहने वाले हो | हे भारतीय युवको, तुम बन्ध-हीन छंद की भांति हमेशा स्वतंत्र रहने वाले हो | तुम हमेशा आनंद-निमग्न रहने वाले सच्चिदानंद स्वरुप साक्षात् ब्रह्म के समान हो | यह भारतीय युवको तुम ऋषि-मुनियों के उस महामंत्र को स्मरण करो जो कण-कण में व्याप्त है और जो तुम्हें यह संदेश दे रहा है कि तुम महान हो और सदा से महान थे | परंतु तुमने अपनी महानता को भूल कर जो कायरता, दीनता और कामपरकता अपना ली है, वह नश्वर और अस्थिर है | यह भारतीय युवकों वास्तव में तुम ब्रह्म हो, साक्षात ईश्वर हो | यह संसार तो तुम्हारे पांव की धूलि के समान भी नहीं है | तुम इस तथ्य का स्मरण करके एक बार फिर से जागो और भारत भूमि को पराधीनता की बेड़ियों से मुक्त कराने के लिए स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़ो | (4)
विशेष – (1) कवि ने इस कविता के माध्यम से नव युवकों को निर्भीक होकर स्वतंत्रता-आंदोलन में कूद पड़ने का आह्वान किया है |
(2) भाषा ओजगुण संपन्न है |
(3) वीर रस है |
(4) मुक्त छंद है |
(5) अनुप्रास, पुनरुक्ति प्रकाश, रूपक व उपमा अलंकार है |
‘जागो फिर एक बार !’ कविता का प्रतिपाद्य / उद्देश्य या संदेश
‘जागो फिर एक बार’ एक उद्बोधन गीत है | इस कविता में कविवर निराला ने भारतीय इतिहास से उदाहरण देकर भारतीय नवयुवकों को स्वतंत्रता आंदोलन में कूदने की प्रेरणा दी है | निराला जी कहते हैं कि हे नवयुवको ! तुम उन पूर्वजों की संतान हो जो सैंधव घोड़ों पर बैठ युद्ध भूमि में अपना पराक्रम दिखाते थे और वर्ष के बारहों महीने खून की होली खेलते थे | दशम सिख गुरु गुरु गोविन्द सिंह का उदाहरण देते हुये निराला जी कहते हैं कि हे नवयुवको ! गुरु गोविन्द सिंह जी के उस सम्मोहक उद्घोष को स्मरण करो जिसमें उन्होंने अपने एक-एक वीर को शत्रु के सवा लाख योद्धाओं पर भारी पड़ने की बात कही थी |
“सवा-सवा लाख पर एक को चढ़ाऊंगा
गोविंद सिंह निज नाम जब कहाऊंगा |”
निराला जी कहते हैं कि हे भारतीय नवयुवको ! तुम शेर के समान वीर हो | फिर तुम क्यों अत्याचार सहन कर रहे हो? कवि कहता है कि एक असहाय मेषमाता से ही उसके अबोध शिशु को कोई छीन सकता है लेकिन शेरनी अपनी अंतिम सांस तक प्रतिकार करती है |
“सिंही की गोद से छीनता है शिशु कौन?
मौन भी क्या रहती वह रहते प्राण?
रे अजान !
एक मेषमाता ही
रहती है निर्निमेष –
दुर्बल वह –
छिनती संतान जब
जन्म पर अपने अभिशप्त
तप्त आँसू बहाती है |”
लेकिन कवि कहता है कि हे भारतवासियो ! तुम भेड़ नहीं शेर हो | वास्तव में तुम आज कालचक्र में दबे हुए हो इसलिए अपने शौर्य को भूल चुके हो | आवश्यकता इस बात की है कि तुम अपने उस शौर्य व पराक्रम को स्मरण करो और अपने नश्वर दीन-भाव, कायरता और कामपरता को त्याग कर फिर से एक बार विश्व को दिखा दो कि तुम तो हमेशा आनंद में डूबे रहने वाले साक्षात सच्चिदानंद स्वरूप हो और यह विश्व-भार तुम्हारे पैरों की धूल के समान भी नहीं है |
“है नश्वर यह दीनभाव,
कायरता, कामपरता,
ब्रह्म हो तुम,
पदरज भी है नहीं,
पूरा यह विश्व-भार
जागो फिर एक बार !”
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अद्भुत
व्याख्या के अभाव में कविता के मूल भावों तक पहुंच पाना मुश्किल
आदर सहित प्रणाम
प्रश्न और उत्तर
Bahut bahut dhanyawad
Aapka
आभार
it’s very helpful tysm…❤️
Thanks for appreciation